
माल मेरा कटता उनका ना धेला लगता है।
जितने पियक्कड़ फ़्रैंड्स हैं डेली आन धमकते हैं,
शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है।
बेटी तो अंगूर की घर के अंदर मिलती है,
अंडों और नमकीन का बाहर ठेला लगता है।
खोल के बोतल सीधे दारू ग़ट-ग़ट पीते हैं,
पैग, गिलास और पानी एक झमेला लगता है।
दबा के पीकर हो के टल्ली डोला करते हैं,
उनमें से हर एक बड़ा अलबेला लगता है।
मना करे जो पी के ऊधम उन्हें मचाने से,
झूमते उन सांडों को बहुत सड़ेला लगता है।
खोल के घर में मयख़ाना ख़ुद पीता है लस्सी,
भीड़ है फिर भी ’शमसी’ बहुत अकेला लगता है।
6 टिप्पणियाँ
भूल जा झूठी दुनियादारी के रंग....
जवाब देंहटाएंहोली की रंगीन मस्ती, दारू, भंग के संग...
ऐसी बरसे की वो 'बाबा' भी रह जाए दंग..
होली की शुभकामनाएं.
बेहतरीन ग़ज़ल।
जवाब देंहटाएंहैप्पी होली!
होली की हार्दिक शुभकामनाएँ......
जवाब देंहटाएंdhanyawaad deepak ji, manoj ji and geeta ji ! aap sab ko aur sabhi ko holi mubaarak ! preshak: moin shamsi
जवाब देंहटाएंहोली मुबारक। अच्छी रचना।
जवाब देंहटाएंखोल के घर में मयख़ाना ख़ुद पीता है लस्सी,
जवाब देंहटाएंभीड़ है फिर भी ’शमसी’ बहुत अकेला लगता है।
होली की शुभकामनायें।
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