
कि
हम शोषित और अव्यवस्थित है ।
व्यवस्थित सोच से उत्पन्न समाज में
श्रंखलित व्यवस्था के पायदान पर खड़े हो
शोर भर मचाना
हमारी फितरत है, बस
और कुछ नही ।
हम सोचते हैं कि
कोई आये, और
हम बन जायें अनुयायी ।
कि शायद
जो दिला सके हमें
पुनः आजादी ।
मगर कौन ?
उन सबको हम
बहुत पहले मार चुके हैं ।
और
हमने सीखा है तो
सिर्फ
अनुगमन !
4 टिप्पणियां
सही कहा मैं भी किसी और का इन्तजार कर रहा हूँ, शायद कोई आये और मैं उसका अनुगमन कर सकूं, जानता हूँ कि मुझे पहल करनी चाहिए पर इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाता|
जवाब देंहटाएंवाह अच्छी कविता है.
जवाब देंहटाएंचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 01- 02- 2011
जवाब देंहटाएंको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.uchcharan.com/
Ekdum sahi... !
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.