“अंश ...."मोबाइल के स्क्रीन पर नाम देखते ही आंखों में आश्चर्य के साथ उसने पूछा।
“अरे ऎसा कुछ नहीं.. यह तो बस घर का नाम ... मैंने पहले ही कहा था| नाम बस अंग्रेजी के ए अक्षर से ही आरम्भ होगा। एग्जामिनेशन रोल वगैरा में ऊपर आता है। बाकी आप सब लोग जो भी नाम रखना चाहें। कृति ने मन की भावनायें छुपाने का असफल प्रयास किया।

बात सिर्फ इतनी ही नहीं थी। ... उसके मष्तिष्क में विचारों की आंधी उठ रही थी।
उसका मस्तिष्क बस यही सोच रहा था कि सारे नाम...... सारी चर्चा ऎसी क्यों जिससे आभास हो कि बेटा ही आयेगा... कपड़े .. बातें भावी योजनायें सब से ऎसा प्रतीत होता कि आने वाले बेटे की बातें हो रही हैं... दादी, नानी, ताई और सम्भावी मां सब.. परिवार में छोटे बच्चे से बात करते तो उसके आने वाले भाई की बातें ही करते ....
वह यह सब देखता सुनता और स्वयं को आहत अनुभव करता। ..... बेटा और बेटी के बीच भेद भावना उसे प्रमुख रूप से महिलाओं में अधिक प्रतीत होती। उसका अपना जीवन तो महिलाओं के संरक्षण को सपर्पित था। पारिवारिक और सामाजिक विरोध की प्रतिकूल आंधी में भी वह अपनी सामाजिक संस्था के कार्य से जुड़ा रहा। उसने सोचा यदि वह स्वयं भी इसी भेदभाव की भावना से विचार करता तो उसके कन्या समतामूलक आन्दोलन का क्या होता। अपने संगठन के माध्यम से आर्थिक रूप से वंचित तथा इसी भेदभाव का शिकार कई बेटियों को उच्च शिक्षा ग्रहण करने में सहयोग कर समाजिक एवं आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त करने का रास्ता उसने कैसे दिखाया होता। किन्तु आज वह आहत था।
अपने ही घर में सबकी दृष्टि से ओझल इस अनजाने से होने वाले व्यवहार को वह अपने चिन्तन में भी नहीं सहन कर पा रहा है। उसने अनुभव किया कि सामाजिक कार्य के लिये अपने वैचारिक आन्दोलन को एकबार फिर उसे घर से ही आरम्भ करना होगा अन्यथा आन्दोलन से सम्बद्ध अनेकों बेटियों के माध्यम से समाज में वैचारिक परिवर्तन के उद्देश्य को प्राप्त करने का उसका आजीवन प्रयास व्यर्थ हो जायेगा।
“ पापा आप भी आ जायें कृति दी को आपरेशन थियेटर में ले गये हैं...” सेल पर छोटी बेटी की आवाज उसका चिन्तन भंग करती है।
“ हां बेटा मैं अभी आता हूं ....” फोन रखते ही वह घर से निकल पड़ा।
उसने सोचा.. नवजात तो कोई भी हो सकता है ...... कन्या भी। इन महिलाओं का पता नहीं उसको ध्यान में रखकर कोई कपड़े रखे हों अथवा नहीं। यदि बेटी हुयी तो ... बाद में यह सब जानकर क्या उसे हीन भावना नहीं होगी कि मैं तो अनाहूता हूं। मेरे लिये किसने तैयारी की थी। बस आ गयी तो ठीक है अन्यथा कोई विशेष बात नहीं।

“नहीं नहीं ...ऎसा नहीं है। मैं हूं ना तुम्हारी मां का पापा ... तुम्हारा पापा ... तुम्हारी छॊटी मासी की हास्टल फ़्रेंडस, सभी लड़्कियों का सुपर डैड” उसने अपने आप से कहा।
“तुम्हारे लिये वैसी ही फ्राक ला रहा हूं जो कभी, तुम्हारी मां के लिये पहली बार ली थी। तुम अपनी मां और अपने पापा की नहीं अपितु अपने “सुपर डैड” की बेटी होगी मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं तुम्हारी..... अपनी बेटी की फिर से अपनी बाहों में लेने के लिये। हम दोनों मिलकर बदलेंगे इस सामाजिक सोच को। मैं पुरूषों में और तुम महिलाओं में ... ” अपने आपमें बुदबुदाते हुये उसकी दृष्टि नर्सिंग होम के रास्ते में शोरूम में टंगी हुयी फ्राक पर अटक गयी और उसके कदम तेजी से काउण्टर की ओर बढ़ चले।
7 टिप्पणियाँ
“तुम्हारे लिये वैसी ही फ्राक ला रहा हूं जो कभी, तुम्हारी मां के लिये पहली बार ली थी। तुम अपनी मां और अपने पापा की नहीं अपितु अपने “सुपर डैड” की बेटी होगी मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं तुम्हारी..... अपनी बेटी की फिर से अपनी बाहों में लेने के लिये।
जवाब देंहटाएंभावुक हो गयी।
nice
जवाब देंहटाएं-Alok Kataria
अच्छी कहानी....बधाई
जवाब देंहटाएंपैदा होने से पहले ही ...अंतर्मन में हो रहे आंदोलन बहुत मार्मिक दंग से परस्तुत किया है...एक ऐसी सोच के साथ जिसकी आज आवश्यकता है....आभार...और ढेर सारी बधाई..आप सभी को श्रीकांत जी....बिटिया को प्यार ....उसका पथ दीपमय हो...
जवाब देंहटाएंगीता जी सम्भवत: अपने परम्परागत भारतीय समाज में हम सब कहीं न कहीं इस अंतस आंदोलन से गुजरते रहे हैं।
जवाब देंहटाएंअनन्या जी मात्र भावुक होने से काम नहीं चलना है। बेटा बेटी के बीच प्रतीक्षा की यह सोच मां से ही आरम्भ हो इसके लिये हम सबको मिलकर आगे आना ही होगा।
hamesha ki tarah ati sundar.
जवाब देंहटाएंकहानी पसंद आई
जवाब देंहटाएं-अजय ओझा
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