
सोंचता हूँ देश की धरती, तुझे त्याग ही दूँ ।
पर,
तज नहीं सकता जो प्राणों से भी प्यारा हो,
वो जिसने गोद में पाला, जो सर्वस्व हमारा हो।
उनके रक्त की उष्ण धार को फिर से बहा देंगे,
जो इस धरा पर लूट का व्यापार रचते हैं।
वे उस जमीं की लूट का धन ले बटोरे हैं,
जिस जमीं पर जान हम अपनी छिड़कते हैं।।१।।
शिक्षा प्रताड़ित, गुरु प्रताड़ित आज हर विद्या प्रताड़ित,
सोंचता हूँ देश के गुरुकुल, तुझे भूल ही जाऊँ।
पर,
भुला नहीं सकता जो कंठों से गुजरता हो,
जो विद्या हमारी हो, जो गांडीव हमारा हो।
उन सब दलालों को हम चुन-चुन निकालेंगे,
जो शिक्षा के नाम का व्यापार रचते हैं।
वे उस शिक्षा के लूट का धन ले बटोरे हैं,
जिस शिक्षा के लिए हम अपने घर-बार खरचते हैं।।२।।
संस्कृति विसर्जित, भाषा विसर्जित, राष्ट्र का हर गौरव विसर्जित,
चाहता हूँ देश की माटी, तुझे खोखला कह दूँ।
पर,
गर्व न कैसे करूँ? गौरव इतिहास जिसका हो,
जनक जो सभ्यता का हो, गुरु जो सारे जहां का हो।
हम राष्ट्र द्रोही कंटकों का समूल नाश कर देंगें,
जो इस धरा का नमक खा, दुश्मन की गाते है।
वे उस धरा को तोड़ने का उद्योग करते हैं,
जिस धरा के सृजन में हम तन-मन लुटाते हैं।।३।।
9 टिप्पणियाँ
uttam rachana ke liye bhoor bhoor prashansa pankaj bhai
जवाब देंहटाएंइस मंच पर मेरी इस कविता को प्रकाशित करने के लिए आपको कोटिशः धन्यवाद!!
जवाब देंहटाएं@http://prakashpankaj.wordpress.com
नये तरह की शैली है। अच्छी लगी रचना।
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएं-Alok Kataria
good and great.
जवाब देंहटाएंAvaneesh
भावपूर्ण रचना...आभार पंकज जी...
जवाब देंहटाएंगर्व न कैसे करूँ? गौरव इतिहास जिसका हो,
जवाब देंहटाएंजनक जो सभ्यता का हो, गुरु जो सारे जहां का हो।
हम राष्ट्र द्रोही कंटकों का समूल नाश कर देंगें,
जो इस धरा का नमक खा, दुश्मन की गाते है।
वे उस धरा को तोड़ने का उद्योग करते हैं,
जिस धरा के सृजन में हम तन-मन लुटाते हैं।।३।।
sunder likha hai
rachana
अच्छी कविता...बधाई
जवाब देंहटाएंTan samarpit, Man Samarpit Aur yah jivan samarpit.
जवाब देंहटाएंChahta hoon dekh ki dharti tujhe kuch aur bhi doon.
Is this a spoof? Why published at a standard forum?
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