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अन्ना हजारें आंदोलन के निहितार्थ .. [विश्लेषण] - शिवेन्द्र कुमार मिश्र

हमारी पीढ़ी के लिए उनका होना शायद एक स्वपन जैसा है। वह लोग जिन्होने गाँधी या जयप्रकाश नारायण को नहीं देखा,उन्हे पुस्तकों में पढ़कर यह विश्वास करने में जरा अचम्भा होगा कि कैसे एक व्यक्ति के नैतिक बल के समक्ष सत्ताशीर्षो को झुकना पड़ता है और पूर्वाग्रह मुक्त चितंन वाली व्यवस्था का वादा जनता से करना पड़ता है,पर अन्ना हजारे के 5 से 9 अप्रैल 2011 तक प्रात: लगभग 10 बजे तक चलने वाले सत्याग्रही आंदोलन के परिणाम आश्चर्यजनक हैं। जो काम स्वतन्त्रता के पश्चात से आज तक नहीं हो सका वह मात्र 16 घण्टे और कुछ मिनटों में हो गया। हमें गर्व होना चाहिए कि हम इतिहास की एक घटना के साक्षी है। हमने आगत के उस सन्धिकाल का साक्षात्कार किया है जो भविष्य में ऐतिहासिक दस्तावेजों में दर्ज होने वाला है।

किन्तु ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है।

5 अप्रैल 2011 को जब वह अपने चंद साथियों सहित जन्तर-मन्तर पर नई दिल्ली में धरने पर बैठे तो शायद उन्हें उनके साथियों को यह गुमान नहीं था कि उन्हे इतना व्यापक जनसमर्थन प्राप्त होगा। उनके अनन्य सहयोगी श्री अरविन्द केजरीवाल ने टी0वी0 साक्षात्कारों में ऐसा स्वीकार भी किया है। किन्तु देखते ही देखते उनके समर्थन में जनता के सहयोग की लहर सी दौड़ गयी खास बात यह थी कि यह समर्थन स्वत: स्फूर्त था और चिराग से चिराग जलाने जैसी कुब्बत के साथ एक शहर से दूसरे शहर तक फैलता जा रहा था। जहॉ जन्तर मन्तर पर ही 200 से ज्यादा लोग उनके साथ आमरण अनशन पर बैठ चुके थे वहीं देश के कोने कोने से लोगों के अन्ना के समर्थन में बैठनें के समाचार रोज समाचार पत्रों और न्यूज चैनल की सुर्खियों में थे।

आखिर कौन थे? यह लोग.... और अन्ना के समर्थन में स्वत: स्फूर्त ढंग से क्यों खड़े हो गए?
अब जरा अपने शहर के चौराहे अथवा धरना स्थल पर बैठे लोगों के चेहरों को एक बार पुन: अपने दृष्टि पटल के समक्ष दोहराने की कोशिश करें। कोशिश उन चेहरों को भी देखने की करें जो जन्तर-मन्तर पर श्री हजारें के साथ बैठे थे।क्या उन चेहरों में आपको निराला की ’वह तोड़ती पत्थर’ वाली श्रमिक महिला दिखाई पडी? क्या उस ''आमरण अनशन'' वाले समूह में कोई कामगार, रिक्शा चालक, खेतिहार मजदूर,खोम्चे वाला, किसान या मनरेगा मजदूर नजर आया? क्या आपको कोई ऐसी आदिवासी, दलित महिला नजर आई जो किसी सत्ताधीश के ’निरंकुश कामुक उन्माद’ का निरीह शिकार हो गई हो और अपनी व्यथा कह भी न पाई हो। नहीं न। ऎसा कोई भी चेहरा इन ’धरनाधीशों’ के बीच नहीं था। तो आखिर यह समर्थक किस वर्ग से आए थे?

इस समस्या के समाधान की टाईमिंग पर नजर डालें तो स्थिति कुछ-कुछ स्पष्ट हो जायेगी। आपको याद होगा कि 5 अप्रैल को धरने पर बैठे श्री हजारें की माँगों पर 7 अप्रैल तक सरकार सकारात्मक हो गई थी और जो थोड़ा गतिरोध बचा भी था वह 8 अप्रैल तक पूर्णत: समाप्त हो गया और सरकार ने श्री हजारे की लगभग सभी मॉगें मान ली। 9 तक का समय तो नोटीफिकेशन अथवा गजट न हो पाने के कारण बढ़ा। आखिर कौन सा दवाब था। यदि समाचार पत्रों की सुर्खियों पर ध्यान दें तो पायेगें कि अप्रेल माह का द्वितीय शनिवार था और 10 को रविवार। इन दिनों दिल्ली सरकार और भारत सरकार सहित लगभग सभी राज्य सरकारों निगमों आदि के कार्यालयों में अवकाश और प्राइवेट कम्पनियों के कार्यालय भी बन्द रहते हैं। सरकार को आशंका थी कि अवकाश के इन दिनों में भारी संख्या में अध्यापक बुध्दिजीवी वकील, कर्मचारी इन धरनों में शमिल हो सकते हैं और स्थिति नियंत्रण से बाहर हो सकती है। यही वह दबाब था जिसने सरकार को समझौता करने के लिये बाध्य कर दिया। अब तो आप समझ गए होगें कि धरना देने वालों में उस मध्यम स्तरीय मध्यम वर्ग के लोग थे जो विभिन्न सेवा क्षेत्रों में कार्यरत हैं। इनमें उपरोक्त प्रकारों के अलावा मझले व्यापारी ठेकेदार स्वतंत्र व्यवसायी भी शामिल है। इनका सपना है 'कर लो दुनिया मुट्ठी में' किन्तु इसके लिए ये प्राय: सीमाऐं नहीं लाघते। यद्यपि ये पूरी तरह से नैतिक और ईमानदार लोग नहीं हैं किन्तु भ्रष्टाचार के समर्थन में तो एकदम नहीं है। यह माना कि थोड़ी बहुत बेमानी के बाबजूद भी इनमें से ज्यादातर लोग अपने लिए थोड़ी सी सुविधाऐं और थोड़ी सी भविष्य की सुरक्षा ही (पूंजी/प्रापर्टी के रूप में) जुटा पाते है। किन्तु 1990 के बाद से उदारवाद की जो बयार बही है, उसने इस वर्ग के लिए जहां कुछ अवसर (ज्यादा नौकरियों और मोटे वेतन के रूप में) उपलब्ध कराऐं। ऐशों आराम के ज्यादा और उन्मुक्त साधन उपलब्ध कराऐं किन्तु वहीं ईष्या का प्रवाह भी खोल दिया। इन्होने देखा कि इनकी हाड़-तोड़ मेहनत के बाद भी जहां इन्हे मिल रहा है मानहीन एवं चरित्रहीन होने का लेबल और हमेशा नौकरी या व्यवसाय पर खतरे के रूप में असुरक्षा। वहींपर इनके ही कंधो पर चढे हुए लोग हजारों लाखो करोड़ कमा रहे हैं। और सम्मानीय होने के साथ साथ सताधीश भी हैं। ऊपर से मंहगाई और मंदी ने इन्हें इस हद तक हताश कर दिया कि शायद अन्ना के बजाय नेता जी सुभाष चन्द्र बोस का विकल्प मौजूद होता तो इनमें से तमाम लोग वहां भी दिखाई देते।

यह मध्यम वर्ग सदैव ही सत्ताभोगी और सत्ता के निकट रहना पसन्द करता है और अपने बडे दायरे और सता के अपने होने के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए इन पर निर्भर रहने की मजबूरी के चलते यह सदैव सता के चुबंक से चिपका रहता है। अगर कभी व्यवस्क्था की हिलडुल के चलते इन्हे झटका लगा भी तो ये जल्दी ही लाईन के साथ चिपक जाते हैं। इस आंदोलन का एक सबक यह तथ्य भी है। शांतिभूषण एवं प्रशांत भूषण का अन्ना हजारे की ओर से ड्राफ्टिंग कमेटी में चुना जाना इसी मध्यम वर्ग का प्रतिनिधित्व है जिसकी बाबा रामदेव ने परिवार वाद कह कर आलोचना की है।

जन लोकपाल बिल की राह में यद्यपि अभी हजारों रोड़े हैं किन्तु किसी भी सरकारी संस्थान में सरकारी लोगों के अलावा इस प्रकार के त्यागी तपस्वी जनता द्वारा स्वत: स्फूर्त ढंग से समर्थन दिए गए प्रतिनिधियों का रहना एक अच्छी शुरूआत है। लेकिन ऊपर ही ऊपर रहने से काम चलने वाला नहीं इसे नीचे के स्तर तक लाना होगा। कुछ सुझाव है:-

1- मोबाइल अदालतो का राहत गठन हो। ये अदालतें गम्भीर अपराधो में घटनास्थल पर पहुंचें। पुलिस मौके पर एफ0आई0आर0 दर्ज करें। मौके पर ही जूरी गठित हो और मौके पर ही न्यायाधीश एवं जूरी का निर्णय जो अलग-2 भी हो सकता है को शामिल किया जाए। जिला सत्र न्यायालय में इन सबके आधार पर पुन: जूरी की मदद से फैसला हो। इसके बाद अभियुक्त को दोषसिध्द अपराधी(दोषसिध्द होने पर) मान लिया जाऐ। उसे उच्च न्यायालयों में अपील का अधिकार मिले किन्तु चुनाव लड़ने,सम्पति खरीदने, विवाह अथवा बच्चे पैदा करने जैसे तमाम अधिकारों से वंचित कर दिया जाये।

2- एफ0आई0आर0 की जॉच का अधिकारी भी ऐसी जूरी को दिया जाए।

3- नगरीय विकास एवं ग्रामीण नियोजन में ऐसी ही जूरी एवं सलाहकारों को महत्व दिया जाए।

4- पाठयक्रमों में भी लोकमान्यताओं, देश में परम्परागत रूप से सम्मान्य साहित्य, आदि को सलाहकार मण्डलों की राय के अनुरूप शामिल किया जाए।

5- रक्षा मामलों में भी पूर्व सेनाध्यक्षों, जासूस एवं अन्य ऐजेसियों के पूर्व अध्यक्षों आदि के सलाहकार मण्डलों की राय को प्राथमिकता दी जाए।

ऐसे ही नागरिक जीवन के तमाम क्षेत्रों में इस पध्दति को लागू किये जाने की जरूरत है। ऐसी किसी भी समिति में किसी जनप्रतिनिधि अथवा अधिकारी को जनता की ओर से शामिल न किया जाए।

माननीय अन्नाहजारें के आंदोलन के निहितार्थ कुछ ऐसे ही हैं और सरकार के सलाहकार भी इस बात को जानते है।

शिवेन्द्र कुमार मिश्र
बरेली (उ प्र)

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