इंसाफ़ की लड़ाई लड़ती अबला नारी,
पुरूष की भेंट चढ़ी दुखियारी।
पाई उसने ये कैसी किस्मत,
बनी दुश्मन उसकी अपनी ही अस्मत।
बनाकर उसको उत्पाद,
की है उसकी ज़िंदगी बरबाद।
संज्ञा दी उसको बाजारू,
छीनी उसकी आबरू।
सजती है वो हाट में,
बिकती है काली रात में।
खड़ें हैं उसके खरीददार,
लगाए लम्बी कतार।
अनपढ से लेकर पढे लिखे तक
सभी हैं उसके जिस्म के भूखे,
हवस की शिकार बन वो
स्वयं को आग में झोंके।
कौन है यहां उसका रक्षक,
बन बैठे हैं सब उसके भक्षक।
सब उसकी इच्छाओं का गला दबाना जानते हैं,
उसके अस्तित्व को मिटाना चाहते हैं।
उसकी कामयाबी उन्हें रास नहीं आती,
करते हैं जुल्म सितम तब तक
जब तक वह अंदर से टूट नहीं जाती......।।।
पुरूष की भेंट चढ़ी दुखियारी।
पाई उसने ये कैसी किस्मत,
बनी दुश्मन उसकी अपनी ही अस्मत।
बनाकर उसको उत्पाद,
की है उसकी ज़िंदगी बरबाद।
संज्ञा दी उसको बाजारू,
छीनी उसकी आबरू।
सजती है वो हाट में,
बिकती है काली रात में।
खड़ें हैं उसके खरीददार,
लगाए लम्बी कतार।
अनपढ से लेकर पढे लिखे तक
सभी हैं उसके जिस्म के भूखे,
हवस की शिकार बन वो
स्वयं को आग में झोंके।
कौन है यहां उसका रक्षक,
बन बैठे हैं सब उसके भक्षक।
सब उसकी इच्छाओं का गला दबाना जानते हैं,
उसके अस्तित्व को मिटाना चाहते हैं।
उसकी कामयाबी उन्हें रास नहीं आती,
करते हैं जुल्म सितम तब तक
जब तक वह अंदर से टूट नहीं जाती......।।।
3 टिप्पणियाँ
good one.
जवाब देंहटाएं-Alok Kataria
अच्छी कविता...बधाई
जवाब देंहटाएंशुक्रिया......
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.