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स्कूल का दादा [बालकथा] - डॉ. शशांक मिश्र ''भारती'


संतोष ने झटके से नीरज का गिरेबान पकड़ लिया और गरजकर बोला- ''क्यों रे! तूने मेरे कपड़े क्यों खराब कर दिये? ''

नीरज बेचारा क्या बोलता। उसने दबी आवाज में कहा- मैं भला क्यों तुम्हारे कपड़े खराब करता। मैं तो अपनी जगह पर खड़ा था। कपड़े तो साइकिल वाला खराब करके गया होगा।

तो वह साइकिल भी तुम्हारी होगी, तुम्हीं ने उससे कहा होगा। संतोष तुरन्त बोला।

नहीं संतोष, वह साइकिल तो मेरी नहीं; नीरज बोला।

इस पर भी संतोष बोला- ऐसा है, तो तुमने साइकिल वाले को धक्का दिया होगा; जिससे उसकी साइकिल का पहिया नाली में पड़ा और मेरे कपड़े खराब हो गए।

आज संतोष किसी न किसी बहाने नीरज से झगड़ा करना चाहता था। तर्क से नहीं; तो कुतर्क से ही उसे अपनी बात मनवानी है।

बड़ी मुश्किल से नीरज ने पीछा छुड़ाया। तो संतोष ने दूसरे लडकों को रोककर इसी तरह परेशान किया। वह कोई एक दिन की बात नहीं रोज ही संतोष ऐसा करता था। कभी पेन तोड देता, कभी वह उनकी किताबों पर स्याही डाल देता या उनको फाड देता। किसी ने थोड़ा भी कुछ कहा तो मारपीट शुरु कर देता। घर से लेकर कक्षा तक बच्चे परेशान थे; लेकिन डर से चुप रह जाते। कोई शिकायत भी न कर पाता था। हां, डर से दस-पांच लड़के उसके आस-पास अवश्य मंडराते रहते थे। यही उनकी टोली थी। यह टोली उसका सभी शरारतों में साथ देती थी।

संतोष पढने-लिखने में कुछ अच्छा न था। कभी-कभी खेल प्रतियोगिताओं में भाग लेता; लेकिन उनमें भी झगड़ा होते-होते बचता था।

पिछले वर्ष जुलाई में संतोष ने इस विद्यालय में प्रवेश लिया था। प्रवेश लेने के दिन से ही उसने अपना रौब डालना शुरु कर दिया था। रोज-रोज के लड़ाई- झगडों, शरारतों ने उसे स्कूल का दादा बना दिया था। सभी बच्चे उससे डरते थे। कई बार डर से उसकी हां में हां भी मिलानी पड ती थी। किसी में भी उसके खिलाफ बोलने की हिम्मत न थी। स्कूल के अध्यापक, कर्मचारी भी उसकी शिकायत न कर पा रहे थे। उन्हें अपनी नौकरी जाने का डर था। क्योंकि वह कस्बे के प्रधान का इकलौता बेटा जो था।

शायद इकलौता होने से और पारिवारिक वातावरण ने उसको ऐसा बना दिया था। घर पर नौकरों पर डाले जाने वाले रौब और नेतागिरी को उसने स्कूल के बच्चों पर डाल दिया था।

संतोष का गांव डेढ -दो सौ परिवारों का छोटा सा कस्बा था। यहां सभी जाति वर्गों के लोग रहते थे। छोटा सा बाजार, एक बैंक, एक पोस्ट ऑफिस, महिला अस्पताल, एक इण्टर कालेज , एक मंदिर और एक मस्जिद यहां थे। मुखय व्यवसाय कृषि था। कुछ लोग सरकारी नौकरी में थे। दो डॉक्टर व एक इंजीनियर साहब थे। लेकिन वह सभी बाहर थे। कस्बे में प्रधान जी का ही दबदबा था। उनकी बुराई करने में भी लोग डरते थे। चार-छः चापलूस उनको सदैव घेरे रहते थे। कई बार जब संतोष स्कूल नहीं आता; तो बच्चे बडी राहत की सांस लेते। वह दिन उनका बडे आनन्द से बीतता। अध्यापक भी सोचते कि चलो आज का दिन शांतिपूर्वक बीत गया।

एक बार जब संतोष कई दिनों तक स्कूल नहीं आया तो बच्चों को बड़ी खुशी हुई कि चलो अचछा हुआ, एक बला टली; लेकिन कुछ बच्चों को जानने की इच्छा हुई कि आखिर बात क्या है।जो कई दिनों से संतोष स्कूल नहीं आ रहा है। पता करने पर मालूम हुआ, कि उसके पिता ने गांव के विकास के लिए आए तीन लाख रुपयों का घोटाला कर दिया और वह अब जेल में हैं।

बच्चों को नहीं पता था कि घोटाला क्या होता है। उन्होंने हेडमास्टर से पूछा।

हेडमास्टर ने बताया- '' बच्चों, जब पैसे का सही तरह से उपयोग नहीं किया जाता है। दस रुपये की लागत सौ रुपये बतायी जाती है। बचा हुआ पैसा अपनी जेब में रखा जाता है। उसे घोटाला कहते हैं। इस तरह का काम करने वाले पकडे जाने पर जेल भेज दिये जाते हैं।''

अब बच्चों को समझ में आया कि संतोष किस प्रकार महंगे-महंगे कपडे पहनता था। सौ-सौ रुपये तक जेब खर्च के लिए कहां से लाता था।

कुछ ही दिनों के बाद संतोष ने स्कूल आना फिर शुरु कर दिया। इस बार संतोष बिल्कुल बदला हुआ था। उसके कपडे भी साधारण थे। जेब खर्च भी न था। आस-पास मंडराने वाले लडकों की फौज भी साथ न थी।

शायद यह सब इसलिए हुआ था; कि उसके पिताजी अब जेल मे थे। उसको अनाप-शनाप खर्च, शौकों के लिए धन नहीं मिल रहा था। उसे गलती और गलत कार्यों का अहसास हो गया था।

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