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मच्छरराम [बाल कविता] - प्रबुदयाल श्रीवास्तव

अपने घर का खर्च चलाने
मच्छर ने खोली दूकान,
बड़े मजे से बैठे बैठे
लगा बेचने बीड़ी पान|

सौ रुपये के तेंदू पत्ते
दो सौ का बीड़ी जरदा,
लाकर घर में शुरू कर दिया
स्वयं ही बीड़ी का निर्माण|

पत्नी रोज काटती पत्ते
बच्चे भरते तम्बाकू,
भांज भांज कर बीड़ी उसने
सजा रखी सुंदर दूकान|

एक दिवस पर उसने देखा
उसके दस के दस बच्चे,
बीड़ी पी रहे मजे मजे से
खाते खाते बंगला पान|

खाँस खाँस कर छ:बच्चों ने
पल भर में दम तोड़ दिया,
डर के मारे मच्छर जी ने
तुरत बंद कर दी दूकान|

अब मच्छरजी घर में रहकर
मानव खून चूसते हैं
सब पर दया बराबर करते
घरवाले हों या हों मेहमान|

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4 टिप्पणियाँ

  1. बहुत गहरा संदेश अंतर्निहित है

    जवाब देंहटाएं
  2. एक बडी अमस्या पर भी आप की कविता ध्यान खींचती है। आप सही मायनों में नन्हे मुन्नों को राह दिखा रहे हैं।

    जवाब देंहटाएं
  3. सार्थक बाल रचना...
    सुंदर सन्देश ...
    आभार प्रभुदयाल जी...

    बधाई आपको...

    आज ऐसे ही बाल गीतों की आवश्यकता है....

    जवाब देंहटाएं

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