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गीत गाना चाहता हूँ [कविता] - गौरव शुक्ला


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गीत गाना चाहता हूँ
आज मन की रुद्र वीणा को,
बजाना चाहता हूँ।
मैं तुम्हारी अस्मिता के गीत,
गाना चाहता हूँ।

आज बरसों बाद सुधियों की,
नई खिड़की खुली है।
तारिकाएँ झिलमिलाती,
चाँदनी-रस में घुली है।
प्राण है बिलकुल अकेला,
मंदिरों की मूर्तियों-सा।
इसलिए उसको कहानी,
मैं सुनाना चाहता हूँ।

कौन जाने कब तलक है
आज पलकों पर सवेरा
कालिमा की रात लेकर
आ न जाए ¬फर अँधेरा।
आज माटी के दियों में
भावना की बातियों से
रोशनी का एक दीपक
मैं जलाना चाहता हूँ।

दृष्टि का सूरज सनातन
आज बादल में घिरा है
हर तरफ अंधड़-बगूले
रात भर सावन गिरा है ।
प्यास जागी है अधर पर
कंठ सूखे जा रहे हैं,
तृप्ति पाने को सुधा की
बूँद पाना चाहता हूँ।

मैं तुम्हारी अस्मिता के गीत,
गाना चाहता हूँ।
रचनाकार परिचय:-

गौरव शुक्ला कुछ समय पूर्व तक कवि और पाठक दोनों ही के रूप में अंतर्जाल पर बहुत सक्रिय रहे हैं।

अपनी सुंदर और भावपूर्ण कविताओं, गीतों और गज़लों के लिये पहचाने जाने वाले गौरव को अपने कुछ व्यक्तिगत कारणों से अंतर्जाल से दूर रहना पड़ा। साहित्य शिल्पी के माध्यम से एक बार फिर आपकी रचनायें अंतर्जाल पर आ रही हैं।

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4 टिप्पणियाँ

  1. गौरव जी का मैं हमेशा से प्रशंसक रहा हूँ। आपके "शिल्प" का कोई तोड़ नहीं है। शुद्ध हिन्दी के शब्द आजकल विरले हीं देखने को मिलते हैं। छन्द-मुक्त होते जा रहे इस काव्य-जगत में "छंद" का ऐसा अनुपम उदाहरण रेगिस्तान में "ओसिस" के समान है।

    और हाँ, भाव भी उसी तरह अनमोल हैं।

    बधाई स्वीकारें!
    -विश्व दीपक

    जवाब देंहटाएं
  2. क्या कहा जाए - superb !

    अवनीश तिवारी

    जवाब देंहटाएं
  3. मैं तुम्हारी अस्मिता के गीत,
    गाना चाहता
    wah.kitna sunder bhaw hai.

    जवाब देंहटाएं

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