याची आज फिर इस द्वार
मैं अकिंचन
स्नेह सिंचन
रिक्त वसना सी धरा पर
हृदय आकुल ...
भटकता ले तमस में
नयन अविरल धार ...
आज बारम्बार ...
हां मैं आज फिर इस द्वार
तड़्पता हूं मीन
सूखा सर निरन्तर
विहग दल की कूक से
आतप निरन्तर...
खींचता वो कौन ..
अनजाने ड्गों से
देखता है कौन ..
अनजाने दृगों से..
कण्टकों से ढ्का ये पथ
विलोपित रसधार ...
है क्यों बन्द अब भी द्वार
याची मैं निरन्तर
एक तेरे द्वार
बस मैं एक तेरे द्वार
मैं अकिंचन
स्नेह सिंचन
रिक्त वसना सी धरा पर
हृदय आकुल ...
भटकता ले तमस में
नयन अविरल धार ...
आज बारम्बार ...
हां मैं आज फिर इस द्वार
तड़्पता हूं मीन
सूखा सर निरन्तर
विहग दल की कूक से
आतप निरन्तर...
खींचता वो कौन ..
अनजाने ड्गों से
देखता है कौन ..
अनजाने दृगों से..
कण्टकों से ढ्का ये पथ
विलोपित रसधार ...
है क्यों बन्द अब भी द्वार
याची मैं निरन्तर
एक तेरे द्वार
बस मैं एक तेरे द्वार
5 टिप्पणियाँ
sundar rachnaa !
जवाब देंहटाएंAvaneesh
Mumbai
आतप निरन्तर...
जवाब देंहटाएंखींचता वो कौन ..
अनजाने ड्गों से
देखता है कौन ..
बहुत खूबसूरत भाव की पंक्तियाँ श्री कान् भाई। वाह।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
अच्छी कविता..बधाई
जवाब देंहटाएंतड़्पता हूं मीन
जवाब देंहटाएंसूखा सर निरन्तर
विहग दल की कूक से
आतप निरन्तर...
खींचता वो कौन ..
अनजाने ड्गों से
देखता है कौन ..
sunder
rachana
Acchii rachana Badhaaii
जवाब देंहटाएंPrabhudayal Shrivastava
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.