
न ही मुझे बनाने देती गोबर मिट्टी का चूल्हा
गपई समुद्दर क्या होता है,नहीं जानता अब कोई
गिल्ली डंडे का टुल्ला तो बचपन बिल्कुल ही भूला
अब तो सावन खेल रहा है रात और दिन टी वी से
आम नीम की डालों पर अब कहीं नहीं दिखता झूला
अब्ब्क दब्बक दांयें दीन का बिसरा खेल जमाने से
अटकन चटकन दही चटाकन लगता है भूला भूला
न ही झड़ी लगे वर्षा की न ही चलती पुरवाई
मौसम हुआ अपंग अनाड़ी वक्त हुआ लगड़ा लूला
ऐसी चली हवा पश्चिम की हम खुद को ही भूल गये
गुड़िया अब ये नहीं जानती क्या होता है रमतूला
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7 टिप्पणियाँ
ग्रामीण परिवेश एवं पुरातन परंपराओं का स्मरण कराती सुंदर रचना |बधाई
जवाब देंहटाएंरमेश खरे बंगलुरु
प्रभुदयाल जी,
जवाब देंहटाएंभारतीय संस्कृति पर पश्चिमीकरण की मार और बचपन के खेल-खिलवाड़ों की विकट स्थिति पर आपने बड़ी हीं मारक टिप्पणी है... बधाई स्वीकारें!!
इसे केवल बाल कविता नहीं कहा जा सकता। इस कविता में अपनी पीढी के लिये चिंता है।
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएं-Alok Kataria
आंचलिक साहित्य कार परिषद छिंदवाड़ा की काव्य गोष्ठी में आपकी यह कविता आपके द्वारा पढ़ी गई थी
जवाब देंहटाएंइस बाल गीत को सुनकर मेरा बचपन स्मृतियों में साकार हो उठा|बच्चों के कोमल और पारदर्शी स्वभाव
की सटीक अभिव्यक्ति करती कोमलकांत पदावली में लिखी यह रचना मन को छू गई,मिट्टी में लिपटा बचपन याद आ गया|
अवधेश तिवारी वरिष्ठ उदघोषक
आकाशवाणी छिंदवाड़ा
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
जवाब देंहटाएं‘मंहगाई मार गई..!!
क्या होता है रमतूला , वाह अंकल मजा आ गया पुराने दिन याद आ गये जब हम लोग घरघूला
जवाब देंहटाएंखेलते थे और मिट्टी के चूल्हे बनाते थे|अब तो पढ़ाई में सब भूल गये|
पूनम भलावी
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