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डा. भीमराव अम्बेडकर द्वारा लिखित एक पुस्तक ''शूद्रों की खोज'', एक विमर्श (भाग-1) - शिवेन्द्र कुमार मिश्र


आधुनिक भारत के इतिहास में जिन महापुरूषों ने अपने विचारो से समाज को प्रभावित किया है वे हैं :- महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू और डा0 भीमराव अम्बेडकर। स्वतंत्र भारत के दुर्भाग्य से गांधी और नेहरू के विचारों की तुलना में डा0 अम्बेडकर के विचारों को उतनी प्राथमिकता नही मिली अथवा यों कहें कि संविधान निर्माता, आरक्षण एवं दलित नेता का लेबल उन पर चस्पा कर दिया गया और उनके विचारों के जन सामान्य में प्रसार की उपेक्षा कर दी गई। यहां तक कि मुझे स्मरण है कि आई.ए.एस. मुख्य परीक्षा में आधुनिक भारत के विचारकों के संबंध में गांधी और नेहरू के साथ रविन्द्र नाथ टैगोर को रखा गया था न कि अम्बेडकर को। किंतु यदि कोई उक्त दो महापुरूषों के साथ डा0 अम्बेडकर के साहित्य को पढ़ेगा तो एक बात स्पष्ट तौर पर अनुभव करेगा कि जहां गांधी और नेहरू ने भारतीय इतिहास के सन्दर्भ में देशी साक्ष्यों की उपेक्षा की है अथवा सजातीय पैकिंग में विजातीय तत्वों को उसी रूप में स्वीकार कर लिया है। वहीं डा0 अम्बेडकर के साहित्य में सजातीय/देशी एवं विजातीय/पाश्चात्य या विदेशियों द्वारा प्रस्तुत साक्ष्यों के मध्य संतुलन स्थापित करते हुए निष्कर्ष निकालने का प्रयास किया गया है।

विगत दिनों डा0 भीमराव अम्बेडकर द्वारा लिखित एक पुस्तक ''शूद्रों की खोज'' अनुवाद ''मोजेज माइकल'' पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। एक वार पुस्तक को हाथ में लेने के पश्चात जब तक उसे समाप्त नहीं कर लिया, उसे छोड़ा ही नहीं। दरअसल यह विषय मेरी भी उत्कंठा का विषय रहा है कि आखिर कैसे समाज की सबसे बड़ी आबादी को जीवन-स्तर के इतने निचले स्तर पर धकेल दिया गया। आखिर वह कौन सी परिस्थितियां थीं जिनमें इतनी बड़ी आबादी ने अपने विजेताओं अथवा शासकों या शत्रुओं के समक्ष समर्पण कर दिया और निम्नतम् जीवन स्तर को स्वीकार कर लिया। क्या इसका संबंध आर्यों के आक्रान्ता होने और शूद्रो के स्थानीय मूल निवासी होने से था। 

जैसा कि पाश्चात्य इतिहासकारों ने कहा है और गांधी-नेहरू एवं साम्यवादी-समाजवादी-सेक्युलर इतिहासकारों ने पाठयपुस्तकों में भरकर आम समाज पर थोपा है। शूद्र जनमानस सहित आम जनभावना इसी तथ्य को स्वीकार करने को विवश है। चूंकि हमने बचपन से आज तक देखा है कि कैसे गांवो में आबादी के एक हिस्से को सार्वजनिक कुओं, मन्दिरों, स्कूलों आदि से वंचित रखा गया और इस सबको समझने के लिए डा0 अम्बेडकर से अधिक योग्य और सक्षम विचारक कौन हो सकता था। वस्तुत: मानें या न माने किंतु ''शूद्रो की खोज'' भारत के इतिहास की खोज है और सम्मानीय डा0 अम्बेडकर ने अपनी इस पुस्तक में यही कार्य किया है। मूल पुस्तक अंग्रेजी में है। ब्यूअर इसे पुस्त्क की समीक्षा न समझें क्योंकि इसके लिए मैं अल्पज्ञ हूं। अपितु भारत के ईशवरत्वं की खोज के डा0 साहब के अथक प्रयास के साथ मेरी सहयात्रा है जो बहुत ही कठिन है। यात्रा में देखे गए दृश्यों के निष्पक्ष भाव से प्रस्तुत करने के दु:साध्य कार्य में मै स्वंय पर आलोचना के कंकड़ फेंके जाते हुए स्पष्ट महसूस कर रहा हूं। क्योंकि मेरे जातीय सहोदर अपने पूर्वाग्रह के कारण और मेरे दलित बंधु मेरे ब्राहम्ण होने के कारण मेरी निष्पक्षता पर कंकड़-पत्थर फेंके यह स्वाभाविक ही है।

डा0 अम्बेडकर अपने प्राक्कथन में डा0 शेरिंग की पुस्तक ''हिन्दू ट्राइब्स एण्ड कास्टस'' के एक प्रस्तर का उल्लेख करते है। इस प्रस्तर में डा0 शेरिंग का मानना है :- ''इस बात का कोई व्यावहारिक महत्व नहीं कि शूद्र लोग आर्य थे अथवा भारत के मूल निवासी, अथवा इन दोनो के संसर्ग से उत्पन्न होने वाली जनजातियां और उनकी अपनी अलग ''वैयत्कितता'' यदि वह कभी रही भी थी, तो पूरे तौर पर लुप्त हो चुकी है।''

इस प्रस्तर पर डा0 अम्बेडकर की निष्पक्ष दृष्टि और तीखी टिप्पणी पुस्तक के मिजाज को समझने के लिए काफी है। डा0 साहब का मत देखें - ''यह मत दो त्रुटियों पर आधारित है। पहली, आज के शूद्र विषम जातीय संस्ततियों के मूल शूद्रों से भिन्न हैं। दूसरी, शूद्रों के मामले में रूचि का केन्द्रीय विषय शूद्र 'जन' नहीं है बल्कि पीड़ा और दण्ड की वह वैधानिक व्यवस्था है। जिसका शिकार वे बनते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि पीड़ा और दण्ड की यह व्यवस्था ब्राहम्णों ने मूल रूप में आर्य समुदाय के शूद्रो के लिए बनाई थी, जो अब एक पृथक भिन्न अलग पहचान रखने वाले समुदाय के रूप में अस्तित्वहीन हो चुके हैं। डा0 अम्बेडकर इस व्याख्या को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि मेरी व्याख्या यह है कि कालांतर में भारतीय आर्य समुदाय के शूद्र कठोर ब्राहम्णी नियमों के कारण इतने अवनत हो गए कि सार्वजनिक जीवन में सचमुच बहुत नीची स्थिति में आ गए। इस व्याख्या को आगे लिखने के बजाय फिलहाल यहीं छोड़ते है क्योंकि इस व्याख्या का विस्तार इस पुस्त्क के मूल विषय ''शूद्रो की खोज'' तक जाता है। किंतु मेरा ध्यान यहां एक अन्य बिन्दु की ओर जा रहा है जिसका यहां उल्लेख करना मुझे प्रासंस्कि लगता है। शेरिंग की पुस्तक ''हिन्दू ट्राइब्स एण्ड कास्टस'' के प्रारम्भिक प्रस्तर की अपनी व्याख्या में डा0 अम्बेडकर दो चीजें उठाते हैं ?

केन्द्रीय विषय के रूप में ''शूद्रजन'' (2) शूद्रों द्वारा मांगी गई और भोगी जा रही पीड़ा और दण्ड की व्यवस्था। मेरी दृष्टि में पाश्चात्य विचारकों सहित गांधी, नेहरू और समाजवादी- साम्यवादी-धर्म निरपेक्षतावादी इतिहासकारों एवं विचारकों के लिए शूद्रों के आर्य अथवा अनार्य होने का प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं है। अपितु महत्वपूर्ण है - उनकी पीड़ा, वेदना और दर्द। उल्लेखनीय है कि इस पुस्तक के लेखन वर्ष 1946 से पूर्व महात्मा गांधी ''हरिजन'' की खोज कर चुके थे। ''हरिजन'' दलित की भोगी गई पीड़ा और वेदना के प्रति सहानुभूति है जबकि ''शूद्र की खोज'' इस समाज के स्वाभिमान को उसकी जड़ों से खोज निकालने का सद्प्रयास। इस दृष्टि से मेरी नजर में अंबेडकर का प्रयास बहुत महान और नि:स्वार्थ है क्योंकि अन्तत: ''शूद्र की खोज'' हमें भारत की खोज तक पहुंचाती है। इसके विपरीत गांधी द्वारा दलित बस्तियों में जाकर मल साफ करना, उसे हरिजन कहना गांधी को ''महामानव, महापुरूष राष्ट्रपिता बना देता है जबकि दलित अथवा शूद्र को सिवाय सहानुभूति के कुछ भी प्रदान नहीं करता। ''हरिजन'' अलंकारिक है जबकि ''शूद्र की खोज वास्तविक। ठीक इसी तरह नेहरू की ''डिस्कवरी ऑफ इण्डिया'' निरन्तर भारत को भारत से दूर और बहुत दूर ले जा रही है। इन तीनों तथ्यों के निहितार्थ बहुत गहरे हैं बहुत ही गहरें।

पुस्तक का प्राक्कथन संक्षेप में पुस्तक का ही सार है। अत: उसे यहीं छोड़ रहे हैं।


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अध्याय-1
शूद्र संबंधी जटिल प्रष्न

डा0 अम्बेडकर इस प्रथम अध्याय में ऋग्वेद के दशम मण्डल के नब्बें स्तोत्र पुरूष सूक्त से प्रारम्भ करते हैं। वह इस सूक्त के सभी छ: मंत्रो का अनुवाद प्रस्तुत करते हैं। वस्तुत: लेखक अपने इस प्रश्न कि शूद्र थे कौन ? और चौथा वर्ण कैसे बने ? के उत्तर की तलाश में आर्य समुदाय के आदि ग्रंथ ''ऋग्वेद'' में इसका सिरा तलाश करते हैं। निस्सन्देह वर्ण व्यवस्था का उल्लेख सर्वप्रथम यहीं प्राप्त होता है। लेखक यह मानता है कि ''पुरूष सूक्त'' ''विश्व की उत्पत्ति' का सिध्दान्त है अर्थात सृष्टि मीमांस है और सृष्टि मीमांसाएं प्राय: शैक्षणिक रूचि का विषय ही रहती है। किंतु इस सूक्त के मंत्र 11 एवं 12 की बात अलग है। मैं यहां इन मंत्रो का वैदिक रूप दे रहा हूँ।

पुरूष सूक्त
ऋषि नारायण, देवता पुरूष, छंद 1से 15 अनुष्टुप, 16 त्रिष्टुप
हमारी रूचि के मंत्र 11 एवं 12 अनुष्टुप छंद में हैं। मंत्र इस प्रकार हैं :-

11- यत्पुरूषं व्यदधु: कतिधा व्यकल्पयन
मुंख किमस्य कौ बाहू का अरू पादा उच्येते

12- ब्राहम्णों अस्य मुखमासीद् बाहूराजन्य: कृत:
उरू तदस्य यद्वैश्य: पदभ्यां शूद्रो अजायत्।

डा0 अम्बेडकर की आपत्ति यह है कि पुरूष सूक्त वर्ण व्यवस्था को ईश्वरीय और अपरिवर्तनीय बना देता है। चार्तुवर्ण्य के गठन में ईश्वरीय आदेश की निहितता अनुवर्ती काल में इस पर प्रश्न चिहन नहीं लगने देती। महात्मा बुध्द के अलावा कोई इस पर उंगली नहीं उठा पाया और बुध्द भी इसे हिला नहीं पाए।

अपने कथन के समर्थन में डा0 साहब ''आपस्तम्ब धर्मसूत्र'' और ''वशिष्ठ धर्मसूत्र'' से कतिपय उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।

डा0 साहब इस सूक्त से छ जटिलताएं खोजते हैं। जिन्हें वह 'अनूठापन' कहते हैं 1- पुरूष सूक्त यथार्थ को आदर्श की गरिमापूर्ण ऊंचाई तक ले जाता है। 2- इस व्यवस्था को कानून की स्वीकृति के माध्यम से आदर्श को यथार्थ बनाने का प्रयास करता है। 3- वर्ग व्यवस्था को न केवल स्वाभाविक और आदर्श मानता है अपितु इसे पवित्र और दैवीय बना देता है। 4- पुरूष सूक्त समाज के चार वर्गों में विभाजन को हठधर्मिता का मामला बना देता है। न तीन और न पांच 5- यह सूक्त इसलिए अनूठा है क्योंकि यह विभिन्न वर्गों अथवा वर्णों को ऊंच-नीच के आधार पर एक स्थाई श्रेणी में जड़ीभूत कर देता है जिसे न परिस्थितियां बदल सकती हैं और न ही समय।

लेखक ऋग्वेद के ही अन्य सूक्तों से इसकी तुलना कर इसे ऋग्वेदिक सूक्तों का विरोधी बताते हैं और इसी क्रम में डा0 साहब ऋग्वेद में भारतीय आर्य राष्ट्र के सूत्र खोज निकालते हैं। देखें ऋग्वेद मण्डल 6 सूक्त 11-4 और ऋग्चेद मण्डल 7 सूक्त 15-2

1- बुध्दिमान एवं तेजस्वी अग्नि भली प्रकार प्रकाशित होते हैं। हे अग्नि। तुम विस्तृत धरती आकाश की हठय से पूजा करो। लोग जिस प्रकार अतिथि की पूजा करते हैं, उसी प्रकार यजमान इष्ट द्वारा अग्नि को प्रसन्न करते हैं।

2- कवि, गृहपालक एवं युवा अग्नि पंचजनों के सामने प्रत्येक घर में स्थित होते हैं।

इन पांच जनों के विश्लेषण में अन्य सूक्त भी प्रस्तुत करते हुए उनका मनना है - इन पांच जनजातियों का उल्लेख इस प्रकार क्यों किया इस प्रश्न का उत्तर केवल एकता की भावना में और सामूहिक चेतना में ही मिल सकता है। इस अध्याय के आगे के पृष्ठों में भी पुरूष सूक्त के लेखक की कुटिल चाल को अन्य अनेकों समवर्गीय उदाहरणों के माध्यम से परखा गया है। वैसे यहां यह बता दूं कि डा0 अम्बेडकर भी प्रो0 कॉलबुक, प्रो0 मैक्समूलर, प्रो0 बेबर की भांति इस सूक्त को 'क्षेपक' मात्र मानते हैं।

शेष अगले अंक में..

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10 टिप्पणियाँ

  1. डा० अम्बेडकर को उनके वास्तविक परिप्तेक्ष्य में पढ़ने और समझ कर विचार प्रकट करने से बहुत सारे राजनीतिक दलों की पोल खुलती है। इसलिये उनके बारे में बहुधा जानबूझकर भ्रामक विचार फैलाने का कार्य स्वार्थी राजनीतिक तत्व करते रहे हैं

    ऐसे में डा० अम्बेडकर की पुस्तक से उठाकर विमर्श प्रस्तुति के लिये राजीव जी को साधुवाद ...

    विचारोत्तेजक लेख के लिये बधाई शिवेन्द्र जी

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  2. शिवेंद्र जी के सुंदर आलेख के साथ राजीव जी का विचार-विमर्श सार्थक लेखन दर्शाता है.....


    आभार...
    अगले अंक की प्रतीक्षा है राजीव जी..

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  3. बहुत बढ़िया लगा परंतु आज के अंधे समाज की आँख नाइ खुलेगी वो इसको बिल्कुल भी मां ने को तैयार नहीं है।उसको प्रक्षिप्त का अर्थ है नहीं पता उसके दिमाग में सिर्फ विरोध है समाधान जानना नहीं चाहता है।

    जवाब देंहटाएं
  4. अम्बेडकर जी आज भी जीवित हैं क्या ?
    वो जब इस संसार में थे ये लेख तब का है तब से आज तक ये दुनिया कहाँ तक पहुँच गई है और आप सब लोग अभी भी उसी दुनिया में क्यों जी रहें जागो अब तो सुबह हो गई क्यों सोये हुये हो ।

    जवाब देंहटाएं
  5. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (14-04-2017) को "डा. भीमराव अम्बेडकर जयन्ती" (चर्चा अंक-2940) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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