01 नवंबर 2000 को छत्तीसगढ़ राज्य पृथक अस्तित्व में आया और देश का 26 वां राज्य बना। 135194 वर्ग कि. मी. में फैला और लगभग दो करोड़ आबादी को 18 जिलों में समेटे छत्तीसगढ़ प्राकृतिक वैभव से परिपूर्ण, वैविध्यपूर्ण सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना तथा अपने गौरवपूर्ण अतीत को गर्भ में समाए हुआ है। प्राचीन काल में यह दंडकारण्य, महाकान्तार, महाकोसल और दक्षिण कोसल कहलाता था। दक्षिण जाने का मार्ग यहीं से गुजरता था इसलिए इसे दक्षिणापथ भी कहा गया और ऐसा विश्वास किया जाता है कि अयोध्यापति दशरथ नंदन श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ इसी पथ से गुजरकर आर्य संस्कृति का बीज बोते हुए लंका गए। इस मार्ग में वे जहां जहां रूके वे सब आज तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध स्थल हैं। उस काल के अवशेष यहां आज भी दृष्टिगोचर होता है। सरगुजा का रामगढ़, श्रीराम की शबरी से भेंट, उनके बेर खाने का प्रसंग का साक्षी शबरी-नारायण, खरदूषण की स्थल खरौद, कबंध राक्षस की शरणस्थल कोरबा, बाल्मीकी आश्रम जहां लव और कुश का जन्म हुआ, तुरतुरिया, श्रृंगि ऋषि का आश्रम सिहावा, मारीच खोल जहां मारीच के साथ मिलकर रावण ने सीताहरण का षडयंत्र रचा, आज ऋषभतीर्थ के नाम से जाना जाता है। सुदूर चक्रकोट (बस्तर) और चित्रकोट का वनांचल श्रीराम और लक्ष्मण के दक्षिणपथ गमन के साक्षी हैं।
श्रीरामचंद्र को भगवान विष्णु का पूर्ण अवतार माना गया है। अवतार के प्रयोजन और उसके महत्व विशद विवेचन विभिन्न पुराणों में मिलता है लेकिन भगवद्गीता में इसका स्पष्ट उल्लेख हुआ है। उसमें बताया गया है कि भगवान विष्णु के अवतारों में सृष्टि के विकास का रहस्य छिपा माना गया है। भगवान विष्णु के अवतारों की तीन श्रेणियां क्रमशः पूर्ण अवतार, आवेशावतार और अंशावतार है। श्रीराम और श्रीकृष्ण को पूर्णावतार और भगवान परशुराम को आवेशावतार माना गया है। विभिन्न ग्रंथों में उनके 24 और 10 अवतारों का उल्लेख है जिसमें मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, और कल्कि प्रमुख हैं। भगवान विष्णु के अवतारों का सामूहिक या स्वतंत्र निरूपण कुषाणकाल के पूर्व नहीं मिलता। इस काल में वराह, कृष्ण और बलराम की मूर्तियां बननी प्रारंभ हुई। गुप्तकाल में वैष्णव धर्मावलंबी शासकों के संरक्षण में अवतारवाद की धारणा का विकास हुआ। गुप्तकाल के बाद 7 से 13 वीं शताब्दी के मध्य लगभग सभी क्षेत्रों में दशावतार फलकों तथा अवतार स्वरूपों की स्वतंत्र मूर्तियां बनीं। इसमें वराह, नृसिंह और वामन स्वरूपों की सर्वाधिक मूर्तियां बनीं। ये मूर्तियां महाबलीपुरम्, एलोरा, बेलूर, सोमनाथपुर, ओसियां, भुवनेश्वर, खजुराहो तथा अन्य अनेक स्थलों से प्राप्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त राम, बलराम और कृष्ण की मूर्तियां पर्याप्त मात्रा में मिली हैं। भगवान विष्णु के एक अवतार के रूप में दशरथी राम की लोकमानस से जुड़े होने के कारण ब्राह्मण देवों में विशेष प्रतिष्ठा रही है। यह सत्य है कि भारतीय शिल्प में दशरथनंदन राम की मूर्तियां अन्य देवों की तुलना में गुप्तकाल में लोकप्रिय हुई किंतु विष्णु के एक अवतार के रूप में इनकी कल्पना निःसंदेह प्राचीन है और ब्राह्मण देवों में इनकी विशेष प्रतिष्ठा रही है। यह सत्य है कि भारतीय शिल्प में दशरथनंदन राम की मूर्तियां अन्य देवों की तुलना में बाद में लोकप्रिय हुई। प्रतिमालक्षण ग्रंथों में आभूषणों और कीरिट मुकुट से सुशोभित द्विभुज श्रीराम के मनोहारी और युवराज के रूप में निरूपण मिलता है। द्विभुज राम के हाथों में धनुष और बाण प्रदर्शित होते हैं, जैसा कि शिवरीनारायण के श्रीराम जानकी मंदिर और खरौद के शबरी मंदिर में मिलता है। कहीं कहीं श्रीरामलक्ष्मणजानकी के साथ भरत और शत्रुघन की मूर्तियां श्रीराम पंचायत के रूप में मिलती है। श्रीराम पंचायत की मूर्तियां रायपुर के दूधाधारी मठ में स्थित हैं।
श्रीराम की प्रारंभिक मूर्तियां देवगढ़ के दशावतार मंदिर में उत्कीर्ण हैं। इसमें श्रीराम धनुष और बाण से युक्त हैं। देवगढ़ में श्रीराम कथा के कई दृश्यों का शिल्पांकन हुआ है। एलोरा के कैलास मंदिर और खजुराहो के मंदिरों से श्रीराम की मूर्तियां मिली हैं। खजुराहो के पार्श्वनाथ मंदिर की भित्ति में सीताराम की एक नयनाभिराम मूर्ति उत्कीर्ण है और पास में हनुमान की मूर्ति भी है जिनके मस्तक पर श्रीराम का एक हाथ पालित मुद्रा में अनुग्रह के भाव में है। यह मूर्ति भक्त और आराध्य के अंतर्संबंधों का सुखद शिल्पांकन है। श्रीराम की स्वतंत्र मूर्तियां तुलनात्मक दृष्टि से दक्षिण भारत में अधिक लोकप्रिय रही हैं। उत्तर भारत में राम की मूर्ति मुख्यतः विष्णु के अवतार के रूप में उत्कीर्ण है। कर्नाटक में राम का एक प्राचीनतम मंदिर 867 ई. का हीरे मैगलूर में है। श्रीराम के दोनों ओर लक्ष्मण और सीता स्थित हैं। चोलकालीन कांस्य मूर्तियों में भी श्रीराम का मनोहारी अंकन उपलब्ध है। स्वतंत्र मूर्तियों के अतिरिक्त रामकथा के विविध प्रसंगों के उदाहरण खजुराहो, भुवनेश्वर, एलोरा, बरम्बा, सोमनाथपुर, खरौद, जांजगीर और सेतगंगा जैसे पुरास्थल में दृष्टिगोचर होता है। इन उदाहरणों में भारतीय जीवन मूल्यों को उद्घाटित करने वाले प्रसंगों जैसे-सीता हरण, जटायु वध, बालि-सुग्रीव युद्ध की सर्वाधिक मूर्तियां हैं। कदाचित् इसीकारण छत्तीसगढ़ गौरव में पंडित शुकलाल पांडेय ने भी गाया है:-
रत्नपुर में बसे रामजी सारंगपाणी
हैहयवंशी नराधियों की थी राजधानी
प्रियतमपुर है शंकर प्रियतम का अति प्रियतम
है खरौद में बसे लक्ष्मणेश्वर सुर सत्तम
शिवरीनारायण में प्रकटे शौरिराम युत हैं लसे
जो इन सबका दर्शन करे वह सब दुख में नहीं फंसे।
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लेखन एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी‘‘राघव‘‘ डागा कालोनी,
चाम्पा-495671 (छत्तीसगढ़)
4 टिप्पणियाँ
रोचक प्रस्तुति. मैंने http://akaltara.blogspot.com पर नई पोस्ट 'बस्तर में रामकथा' लगाया है.
जवाब देंहटाएंरामनवमी की शुभकामनाए
जवाब देंहटाएंBahut hii sundar aalekh kii rochak prastuti. Dhanyawaad Kesharwaanii jii, dhanyawaad Saahitya shilpii.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा आलेख। नवरात्रि और रामनवमी की शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.