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बाबा साहब और जाति ..... [आलेख] - शिवेन्द्र कुमार मिश्र

भारत के हिन्दू समाज में हमारे दलित बन्धुओं को जातिवाद ने जिस तरह उत्पीड़ित किया है। उसके लिए उत्पीड़न शब्द कम है। इस विषय पर आधुनिक भारत के महामनीषी परमपूज्य डा0 बाबा साहेब अम्बेडकर के विचारों को समझने के लिए उनके द्वारा लिखित साहित्य का समालोचन आवश्यक हो जाता है। 'शूद्रो की खोज' में डा0 साहब ने शूद्रों के मूल को खोजते-खोजते भारत के सम्पूर्ण इतिहास को ही खंगाल डाला है। आइए ! अब हम ''भारत में जातिवाद'' पर बाबा साहब के विचारों को जानने का प्रयास करें।

''भारत में जातिवाद'' नाम से प्रकाशित वस्तुत: ‘Castes In India’ नामक बाबा साहब के शोध प्रबन्ध का हिन्दी अनुवाद है। इसके प्रकाशन के पश्चात (1917) में बाबा साहब को भारत का प्रथम समाजशास्त्री होने का श्रेय प्राप्त हुआ। भारत की जातीय समस्या को समझने का यह एक सरल सुगम मार्ग है।

बाबा साहब विषय को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं - ''जातिवाद की समस्या सिध्दांतत: तथा व्यवहारत: इन दोनो दृष्टियों में एक वृहद् समस्या है। व्यवहार रूप से यह एक संस्था है जो भयानक परिणामों के प्रति सचेत करती है। यह स्थानीय समस्या है, परन्तु ऐसी, जिसमें विस्तृत शरारत करने की क्षमता है। क्योंकि जब तक भारत में जातिवाद है, हिन्दू अन्तरजातीय विवाह नहीं करेगें और अपने से बाहरी लोगो में कोई सामाजिक संसर्ग नहीं करेंगे और यदि हिंदू का विश्व के किसी अन्य प्रदेश में स्थानान्तरण हो जाए, तो भारतीय जातिवाद एक विश्व समस्या बन जायेगा।'' (पृ0 11)। मुझे लगता है - अन्तिम् वाक्य एक तीव्र कटाक्ष है।

''शूद्रों की खोज'' के उलट यहां पर आर्य द्रविण मंगोल अन्य जातियों के यहां आने और बस जाने को वह स्वीकार करते प्रतीत होते हैं। उनका कथन है - ''यह स्वीकार किया जा सकता है कि विभिन्न जातियों का पूर्ण रूप से मेल नही हो पाया, इनसे ही हमारे भारत के लोगो का प्रार्दुभाव हुआ है। वह पूर्व एवं पश्चिम तथा उत्तर एवं दक्षिण के लोगो कह की शारीरिक यष्टि का उदाहरण विभिन्न जातियों के भारत में आगमन को सिध्द करने के लिए दिया है। मिश्रण को समान जातीयता का पूर्ण सिद्धान्त मानने से इन्कार करते हुए उनका मत है कि - ''समान जातीयता की आधार संस्कृति की एकता है।'' इस सांस्कृतिक एकता को प्रशंसित करते हुए भी बाबा साहब इसके कारण ही ''जातिवाद की समस्या को वर्णनातीत'' मानते हैं। उनका मत है - ''यदि हिन्दू समाज आपस में पूर्ण रूप से इकाइयों का एक मात्र संघ होता तो मामला पर्याप्त सरल होता''। परन्तु जातिवाद गठ्ठर जैसी एक समाज जातीय इकाइयों का मेल है और जातिवाद की उत्पत्ति का विवेचन इस मेल की कार्याविधि का विवेचन है।'' (पृ0 12)

आगे विभिन्न विद्वानों की परिभाषाओं के माध्यम से जाति के स्वरूप को समझाते हुए बाबा साहब अपना मत स्थापित करते हैं - ''जाति के विभिन्न गुणो के इस गुण दोष विवेचक मूल्यांकन में कोई इस बात की शंका नहीं रह जाती है कि वस्तुत: अन्तरजातीय विवाह का निषेध अथवा अभाव जातिवाद का सार समझा जा सकता है।'' बाबा साहब अन्तत: स्वीकार करते हैं कि - ''परिणाम स्पष्ट है कि सजातीय विवाह एकमात्र लक्षण है जो जातिप्रथा की विशेषता है और यदि हम जताने में सफल हो जाएं कि सजातीय विवाह ही क्यों होते हैं तो हम व्यावहारिक रूप से साबित कर सकते हैं कि जातियों की उत्पत्ति कैसे हुई और इसका ताना बाना क्या है।''

डा0 अंबेडकर सजातीय विवाह को जातिप्रथा की जड़ मानने की अपनी मान्यता का उद्गम् बर्हिगोत्र विवाह प्रथा के निषेध में खोजते है। वे कहते हैं - ''यहां सपिंड विवाहों पर ही प्रतिबंध नहीं है बल्कि सगोत्र विवाह भी अपवित्र माने जाते हैं। (पृ0 17) आगे डा0 अंबेडकर की मत है - ''यह कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भारत में वर्हिगोत्र विवाह एक विधान है और इसका उल्लंघन संभव नहीं, यहां तक कि जाति भीतर विवाह प्रथा के बाबजूद गोत्र बाह्य विवाह पध्दति का कठोरता से पालन किया जाता है। सगोत्री विवाह करने पर अन्तरजातीय विवाह करने की तुलना में कठोर दण्ड का विधान है''। डा0 अम्बेडकर के इस कथन की प्रामणिकता हम पश्चिम् उ0प्र0, हरियाणा, पंजाब आदि की खाप पंचायतों के उन कठोर निर्णयों में देख सकते हैं जहां पंचायते बाह्य विवाह की स्थिति में मृत्युदण्ड तक के नृशंस फेसले करके उन पर अमल करवाती हैं।

अन्तत: बाबा साहेब यह सिध्द करते हैं कि - ''यहां वर्हिगोत्र विवाह विधान से अंत: जाति अर्थात् सजातीय विवाह विधान भी जुड़ा है।'' बाबा साहब मानते हैं कि ''वर्हिगोत्र का अर्थ है परस्पर विलय परन्तु हमारे यहां जाति प्रथा है। इस सारे सिद्धान्त का सरल अर्थ यह है कि मान लें निकट रक्त संबंधों के अलावा विवाह हेतु अन्य कोई गोत्र आदि का प्रतिबंध न हो तो क्या जाति प्रथा टिक पायेगी। बाबा साहब मानते हैं – नहीं। दरअसल यह विलीनीकरण ही प्रक्रिया की शुरूआत है यदि एक बार गति पकड़ गई तो जाति को समाप्त करके छोड़ेगी। गोत्र प्रत्येक जाति को उसी के दायरे में कैद रखने वाला सींखचा है।

इसके आगे की बाबा साहेब की व्याख्या काफी दिलचस्प भी है और काफी महत्वपूर्ण भी। मैं यथावश्यकता संक्षिप्त करते हुए उन्हीं के शब्दो में प्रस्तुत करने की कोशिश करूंगा।

''इस प्रकार सजातीय विवाह प्रथा की वर्हिगोत्रीय विवाहों पर जकड़न ही जातिप्रथा का कारक है। किंतु बात इतनी सीधीं सी नहीं है। हम मान लें कि एक समुदाय है जो जाति बनाना चाहता है अब यदि जाति का कोई सदस्य विजातीय विवाह कर लेगा तो यह संरचना व्यर्थ है। विशेष रूप से इस अर्थ में कि सजातीय विवाह से पूर्व सभी वर्हिगोत्र विवाह होते थे। सभी वर्ग सम्मिश्रण के पक्षधर हैं और एक सजातीय वर्ग में संगठित हो जाते हैं। यदि इस प्रकृति का प्रतिकार किया जाए तो यह आवश्यक है कि जिन वर्गों के बीच विवाह संबंध नहीं है उन्हें भी प्रतिबंधित वर्ग में सम्मिलित किया जाए। इसके लिए आवश्यक है कि परिधि का बढ़ाया जाना।

डा0 अंबेडकर कहते हैं कि बाह्य समुदायों में विवाह निषेध से आंतरिक समस्यायें उत्पन्न होती हैं। मोटे तौर पर सभी समुदायों में स्त्री-पुरूषों की संख्या समान होती है। डा0 साहब मानते हैं कि यदि सजातीय विवाह प्रथा को बनाये रखना है तो आंतरिक दृष्टि से दाम्पत्य अधिकारों का विधान रखना होगा और इसके स्त्री-पुरूषों की संख्या समान रखनी होगी। इसमें असमानता उत्पन्न होगी, दम्पत्ति में किसी एक की मृत्यु से। इस प्रकार बचे हुए स्त्री-पुरूषों की उस समाज को व्यवस्था करनी होगी। यदि इनकी व्यवस्था नहीं होगी तो संभव है कि इनमें से कोई जाति बाह्य विवाह कर जाति व्यवस्था को आघात पहुंचाए। बची हुई स्त्रियों का निस्तारण या तो उन्हें 'सती' करके किया जा सकता है दूसरा उन्हें जीवन भर विधवा रहने दिया जाए उन्हें वैध पत्नीत्व न दिया जाए। यद्यपि इससे अनैतिकता के रास्ते खुलते हैं किंतु उसका समाधान उन्हें अनाकर्षक बना कर किया जा सकता है।

विधुर पुरूषों का निस्तारण डा0 साहब उसे जाति में बनाये रखने की दृष्टि से बालिकाओं के साथ पुनर्विवाह में देखते हैं। इस प्रकार वह जाति में भी रहेगा और पुरूषजन्य उच्छृंखलता के कारण समाज की अनैतिकता से भी बचाया जा सकेगा।

इस वार्ता का निष्कर्ष माननीय बाबा साहब इस प्रकार निकालते हैं - ''जबकि विभिन्न परिभाषाओं में हमारे विश्लेषण के अनुसार सजातीय विवाह और जाति एक ही है। अत: इन साधनों का अस्तित्व जाति समरूप है तथा जाति में इन साधनों का समावेश है।''

डा0 साहब के मत में सजातीय विवाह जातिप्रथा का आधार है और इस सजातीय विवाह के लिए अतिरिक्त हो गए (साथी की मृत्यु के कारण) स्त्री पुरूषों का हिन्दू समाज द्वारा अपनाया गया निदान : जैसा ऊपर चर्चा की गई, आवश्यक है। डा0 साहब का स्पष्ट विचार है - ''परन्तु यह कैसे उचित ठहराया जा सकता है कि जातिप्रथा और सजातीय विवाह प्रथा के लिए सतीप्रथा, आजीवन विधवा व्यवस्था और बालिका विवाह, यही विधवा स्त्री और विधुर पुरूष की समस्या के समाधान हैं। ये स्वीकार किये जायें। सजातीय विवाह को बनाए रखने के लिए आवश्यक है, जबकि सजातीय विवाह प्रथा के अभाव में जातिप्रथा का अस्तित्व बना रहना संदिग्ध है।'' डा0 साहब एक बार पुन: जाति प्रथा के मूल पर विचार करते हुए अपना-मन्तव्य स्पष्ट करते हैं'' :- सजातीय विवाह ही जातिपात का एकमात्र कारण है और जब मैं जाति के मूल की बात कहता हूं तो इसका अर्थ सजातीय विवाह प्रथा की क्रियाविधि के मूल से है।''

आगे जब डा0 अम्बेडकर समाज निर्माण पर चर्चा करते हैं तो वह यह स्वीकार करते हैं कि समाज सर्वथा वर्गो से मिलकर बनता है। ये वर्ग, आध्यात्मिक आर्थिक अथवा सामाजिक प्रकार के हो सकते हैं लेकिन समाज का प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी प्रकार के वर्ग से जुड़ा होता है।'' आरंभिक हिन्दू समाज भी ऐसे ही विभिनन वर्गों का समूह था। बाबा साहब मानते है ंकि जातिपात के अध्ययन में यह बहुत उपयोगी तत्व सिध्द हो सकता है कि यह जाना जाए वह कौन सा वर्ग था जिसने सर्वप्रथम स्वंय को जाति में ढाला। नि:सन्देह उनके अनुसार यह ब्राहम्ण थे जो हिन्दू समाज व्यवस्था में शीर्ष पर थे। शेष वर्गों ने इसका अनुसरण किया। डा0 साहब के मत में - ''वही वर्ग (ब्राहम्ण) इस अप्राकृतिक संस्थाका जन्मदाता था उसने अप्राकृतिक साधनों से इसकी नींव डाली और इसे जिन्दा रखा।''

बाबा साहब सम्पूर्ण भारत में जातपात के उद्भव और विस्तार के प्रश्न पर अपना मत स्थापित करते हैं। मनु पर अपने स्वाभाविक क्रोध का निस्तारण करते हुए वह अपना मत व्यक्त करते हैं :- ''मनु ने जाति विधान का निर्माण नहीं किया और न वह ऐसा कर सकता था। जातिप्रथा मनु से पूर्व विद्यमान थी और वह तो उसका पोषक था। प्रचलित जाति प्रथा को ही उसने संहिता का रूप दिया और जाति धर्म का प्रचार किया। तर्क में यह सिद्धान्त है कि ब्राहम्णों ने जाति संरचना की।'' ब्राहम्ण और कई बातों के लिए दोषी हो सकते हैं और में नि:संकोच कह सकता हूं कि वह हैं भी, परन्तु गैर ब्राहम्ण, अन्य जन समुदायों पर जातिप्रथा थोपना उनके बूते के के बाहर की बात थी।'' मेरी समझ में यह महत्वपूर्ण बात है कि डा0 अम्बेडकर यह स्वीकार करते हैं कि :- अपनी क्षमता से वे (ब्राहम्ण) अपनी योजना (समाज पर जातिवाद थोपना) क्रियान्वित नहीं करा सकते।'' आगे वह कहते हैं :- ''पुराणपंथी हिन्दुओं के मन में यह धारणा है कि हिन्दू समाज किसी तरह जातिप्रथा प्रणाली में ढल गया और यह संस्था किसी शास्त्री ने नहीं बनाई।'' वह इस प्रथा की प्रकृति की निस्सारता पर प्रकाश डालते हैं जिसने धार्मिक प्रतिबंधो को वैज्ञानिक कहकर आच्छादित किया है।

डा0 साहब जाति के निर्माण के संबंध में अनेक विद्वानो के मतों को प्रस्तुत कर उनका खण्डन करते हैं। वह कहते हैं कि मैं इन सिद्धान्तों की आलोचना जारी रखते हुए इस विषय पर अपनी बात रखना चाहूंगा कि ''जिन सिद्धान्तों ने जातिप्रथा को विभाजनकारी नियमों के पालन की एक स्वाभाविक प्रवृति बताया है। इस विषय में वह हरबर्ट स्पेंसर के विकास के सिद्धान्त की व्याख्या की आलोचना करते हैं।

माननीय बाबा साहेब यह मानते हैं कि प्रारम्भ में हिन्दू समाज चार वर्णो में विभाजित था। 1- ब्राहम्ण 2- क्षत्रिय या सैनिक वर्ग 3- वैश्य या व्यापारिक वर्ग और 4- शूद्र अथवा शिल्पकार और श्रमिक वर्ग। वह कहते हैं - ''इस विषय पर विशेष ध्यान देना होगा कि आरम्भ में यह अनिवार्य रूप से वर्ग विभाजन के अन्तर्गत व्यक्ति दक्षता के आधार पर अपना वर्ग बदल सकता था और इसलिए वर्णो को व्यक्तियों के कार्यो की परिवर्तनशीलता स्वीकार थी। हिन्दू समाज में किसी समय पुरोहित वर्ग ने (ब्राहम्ण) अपना विशेष स्थान बना लिया और इस तरह स्वंय सीमित प्रथा से जातियों का सूत्रपात हुआ। दूसरे वर्ण भी समाज विभाजन के सिध्दान्तानुसार अलग-अलग खेमो में बंट गए। कुछ का संख्या बल अधिक था तथा कुछ का नगण्य। वैश्य और शूद्र वर्ण मौलिक रूप से वे तत्व हैं जिनकी जातियों की अनगिनत शाखाएं प्रशाखाएं कालान्तर में उभरी हैं : क्योंकि सैनिक व्यवसाय के लोग असंख्य समुदायों में सरलता से विभाजित नहीं हो सकते। इसलिए यह वर्ण सैनिकों और शासकों के लिए सुरक्षित हो गया।

डा0 साहब यह मानते हैं कि इस स्वाभाविक वर्गीकरण ने पूर्व में विद्यमान समाज के विभिन्न वर्गों के अन्त: परिवर्तनशीलता के रास्ते बन्द कर दिए। वर्ग संकुचित होकर जातियों में बदल गए। इसका परिणाम सजातीय विवाह का नियम और जाति संस्थान की दृणता से निकला। प्रश्न है कि क्या उन्होने स्वंय द्वार बन्द कर लिए। डा0 साहब मानते हैं कि - ''कुछ ने द्वार बन्द कर लिए और कुछ ने दूसरे के द्वार अपने लिए बन्द पाये।'' निश्चित रूप से यह अन्योन्याश्रित संबंध हैं जिसमें पहला पक्ष मनोवैज्ञानिक है और दूसरा चालाकी भरा।''

माननीय बाबा साहब इसकी व्याख्या करते हुए ब्राहम्णों को ''जाति प्रथा'' के निर्माण और अपने द्वार बन्द करने का दोषी मानते हैं। उनका कथन है - ''क्योंकि सजातीय विवाह या आत्म केन्द्रित रहना ही हिन्दू समाज का चलन था और क्योंकि इसकी शुरूआत ब्राहम्णों ने की थी इसलिए गैर ब्राहम्ण वर्गो अथवा जातियों ने भी बढ़ चढ़ कर इसकी नकल की और वे सजातीय विवाह प्रथा को अपनाने लगे। खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलने लगा। इस तरह जातिप्रथा का मार्ग प्र्रशस्त हुआ।'' अर्थात जाति प्रथा का विस्तार नकलबाजी अथवा अनुसरण के सिध्दांत के आधार पर हुआ। डा0 साहब अनुकरण के सिद्धान्त पर विभिन्न विद्वानों के मतों की समीक्षा करते हुए अनुकरण के आधार पर ''जाति प्रथा'' के विस्तार की पुष्टि करते हैं।

इस अनुकरण के सिद्धान्त को डा0 साहब जातिप्रथा के निर्माण की क्रियाविधि मानते हैं। अपने सिद्धान्त को जातिप्रथा की सही व्याख्या मानते हुए वह कहते हैं - ''जाति अपने आप में कुछ नहीं है उसका अस्तित्व तभी संभव होता है, जब वह सारी जातियों में स्वंय एक हिस्सा हो। दरअसल जाति कुछ है ही नहीं अपितु जातिप्रथा है।''
डा0 साहब यह कहते है कि अपने लिए जाति संरचना करते समय ब्राहम्णों ने ब्राहम्णोतर जातियां बना डाली अर्थात स्वंय को एक बाड़े में बन्द कर के दूसरों को बाहर रहने को विवश किया। बाबा साहब विभिन्न प्रकार के उदाहरणों से अपने इस मत की पुष्टि करते हैं और अन्त में वह अपने अध्ययन के पक्ष को प्रस्तुत करते हैं - ''जाति प्रथा की जड़ आस्थाएं हैं परन्तु आस्थाओं को जाति संरचना में योगदान के पहले ही ये मौजूद थीं और द्रढ़ हो चुकी थीं जाति समस्या के अध्ययन के संबंध में मेरे अध्ययन के चार पक्ष हैं :-

1- हिन्दू जनसंख्या में विविध तत्वों के सम्मिश्रण के बावजूद इनमें दृढ़ सांस्कृतिक एकता है।
2- जातियां इस विराट समूह की सांस्कृतिक इकाई के अंग हैं।
3- शुरू में केवल एक ही जाति थी और
4- इन्हीं वर्गो में देखा देखी या वहिष्कार से विभिन्न जातियां बन गईं।

और अन्त में डा0 साहब कहते हैं कि जो लोग जाति प्रथा को मानव समाज के सहज विकास का प्रतिफल मानते हैं उनके लिए यह अध्ययन पर्याप्त विचार सामग्री देगा। उनका यह कहना सर्वथा सत्य है कि (जात-पात) इस विषय के विश्लेषण में पक्षपात रहित रहना है। भावनाओं के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए, बल्कि इस विषय पर वैज्ञानिक और निष्पक्ष रूप से विचार होना चाहिए।'' चालीस पृष्ठों का यह शोध प्रबन्ध जातिपात विषयक अध्ययन हेतु पर्याप्त विचार सामग्री देती है। आप श्री अंबेडकर के विचारों से असहमत हो सकते हैं किंतु उन्हें खारिज नहीं कर सकते।

जहां तक मेरा प्रश्न है तो भारत के हिन्दू समाज में जाति प्रथा कैंसर की बीमारी की तरह है जो लगता है इस शरीर के प्राण निकालकर ही दम लेगी। किसी भी सर्जरी के लिए आवश्यक है कि चिकित्सक कैंसर की सही स्थिति की पहचान करें एवं इससे भी अवगत कि क्या सर्जरी हो भी सकती है इस दृष्टि से दलित समाज को नासूर की तरह डसती जातिप्रथा पर बाबा साहब की दृष्टि अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

मेरे मन में हिन्दू समाज में व्याप्त सम्पूर्ण जातीय व्यवस्था के घृणित रूप को उसके सम्पूर्ण आयामों में समझने की उत्कंठा है और इस दृष्टि से बाबा साहब जैसा उद्भट विद्वान और कौन हो सकता है। चूंकि यह प्रबन्ध सम्पूर्ण समस्या के सीमित पक्ष पर ही प्रकाश डालता है। अत: इस पर कुछ भी कहना उचित नहीं है फिर भी मैं इस प्रबंध के कुछ बिन्दुओं पर अपनी विनम्र असहमति छिपाना नहीं चाहता।

1- पृष्ठ 17 पर उद्धृत डा0 साहब का बर्हिगोत्र विवाह निषेध सिध्दांत सुलझाने के बजाय उलझाता है। उल्लेखनीय है कि डा0 साहब का ''जाति सिद्धान्त'' सजातीय विवाह सिद्धान्त पर टिका है। सजातीय विवाह सिद्धान्त की नींव है बर्हिगोत्र विवाह निषेध सिद्धान्त। एक जगह वह कहते हैं - बर्हिगोत्र विवाह का नियम बना दिया जाए तो जाति प्रथा का आधार ही मिट जाए क्योंकि बर्हिगोत्र का अर्थ है-परस्पर विलय।''

यह सिद्धान्त उलझाता इसीलिए है कि सजातीय विवाहो में समगोत्री विवाह का निषेध होता है न कि बर्हिगोत्रीय। प0उ0प्र0, हरियाणा, पंजाब में जाट खास पंचायतो ने समगोत्रीय विवाहों पर नृशंस हत्याओं तक के दण्ड दिए हैं। मैं ब्राहम्णों के विवाह के एक उदाहरण से समझाना चाहता हूं। मान लीजिए कान्यकुब्ज ब्राहम्ण परिवारों में कन्या और वर पक्ष आपस में विवाह करना चाहते हैं तो एक का गोत्र है कात्यायन और दूसरे का भारद्वाज तो दोनों एक दूसरे के लिए बर्हिगोत्री हुए और विवाह हो जायेगा। किंतु यदि दोनो कात्यायन या भारद्वाज हुए तो ''समगोत्री'' हुए और इस नाते माना जाता है कि वर-वधू पक्ष एक परिवार होने के कारण आपस में भाई-बहिन हुए। विवाह नहीं होगा। यद्यपि इसकी काट यह है कि पहला कन्यादान यदि कन्या का मामा ले ले तो विवाह किया भी जा सकता है।

अब यदि डा0 साहब द्वारा प्रस्तुत ''अनुकरण के सिद्धान्त'' का आधार ले तो ऐसी ही मान्यता और ब्राहम्णी जातियों में भी होनी चाहिए तो ''बर्हिगोत्र विवाह निषेध'' सिद्धान्त उलझा देता है।

2- जातिपात का प्रभाव समाज में ''रोटी और बेटी'' के सिद्धान्त से जुड़ा है। जहां तक 'रोटी' का संबंध है तो हिन्दुओं में भी यह सिध्दांत समाप्ति की सीमा तक ढीला हो गया है। किंतु जहां तक 'बेटी' का प्रश्न है तो हिन्दू समाज से धर्मान्तरण कर जो लोग मुसलमान या ईसाई बन गए क्या उनमें सजातीय विवाह विषयक कठोरता पूर्णत: समाप्त हो गई है? क्या पठानों और कुरैशियों में विवाह संबंध है। यह शोध का विषय है।

3- डा0 साहब मानते हैं कि प्रारम्भ में जातियां अन्तरपरिवर्तनीय थीं तो फिर एकाएक द्वारा कैसे बंद हो गए। बिना इतिहास की सहायता के इस प्रश्न का उत्तर कैसे दिया जा सकता है ?

4- क्या आज विश्वव्यापी हिन्दू समाज शेष विश्व के समाज में जाति प्रथा को फेला पाया है जैसा कि डा0 साहब कटाक्ष करते हैं।

असहमतियां और भी हैं किंतु क्योंकि प्रस्तुत शोध प्रबंध समस्या का आंशिक रूप है। इसलिए मैं नहीं रख रहा। किंतु एक तथ्य मैं समझ नहीं पा रहा कि आखिर बाबा साहब के आक्रोश का शिकार ''मनु'' क्यों कोई दूसरा संहिताकार क्यों नही ? जबकि वह स्वंय भी उसे जातिप्रथा के जन्म का दोषी नहीं मानते (इसी पुस्तक से) इतना ही नही उसका ब्राहम्ण होना भी संदिग्ध है (शूद्रों की खोज) अपितु डा0 साहब ''शूद्रो की खोज'' में जो साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं उनसे तो ''मनु'' क्षत्रिय शूद्र (सुदास वंशज) ठहरता है। अस्तु ! इस समस्या पर आगे भी हम पूज्यनीय बाबा साहब के विचारों से अवगत होते रहेंगे।

5- डा0 साहब मानते हैं कि - ''सैनिक व्यवसाय के लोग असंख्य समुदायों में सरलता से विभाजित नहीं हो सकते।'' किंतु व्यवहार में ऐसा नही है न केवल क्षत्रिय वर्ण में अनेकानेक जातियां उपजातियां हैं अपितु शूद्रो और वैश्यों में भी तमाम जातियां अपना उद्गम क्षत्रियों से मानती है। इस पर ''जाति'' समस्या की वास्तविक पहचान के समय मैं कुछ प्रकाश डालने की कोशिश करूंगा।

शिवेन्द्र कुमार मिश्र,
आशुतोष सिटी, बरेली

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3 टिप्पणियाँ

  1. भारत में कुछ ऐसी भी जातियां हैं जो न्यायिक चरित्र नहीं रखती फिर भी न्यायिक कुर्सी की शोभा है और वे वो लोग हैं जो पढ़ लिख गएँ है और 'जातिवाद हो' इसका समर्थन करते हैं ।और सच कहूं तो ये लोग भारत का मूल निवासी नहीं हो सकता,क्योंकि भारत की मिट्टी ऐसे लोगों को पनाह तो दे दी है पर पैदा नहीं करती । मैं 6647 जतियों के जातिवाद को ठुकराता हूँ । मैं मानव जाति से हूं ।

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