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अनुकरणीय श्रीमदभगवद गीता [स्थाई स्तंभ-10] - अजय कुमार



इन्द्रियाणां हि चरता यन्मनोSनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥67॥

अनुवाद: जिस प्रकार, वायु समुद्र मे नाव को इधर-उधर घुमाता है मन, नाना विषयों में प्रवृत हुए इन्द्रियों मे जिस इन्द्रि-सुख से मन विभोर होता है, व्ही एक इन्द्रिय मनुष्य को विवेक-शून्य कर देती है।


रचनाकार परिचय:-
अजय कुमार सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया) में अधिवक्ता है। आप कविता तथा कहानियाँ लिखने के अलावा सर्व धर्म समभाव युक्त दृष्टिकोण के साथ ज्योतिषी, अंक शास्त्री एवं एस्ट्रोलॉजर के रूप मे सक्रिय युवा समाजशास्त्री भी हैं।

संक्षिप्त टिप्पणी:- उपरोक्त श्लोको में श्री कृष्ण अर्जुन से कहते है कि हे अर्जुन क्रोध से अविवेक उत्पन्न होता है जिससे स्मरण शक्ति का नाश होता फलत: बुद्धि नष्ट हो जाती है अत: इन्द्रियो को रागद्वेष से हटाकर स्वाधीन कर जो पुरूष विषय भोग करता है शांति पाता है जिससे दु:ख नष्ट से बुद्धि स्थिर हो जाती है। योगविहीन मनुष्य शांति की प्राप्ति नही होती है जैसे वायु समुन्द्र में नाव अको इधर उधर घूमाता है वैसे ही मन भी कई प्रकार के विषयों में प्रवृत होते हुए जिस इन्द्रिय सुख से आसक्त होता है वही एक ही इन्द्रिय आसक्त पुरूष की बुद्धि छिन कर मोक्ष मार्ग से हटा देती है।

तस्माधस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वश:।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेम्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥68॥

अनुवाद:- इसलिए हे महाबाहो अर्जुन। जिसने अपनी इन्द्रियों को सब विषयों से खींच लिया है उसकी बुद्धि स्थिर है।

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने:॥69॥

अनुवाद:- जहाँ सब प्राणी अज्ञानरूपी रात्रि का अनुभव करते है वहाँ जितेन्द्रिय पुरूष ज्ञानरूप जाग्रत अवस्था आ अनुभव करता है और जो सब प्राणियों मे आग्रत अवस्था प्रतीत होती है वह अज्ञानरूपी रात्रि है ऐसा विवेकी जानता है।

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुन्द्रमाप: प्रविशंति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशंति सर्वे स शांतिमाप्नोति न कामकामी॥70॥

अनुवाद:- जिस प्रकार समुन्द्र के मध्य मे चारों ओर से जल के प्रवाह पड़ते है तो भी वह अपनी मर्यादा को नही त्याग करता, ठीक उसी प्रकार जो विषयों के संग होते हुए भी विकार को नही प्राप्त होता वह शांति को पाता है, परंतु भोग की कामना करने वाला पुरूष कभी शांति को प्राप्त नही होता।

विहाय कामन्य: सर्वांपुमांश्चरति नि:स्पृह:।
निर्ममो निरहंकार: स शांतिमधिगच्छति॥71॥

अनुवाद:- जो पुरूष सम्पूर्ण अभिलाषाओं को त्यागकर ममतारहित, अहंकाररहित और इच्छारहीत हुआ विचरता है वही शांति को प्राप्त होता है।

एषा ब्राह्मी स्थिति:पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
एथित्वाडस्याSपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥72॥

अनुवाद:- हे पार्थ। हमने जो वर्णन किया यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरूष की स्थिति है। इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोह माया मे नहीं फँसता और मरणकाल में भी इस स्थिति मे रहकर  परबह्म मे लीन होता है।

संक्षिप्त टिप्पणी:- भगवान श्री कृष्ण कहते है हे पार्थ। जिसने इन्द्रियो को सब विषयों से अलग कर लिया है उसकी बुद्धि स्थिर होती है। जब सब प्राणी अज्ञानरूपी रात्रि का अनुभव करते है वहाँ ज्ञानी पुरूष ज्ञान रूप जाग्रत अवस्था का अनुभव करते है ठिक इसी प्रकार जब सब प्राणी जाग्रत अवस्था का अनुभव करते है तब जितेन्द्रिय पुरूष अज्ञानरूपी रात्री है ऐसा समझते है। जिस प्रकार समुन्द्र के मध्य मे चारो ओर जल प्रवाह के बावजूद यह मर्यादा नही तोडता है ठीक उसी प्रकार जो पुरूष  विषयो के संग  होते हुए भी वोकार को प्राप्त नही होते वही पुरूष परम शांति पाता है। परिणामस्वरूप वह सम्पूर्ण इच्छाओं को त्यागकर ममताशून्य अहंकार रहित एवं इच्छारहित होत हुआ विचरता है। अत: हे पार्थ हमने जो समझाया यह बह्म को प्राप्त पुरूष की स्थिति है जो अंत काल में भी इसी स्थिति में रहकर परबह्म में लीन हो जाता है।

इसी प्रकार श्रीमद्श्रीमद्भागवतगीता के द्वितीय अध्याय “साख्य योग” नामक अध्याय पूर्ण हुआ।  

-तीसरा अध्याय:- कर्मयोग--

ॐ इस सम्पूर्ण जगत में व्याप्त नित्यरूप परमात्मा को नमस्कार!

”कर्मयोग” नामक इस विशेष अध्याय में विभिन्न प्रकार के कर्मो का वर्णन श्रीकृष्ण एवं अर्जुन के संवाद मे किया गया है। प्रत्येक मनुष्य को अपने वर्ण आश्रम के लिए निर्धारित कर्म किस प्रकार करना चाहिए, क्यों करना चाहिए, उनके न करने से क्या-क्या हानि है तथा उनके करने से क्या क्या लाभ है। कौन से कर्म बन्धनकारक एवं मुक्तिकारक है- आदि बातें इस अध्याय “कर्मयोग” मे विस्तार से वर्णन किया गया है। चुँकि यह अध्याय विशेष विभिन्न कर्मों पर उसके परिणाम लाभ-हानि को सविस्तार बताती है इसलिए इस अध्याय का नाम “कर्मयोग” रखा गया है।

अर्जुन उवाच:
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्माणि धोरे मां नियोजयसि केशव॥1॥

अनुवाद:- अर्जुन ने कहा- हे केशव! यदि आपके अनुसार कर्म की अपेक्षा ज्ञानयोग श्रेष्ठ है तो मुझको इस भयंकर कर्म में क्यों प्रवृत करते हो।

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