
लाखों और करोड़ों में भी
न्यारा - न्यारा क्यों न लगे
सबको अपना - अपने बच्चा
आँख का तारा क्यों न लगे
टूट गया है रिश्ता - नाता
एक पुराने साथी से
अमृत जैसा पानी अब तो
खारा - खारा क्यों न लगे
बाज़ी उल्टी पड़ जाती है
इक छोटी सी गलती से
सारा जीता खेल खिलाड़ी
हारा - हारा क्यों न लगे
पाल रहा है मन ही मन में
जाने कितनी आशाएँ
भूखे - प्यासे सा हर कोई
मारा - मारा क्यों न लगे
" प्राण " अँधेरी रात , घनेरे
बादल , तूफां और बिजली
मन का दरपन पल ही पल में
पारा - पारा क्यों न लगे
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6 टिप्पणियाँ
बेहद खूबसूरत ख्यालों से सजी उम्दा ग़ज़ल!
जवाब देंहटाएं" प्राण " अँधेरी रात , घनेरे
जवाब देंहटाएंबादल , तूफां और बिजली
मन का दरपन पल ही पल में
पारा - पारा क्यों न लगे
-वाह! शानदार!!
बाज़ी उल्टी पड़ जाती है
जवाब देंहटाएंइक छोटी सी गलती से
सारा जीता खेल खिलाड़ी
हारा - हारा क्यों न लगे
---- lazvab prstuti
sahityasurbhi.blogspot.com
Behad anuchuye ahsaas shabdon mein piroar pesh karna..Waah
जवाब देंहटाएंbahut hi navneetam dohra kafia khara-khara
bahut hi accha laga raha hai
आदरणीय प्राण शर्मा जी
जवाब देंहटाएंको पढ़ने का अवसर देने के लिए हार्दिक आभार !
ग़ज़ल बहुत अच्छी है…
हर शे'र काबिले-ता'रीफ़ है -
लाखों और करोड़ों में भी
न्यारा - न्यारा क्यों न लगे
सबको अपना - अपना बच्चा
आंख का तारा क्यों न लगे
आपके प्रति हार्दिक आभार इस ग़ज़ल के प्रस्तुतिकरण के लिए …
♥ बसंत ॠतु की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
♥
- राजेन्द्र स्वर्णकार
bahut sunder likha hai .uttam gazal .aapki gazlen jahan milti hain padhti hoon.
जवाब देंहटाएंsaader
rachana
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