
य: सर्वत्रानभिस्वेहस्त्तत्तत्प्ताप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥57॥
अनुवाद:- इस भौतिक जगत मे जो व्यक्ति सब वस्तुओं के प्रति रागरहित है और जोअनुकूल पदार्थ पाकर, आनन्द में, प्रतिकूल पदार्थ पाकर दु:ख में मग्न नही होता,उसकी बुद्धि स्थित है।
संक्षिप्त टिप्पणी:- श्री कृष्ण कहते है जब भिन्न- भिन्न सिद्धांतो को सुननेके बाद विचलित बुद्धि फिर भी निश्चल होकर प्रमात्मा मे ही स्थित होगी तब तुभगवत्प्राप्ति रूप को पावेगा। अर्जुन के पुन: यह पुछने पर कि स्थिर बुद्धि के क्यालक्षण है? बताए। श्री कृष्ण समझाते हुए कहते है कि कामनारहित मन ‘स्थितप्रज्ञ ’ अर्थातस्थिर बुद्धि कहलाता है। दु:ख एंव सुख मे जो एक समान रहता है उस पुरूष की बुद्धिस्थिर है।
यदा संहरते चायं कूर्मोSग़ांनीव सर्वश:।
इन्द्रयाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥58॥
अनुवाद:- जैसे कछुआ अपने सब अंगो को समेट लेता है, वैसे जिसने अपनी इन्द्रियोंको सब प्रकार से पूर्णतया हटा लिया है उसकी बुद्धि स्थिर होती है।
अजय कुमार सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया) में अधिवक्ता है। आप कविता तथा कहानियाँ लिखने के अलावा सर्व धर्म समभाव युक्त दृष्टिकोण के साथ ज्योतिषी, अंक शास्त्री एवं एस्ट्रोलॉजर के रूप मे सक्रिय युवा समाजशास्त्री भी हैं।
विषया विनिवर्तंते निराहारस्य देहिन:।
रसवर्जं रसोSप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते॥59॥
अनुवाद:- शरीरधारी जीव जिसने विषयों का सेवन नही किया, उसके विषय तो निवृत होजाते है पर, उसमें अभिलाषा बनी रहती है। इस स्थितप्रज्ञ पुरूष की वासना से निवृतिब्रह्म- साक्षात्कार होने से हो जाती है।
यततो ह्यपि कौंतेय पुरूषस्य विपश्चित:।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरंति प्रसभं मन:॥60॥
अनुवाद:- हे अर्जुन! इन्द्रियॉ इतनी प्रबल तथा प्रचण्डशक्तिशालिनी है कि यत्नकरते हुए विद्वान पुरूष को भी बलपूर्वक हर लेती है, जो उन्हे वश मे करने का प्रयासकरते है।
तानी सर्वानि संयम्य युक्त आसीत मत्पर:।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥61॥
अनुवाद:- इसलिए जो साधक इन्द्रियों को पूर्णतया वश मे रखते हुए मुझमें विश्वासकर एकाग्र-चित हो मुझमे ही स्थिर कर देता है। उसकी बुद्धि स्थिर कही जाती है।
हयायतो विषयांपुंस: संगस्तेषूपयजायते।
संगासत्जायते काम: कामात्क्रोSभिजायते॥62॥
अनुवाद:- जो पुरूष विषयो का चिंतन करता है उसकी उन विषयों मे आसक्ति उत्पन्नहोती है, आसक्ति से कामना पैदा होती है और उस मकामनापूर्ति मे विघ्न पड़ने से क्रोधउतप्न्न होता है।
संक्षिप्त टिप्पणी:- उपरोक्त श्लोकों मे श्री कृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहतेहै कि इन्द्रियाँ इतनी प्रबल एवं वेगवान है कि मनुष्य की स्थिर बुद्धि कर लेती है।अत: मनुष्य को कछुआ की तरह अपने अंगो को समेटना अर्थात नियंत्रित करते हुए बचनाचाहिए। विषय भोग में प्रीतो रखने से कामना पैदा होती है इसकी इच्छापूर्ति मेंविघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है अत: स्थिर बुद्धि मनुष्य प्रत्येक स्थिति मेईश्वर मे एकनिषठ होते है। जो विषय- वासना की इच्छा बनी रहती है वह बह्मसाक्षात्कार होने से दुर होती है।
क्रोधद्_भवतो सम्मोह:सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम:।
एमृतिभ्रंशाद बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥63॥
अनुवाद:- क्रोध से अविवेक उत्पन्न होता है और अविवेक से स्मरणशक्ति का नाशहोता है। स्मरणशक्ति का नाश होने से बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि का नाश होनेसे सर्वस्व नाश होता है।
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरणन।
आत्मवश्यैविधेयात्मा प्रसादमाधिगच्छति॥64॥
अनुवाद:- इन्द्रियों को रागद्वेष से हटाकर अपने अधीन करके जो पुरूष विषयों कोभोगता हुआ सेवन करता है वह शांति पाता है।
प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धि पर्यवतिष्ठते॥65॥
अनुवाद:- शांति प्राप्ति से सब दुख नष्ट हो जाते है और उस निर्मल चित्त वालेकी बुद्धि शीघ्र ही स्थिर हो जाती है।
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्त्य भावना।
न चाभाव्यत: शांतिरशांतस्य कृत: सुखम्॥66॥
अनुवाद:- जो पुरूष योगयुक्त नही है उसको आत्म बुद्धि और न ही ईश्वर मे ध्यानलगाने की क्षमता होती है। ऐसे मे क्षमतासे विहीन हो शांति नही मिलती और शांति शून्यका सुख कहा से मिल सकता है।
2 टिप्पणियाँ
काफी दिनो बाद गीता का स्तंभ देख कर अच्छा लगा...कृप्या इसे जारी रखे...
जवाब देंहटाएंAjay ji, please keep it up continue. It is appreciable article. Very very thanks.
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.