
राजीव रंजन प्रसाद का जन्म बिहार के सुल्तानगंज में २७.०५.१९७२ में हुआ, किन्तु उनका बचपन व उनकी प्रारंभिक शिक्षा छत्तिसगढ राज्य के जिला बस्तर (बचेली-दंतेवाडा) में हुई। आप सूदूर संवेदन तकनीक में बरकतुल्ला विश्वविद्यालय भोपाल से एम. टेक हैं।
विद्यालय के दिनों में ही आपनें एक पत्रिका "प्रतिध्वनि" का संपादन भी किया। ईप्टा से जुड कर उनकी नाटक के क्षेत्र में रुचि बढी और नाटक लेखन व निर्देशन उनके स्नातक काल से ही अभिरुचि व जीवन का हिस्सा बने। आकाशवाणी जगदलपुर से नियमित उनकी कवितायें प्रसारित होती रही थी तथा वे समय-समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुईं।
वर्तमान में आप सरकारी उपक्रम "राष्ट्रीय जलविद्युत निगम" में कार्यरत हैं।
आप "साहित्य शिल्पी" के संचालक सदस्यों में हैं।
आपकी पुस्तक "टुकडे अस्तित्व के" प्रकाशनाधीन है।
अंतड़ियाँ फट कर बाहर निकल जाना चाहती थीं
उन पलों जीना कठिन था
दाँतों को भींच कर, हाँथों से पेट थाम कर
आँखें मूंद कर, बेतरतीब सी आवाजें निकाल कर
ऊपर बैठे उस परमपिता परमेश्वर से
रह रह कर गुहार कर रहा था
कि जीवन में कुछ पुण्य अगर किये हों
तो बही-खाता उलट लो
राहत दो भगवन, कैश कर दो हिसाब किताब मेरा..
अस्पताल पहुँच कर अलबत्ता दो सूईयों ने
मेरी सोच को बहुत गहरी नींद के हवाले कर दिया
सुबह होते ही कैसी-कैसी जाँच से हो कर गुजरा
नयी तकनीक से अनपढ़ मैं क्या जानूँ
इतना ही पता चला
अपने पर्स की पीठ पेट से लगने के बाद
कि पेट में पथरी है, निकलवा कर
मुस्कुरा कर लौट सकूँगा घर
" चालीस पचास हजार का मामूली खर्च है
फिर आपको क्या चिंता करना सरकारी अधिकारी हैं"
डॉक्टर ने मुझे इस नज़र से देख कर कहा
जैसे हलाल होने वाला मुर्गा मोटा ताजा हो...
बगल ही स्ट्रेचर पर
पच्चीस-तीस साल का युवक
ठीक उसी तरह कराह रहा था
जैसे बकरे की गर्दन पर आहिस्ता-आहिस्ता चलती हो छुरी
बगल में पग्गड़ लगाये खड़े उस अधेड़ की आँखों में
कुछ लहू के कतरे थे
मेरी बात काट कर वह बीच में ही बोल पड़ा
मैं ले आया हूं डाक्टर साहब, जो कुछ भी मुझसे " जुड़ा"
दस हजार हैं मेरे पास
दो चार और मैं ला पाऊँगा
कुछ करो, नहीं सुनी जाती चीखें
पुण्य समझ लो, दान समझ लो
ऊपर वाले से भी उँचे, आप मेरे सम्मुख
उसने तो दुखियों के हिस्से लिखे सारे दुख..
मैं अपने में सोच रहा था
पीड़ा तो पीड़ा है, बिल्कुल वैसी ही होगी
मुझको पल में राहत, इसको इतनी वितृष्णा
मेरी आव-भगत, उसकी आँखों में मृगतृष्णा...
" मैंने समझाया है तुमको
बार बार क्योंकर समझाऊं "
चीख पड़ा फिर तभी डाक्टर
" जाते हो या धक्के लगवाऊं"
दो घंटे से भेजा खा कर
बार बार सम्मुख तुम आ कर
मेरा कीमत में तौला पल गंवा रहे हो
अस्पताल खैराती भी हैं
सिक्योरिटि बुलवाऊं, या जा रहे हो?
मुझे दर्द फिर हुआ
मगर यह दिल के पास कहीं पर था
उस अधेड़ ने पग्गड़ हाथों में ले कर
जाते-जाते मुझको ऐसी आँखों देखा
जैसी बंजर आसमान को बारिश की आशा में देखे
मैं जानता हूँ कि यह पगड़ी
उसकी हार और त्रस्त स्वाभिमान की हद थी
लेकिन मेरे और उसके बीच,
लोकतंत्र की एक बारीक सरहद थी
दर्द बपौती नहीं किसी की
लेकिन राहत बपौती है
अस्पताल की जेबें हैं
जब भरती राहत बोती हैं
जब बुनियाद हिली हो तो
बुनियादी सुविधा क्यों होगी
मरता नहीं देश मेरे क्यों?
क्योंकर जीता जरजर रोगी?
3 टिप्पणियाँ
कहीं भी जन्म ले सकने की संभावनायुक्त कविता.
जवाब देंहटाएंअच्छा कथ्य है | लेकिन कविता के पृष्ठभूमि से दूर जाती है |
जवाब देंहटाएंशिल्प और बढ़िया होना चाहिए था ?
अवनीश तिवारी
आज आपकी पहली रचना पढ़ी. व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश और पीड़ा दोनों साथ साथ महसूस हुए.सर देश भी वट वृक्ष की तरह है जो जर्जर तो हो जाएगा पर मरेगा नहीं. आप देश से प्यार करते हैं. आज देश को मानने वाले रह ही कितने गए है. अभिनन्दन.
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.