
इक ख़मोशी भरी गुफ़्तार यहां पर क्यूं है !
एक से एक है बढ़कर यहां फ़ातेह मौजूद,
तू समझता भला ख़ुद ही को सिकन्दर क्यूं है !
वो तेरे दिल में भी रहता है मेरे दिल में भी,
फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मन्दर क्यूं है !
सब के होटों पे मुहब्बत के तराने हैं रवाँ,
पर नज़र आ रहा हर हाथ में ख़न्जर क्यूं है !
क्यूं हर इक चेहरे पे है कर्ब की ख़ामोश लकीर,
आंसुओं का यहां आंखों में समन्दर क्यूं है !
तू तो हिन्दू है मैं मुस्लिम हूं ज़रा ये तो बता,
रहता अक्सर तेरे कांधे पे मेरा सर क्यूं है !
काम इसका है अंधेरे में दिया दिखलाना,
राह भटका रहा ’शम्सी’ को ये रहबर क्यों है !
-------

मोईन शम्सी मूलत: बरेली (उत्तरप्रदेश) के हैं तथा पिछले अट्ठारह वर्षों से दिल्ली में अध्यापन कार्य कर रहे हैं।
कविता तथा लघुकथा लेखन के साथ साथ आपनी अभिरुचि अभिनय में भी है।
7 टिप्पणियाँ
सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंफिर भी एक सूनी जजाल पर आधारित है ऐसा लगा !
कुछ नया चाहिए |
अवनीश तिवारी
गजल *
जवाब देंहटाएंअच्छी गज़ल....बधाई
जवाब देंहटाएंसुंदर....आभार आपका...
जवाब देंहटाएंबधाई आपको...
धन्यवाद मित्रो !
जवाब देंहटाएं---moin shamsi
shuruaat achhi thi...
जवाब देंहटाएंmujhe aisa laga ki bahut kuchh kehne ki chah mein baad ke shabd bhatag gaye...
parantu, aisi soch ki badhai...
Achchhi koshish hai jagrukta ki. keep it up
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.