सुंदर सा इक मेरा गाँव
पर्वत के आँचल में
चारों ओर से घिरा हुआ था
हरे भरे वृक्षों से
मेरे मुन्ने को भाते थे
वृक्ष और उनपे कूदते बंदर
छोड़ कर उस गाँव को
प्रकृति की ठंडी छाँव को
हम विदेश आ गए
बडी बडी इमारतों के
समुंदर में समा गए
कभी कभी बन मुन्ना बंदर
मुझे बनाता था वो पेड़
झूल कर मेरी बाजू पर
करता था उस वन को याद
लौट के जब हम आए गाँव
गायव था वो पूरा वन
उद्योगीकरण का दानव
पूरा उसे चूका था निगल
और बहा खड़ा था
एक बढा सा कलघर
उगले जो जहरीला धुयाँ
और बंदर मचा रहे थे हुर्दंग
उनका जो उजड़ा था चमन
मुन्ना होकर बोला उदास
कहाँ गया माँ मेरा वन?
सब बंदरों को क्यूँ भगाते हैं?
वो क्यों न मुझे हंसाते हैं?
दादाजी ने तब समझाया
वनों का उसे महत्व बतलाया
बोला बढे ही जोश में
माँ, मैं वन लगाऊंगा
और बंदरों को बसाउंगा
चला फिर दादाजी के संग
लगाने को अपना इक वन
3 टिप्पणियाँ
अच्छी कविता...बधाई
जवाब देंहटाएंदादाजी ने तब समझाया
जवाब देंहटाएंवनों का उसे महत्व बतलाया
बोला बढे ही जोश में
माँ, मैं वन लगाऊंगा
और बंदरों को बसाउंगा
चला फिर दादाजी के संग
लगाने को अपना इक वन
abut khoob baat .sabhi ko samajhni chahiye .apni dhrti hai hame hi sajana hai
badhai
rachana
अभिषेक जी व् रचना जी आपको कविता पसंद आयी इसके लिए हार्दिक धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंसादर
अमिता
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.