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प्रतिकार [कविता] - प्रकाश 'पंकज'

राजा सशंकित, प्रजा सशंकित और यह ध्वजा सशंकित,
सोंचता हूँ देश की धरती, तुझे त्याग ही दूँ ।
पर,
तज नहीं सकता जो प्राणों से भी प्यारा हो,
वो जिसने गोद में पाला, जो सर्वस्व हमारा हो।
उनके रक्त की उष्ण धार को फिर से बहा देंगे,
जो इस धरा पर लूट का व्यापार रचते हैं।
वे उस जमीं की लूट का धन ले बटोरे हैं,
जिस जमीं पर जान हम अपनी छिड़कते हैं।।१।।

शिक्षा प्रताड़ित, गुरु प्रताड़ित आज हर विद्या प्रताड़ित,
सोंचता हूँ देश के गुरुकुल, तुझे भूल ही जाऊँ।
पर,
भुला नहीं सकता जो कंठों से गुजरता हो,
जो विद्या हमारी हो, जो गांडीव हमारा हो।
उन सब दलालों को हम चुन-चुन निकालेंगे,
जो शिक्षा के नाम का व्यापार रचते हैं।
वे उस शिक्षा के लूट का धन ले बटोरे हैं,
जिस शिक्षा के लिए हम अपने घर-बार खरचते हैं।।२।।

संस्कृति विसर्जित, भाषा विसर्जित, राष्ट्र का हर गौरव विसर्जित,
चाहता हूँ देश की माटी, तुझे खोखला कह दूँ।
पर,
गर्व न कैसे करूँ? गौरव इतिहास जिसका हो,
जनक जो सभ्यता का हो, गुरु जो सारे जहां का हो।
हम राष्ट्र द्रोही कंटकों का समूल नाश कर देंगें,
जो इस धरा का नमक खा, दुश्मन की गाते है।
वे उस धरा को तोड़ने का उद्योग करते हैं,
जिस धरा के सृजन में हम तन-मन लुटाते हैं।।३।।

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9 टिप्पणियाँ

  1. इस मंच पर मेरी इस कविता को प्रकाशित करने के लिए आपको कोटिशः धन्यवाद!!

    @http://prakashpankaj.wordpress.com

    जवाब देंहटाएं
  2. नये तरह की शैली है। अच्छी लगी रचना।

    जवाब देंहटाएं
  3. भावपूर्ण रचना...आभार पंकज जी...

    जवाब देंहटाएं
  4. गर्व न कैसे करूँ? गौरव इतिहास जिसका हो,
    जनक जो सभ्यता का हो, गुरु जो सारे जहां का हो।
    हम राष्ट्र द्रोही कंटकों का समूल नाश कर देंगें,
    जो इस धरा का नमक खा, दुश्मन की गाते है।
    वे उस धरा को तोड़ने का उद्योग करते हैं,
    जिस धरा के सृजन में हम तन-मन लुटाते हैं।।३।।
    sunder likha hai
    rachana

    जवाब देंहटाएं
  5. Tan samarpit, Man Samarpit Aur yah jivan samarpit.
    Chahta hoon dekh ki dharti tujhe kuch aur bhi doon.

    Is this a spoof? Why published at a standard forum?

    जवाब देंहटाएं

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