
“प्रवासी साहित्य को पाउंड में न तौलकर उसकी आलोचना भी होनी चाहिए, ताकि उनका साहित्य और ज़्यादा निखर कर सामने आ सके।“ डी.ए.वी. कॉलेज फ़ॉर गर्ल्ज़, यमुनानगर; हरियाणा और कथा यू.के. ; लंदन के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित तीन दिवसीय; 10-12 फ़रवरी, 2011 अन्तरराष्रीय य संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में ब्रिटिश लेबर पार्टी की काउंसलर तथा कहानीकार ज़कीया ज़ुबैरी ने अपने विचार व्यक्त किए। उन्होंने डी.ए.वी. कॉलेज फ़ॉर गर्ल्ज़ की प्रिंसिपल सुषमा आर्य के साथ मिल कर कथा यू.के. के पिछले 16 वर्षों के कार्यक्रमों की एक प्रदर्शनी का भी उद्घाटन किया।
मुख्य अतिथि सुप्रसिद्ध कथाकार एवं ‘हंस’ के संपादक राजेन्द्र यादव का कहना था कि प्रवास का दर्द झेलना आज के दौर में मनुष्य की नियति है। यह दर्द कोई विदेश में जाकर झेलता है तो ढेर सारे लोग ऐसे हैं, जिन्हें देश के अंदर ही यह दंश झेलना पड़ता है। उन्होंने आशंका जताई कि अगर प्रवासियों का बहुत ज्यादा जुड़ाव अपनी जड़ों से होगा तो इससे साहित्य का विकास सही तरीके से नहीं हो सकेगा। विदेशों में जो लोग साहित्य की रचना कर रहे हैं, वे हमेशा दोहरी पहचान में बंधे रहते हैं जिस कारण वे न तो यहां की और न ही वहां की जिन्दगी में हस्ताक्षेप कर पाते हैं।

इस अवसर पर कथा यू.के.; लंदन के महासचिव और ‘क़ब्र का मुनाफ़ा’ जैसी चर्चित कहानी के लेखक सुप्रतिष्ठित कहानीकार तेजेंद्र शर्मा की पीड़ा थी कि विदेश में लिखे गए साहित्य को प्रवासी साहित्य का आरक्षण देकर मुख्य धारा के लेखकों में उन्हें शामिल नहीं किया जाता। उनका मानना है कि इस तरह विदेशों में लिखे जा रहे हिन्दी साहित्य को हाशिये पर धकेल दिया जाएगा।
इस अवसर पर दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो. गोपेश्वर सिंह ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि प्रवासी साहित्य एक स्थापित साहित्य है जिसे दरकिनार नहीं किया जा सकता। प्रवासी साहित्य के ज़रिए हिंदी अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना रही है। भाषा बदलती ज़रुर है लेकिन भ्रष्ट नहीं होती। डी.ए.वी. कॉलेज फ़ॉर गर्ल्ज़ की प्राचार्या डा. सुषमा आर्य ने कहा कि प्रवासी साहित्यकारों का भारतीय समाज के साथ जो रिश्ता होना चाहिए, वह किसी कारणवश नहीं बन पा रहा है। संगोष्ठी के संयोजक पत्रकार अजित राय ने कहा कि प्रवासी भारतीय साहित्य के प्रसार में मीडिया का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है।
देश और विदेशों में रह रहे लेखकों ने विभिन्न सत्रों में आयोजित प्रवासी हिंदी साहित्य पर विचारोतेजक चर्चा की। अबूधाबी से आए कहानीकार कृष्ण बिहारी ने कहा कि साहित्य तो साहित्य होता है चाहे वह विदेश में बैठकर लिखा गया हो या फिर देश में। भाषा तो अभिव्यक्ति का एक माध्यम है जो लोगों के दिल में बसती है। हमें प्रवासी साहित्यकार कहकर संबोधित न करें। बर्मिंघम से आए डा. कृष्ण कुमार ने कहा कि प्रवासी साहित्कारों ने शोध करके जिस साहित्य की रचना की है, वह अतुलनीय है। कनाडा से आईं ‘वसुधा’ की संपादक स्नेह ठाकुर का मानना था कि हिंदी के साथ कलम का ही नहीं अपितु दिल का रिश्ता भी है।

प्रवासी रचनाकारों की शिकायत भारतीय प्रकाशकों से भी कुछ कम नहीं थी कि उनकी रचनाओं को प्रकाशित करने के लिए एक ओर पैसे की मांग की जाती है वहीं दूसरी ओर हिंदी के प्रकाशक उनकी रचनाओं को प्रकाशित करने में वैसी दिलचस्पी नहीं दिखाते, जैसी कि वे भारत में रह रहे रचनाकारों की रचनाओं को प्रकाशित करने में दिखाते हैं। जिसे इस गोष्ठी में शिरकत कर रहे तीन प्रकाशकों - महेश भारद्वाज; सामायिक, ललित शर्मा; शिल्पायन और अजय कुमार; मेधा ने पैसे लेकर पुस्तक छापने की बात को सिरे से ख़ारिज कर दिया।
इस संगोष्ठी में प्रवासी रचनाकारों की रचनाओं को लेकर हिंदी के लेखकों, आलोचकों ने अपने-अपने विचार व्यक्त किए। संगोष्ठी के पहले सत्र, जो ‘जड़े देशभक्ति, भूमंडलीकरण और प्रवासी हिंदी कथा साहित्य’ पर केन्द्रित था, में मुख्य वक्तव्य देते हुए सुपरिचित आलोचक और ‘पुस्तक वार्ता’ के संपादक भारत भारद्वाज ने कहा कि विदेश में लिखे जा रहे हिंदी साहित्य को प्रवासी साहित्य की संज्ञा देना भ्रामक है। ऐसी स्थिति में संपूर्ण आधुनिक हिंदी साहित्य को भी प्रवासी साहित्य कहना होगा क्योंकि तमाम लेखक अपनी जड़ों से कटे हुए हैं। प्रतिष्ठित उपन्यासकार भगवान दास मोरवाल ने ज़कीया ज़ुबैरी की कहानियों पर चर्चा करते हुए कहा कि ज़कीया की रचनाओं का आस्वाद लेने के लिए सिर्फ पाठक होना होगा वहीं कहानीकार हरि भटनागर ने कहा कि ज़कीया की कहानियां पढ़ते हुए लगता है कि मानो तंगहाली की कहानी मजे ले-लेकर सुनाई जा रही हो। दिव्या माथुर की कहानियों पर बोलते हुए अरुण आदित्य ने ‘सौ सुनार’ का जिक्र करते हुए कहा कि यह अपनी तरह की ख़ास कहानी है जिसका पूरा कथानक मुहावरों और लोकोक्तियों के आधार पर बढ़ता है। अजय नावरिया ने तेजेन्द्र शर्मा की कहानियों को निर्मल वर्मा की कहानियों से आगे की कहानी कहा जिनमें ब्रिटेन की जीवन की सजीव झलक मिलती है।
मनोज श्रीवास्तव का कहना था कि प्रवासी लेखन दायित्व बोध से भरा हुआ है। यह साहित्य पर्यटन के लिये नहीं रचा जाता। महेन्द्र मिश्र का मानना था कि एक-दो रचनाओं के आधार पर रचनाकारों पर कोई राय नहीं बनाई जा सकती। संजीव, प्रेम जनमेजय, वैभव सिंह, महेश दर्पण, अजय नावरिया, निर्मला भुराड़िया, नीरजा माधव, पंकज सुबीर, शंभु गुप्त, अमरीक सिंह दीप, महेश दर्पण, विजय शर्मा, मधु अरोड़ा, जय वर्मा (नॉटिंघम) आदि ने भी अपने विचार प्रस्तुत किए।
इस सम्मेलन में ब्रिटेन से अचला शर्मा, दिव्या माथुर, डा. कृष्ण कुमार, नीना पॉल, अरुण सभरवाल, चित्रा कुमार, ज़कीया ज़ुबैरी, तेजेन्द्र शर्मा; कनाडा से स्नेह ठाकुर; शारजाह से पूर्णिमा वर्मन; एवं आबुधाबी से कृष्ण बिहारी आदि ने भाग लिया।

इस तीन दिवसीय संगोष्ठी में चार पुस्तकों - भगवान दास मोरवाल का उपन्यास ‘रेत’ का उर्दू अनुवाद, लंदन से आईं कहानीकार दिव्या माथुर की ‘2050 और अन्य कहानियां’, कृष्ण बिहारी के कहानी संग्रह ‘स्वेत श्याम रतनार’ एवं तेजेंद्र शर्मा के अनुवादित पंजाबी संग्रह ‘कल फेर आंवीं’ - का लोकापर्ण भी हुआ। डी.ए.वी. कॉलेज की छात्राओं द्वारा तेजेंद्र शर्मा की कहानी ‘पासपोर्ट का रंग’ और ज़कीया ज़ुबैरी की कहानी ‘मारिया’ का नाट्य मंचन किया गया। संभवतः यह पहला अवसर है जब भारत में प्रवासी साहित्य पर सार्थक और विचारोतेजक अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की गई, जिसकी अनुगॅूज देर तक ही नहीं, दूर तक भी सुनाई पड़ेगी।
3 टिप्पणियाँ
रिपोर्ट पढ़कर अच्छा लगा । भारत प्रवास के दौरान तेजेन्द्र जी, हरि भटनागर जी और अजित राय जी से फोन पर बात हुई थी । कार्यक्रम में नहीं आ सकने का अफसोस रहा । लेकिन रिपोर्ट को पढ़कर ऐसा लगा कि कार्यक्रम अच्छा रहा । इससे जुड़े सब लोगों को बधाई !
जवाब देंहटाएं- अमरेन्द्र
http://amarendrahwg.blogspot.com/
Saahitya shilpii ke pratyek ank bade chaaw aur manoyog se padhataa hun. Har ank na kewal pathaniiya hotaa hai balki sangrahniiya bhii. Kintu samayaabhaaw ke kaaran tippanii nahin kar pataa. Darasal kam samay mein zyaadaa kaam karane kii dhun sawaar hai.
जवाब देंहटाएंसभी को बधाई...
जवाब देंहटाएंआभार
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