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पारा-पारा क्यों न लगे [ग़ज़ल] - प्राण शर्मा


लाखों और करोड़ों में भी
न्यारा - न्यारा क्यों न लगे
सबको अपना - अपने बच्चा
आँख का तारा क्यों न लगे

टूट गया है रिश्ता - नाता
एक पुराने साथी से
अमृत जैसा पानी अब तो
खारा - खारा क्यों न लगे

बाज़ी उल्टी पड़ जाती है
इक छोटी सी गलती से
सारा जीता खेल खिलाड़ी
हारा - हारा क्यों न लगे

पाल रहा है मन ही मन में
जाने कितनी आशाएँ
भूखे - प्यासे सा हर कोई
मारा - मारा क्यों न लगे

" प्राण " अँधेरी रात , घनेरे
बादल , तूफां और बिजली
मन का दरपन पल ही पल में
पारा - पारा क्यों न लगे
-------------

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6 टिप्पणियाँ

  1. बेहद खूबसूरत ख्यालों से सजी उम्दा ग़ज़ल!

    जवाब देंहटाएं
  2. " प्राण " अँधेरी रात , घनेरे
    बादल , तूफां और बिजली
    मन का दरपन पल ही पल में
    पारा - पारा क्यों न लगे

    -वाह! शानदार!!

    जवाब देंहटाएं
  3. बाज़ी उल्टी पड़ जाती है
    इक छोटी सी गलती से
    सारा जीता खेल खिलाड़ी
    हारा - हारा क्यों न लगे
    ---- lazvab prstuti
    sahityasurbhi.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  4. Behad anuchuye ahsaas shabdon mein piroar pesh karna..Waah
    bahut hi navneetam dohra kafia khara-khara
    bahut hi accha laga raha hai

    जवाब देंहटाएं
  5. आदरणीय प्राण शर्मा जी
    को पढ़ने का अवसर देने के लिए हार्दिक आभार !

    ग़ज़ल बहुत अच्छी है…
    हर शे'र काबिले-ता'रीफ़ है -


    लाखों और करोड़ों में भी
    न्यारा - न्यारा क्यों न लगे
    सबको अपना - अपना बच्चा
    आंख का तारा क्यों न लगे


    आपके प्रति हार्दिक आभार इस ग़ज़ल के प्रस्तुतिकरण के लिए …
    बसंत ॠतु की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !

    - राजेन्द्र स्वर्णकार

    जवाब देंहटाएं
  6. bahut sunder likha hai .uttam gazal .aapki gazlen jahan milti hain padhti hoon.
    saader
    rachana

    जवाब देंहटाएं

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