
हमारे स्वनामधन्य एवं गुणज्ञ महापुरूषों ने देश की व्यवस्था में सुधार लाने के लिए बड़े-बड़े काम किये है और नारे दिये है। नारे वही लोग देते है जो मनसा वाचा कर्मणा उन पर अमल कर चुके होते है। तभी तो इन नारों का प्रभाव लोगों पर पड़ता है। किसी संत ने पहले गुड़ खाना छोड़ दिया तभी बुढि़या के बेटे से कहा था कि उसे गुड़ नही खाना चाहिए। ऐसी बाते अंदर तक घंटी बजाती है।
इन्हीं महापुरूषों में से एक ने देश को नारा दिया था ''सत्यमेव जयते।'' सत्य पहले से था किन्तु रजिस्टर्ड नही था। दरअसल नारा देना और देष की उस नारे के प्रति स्वतंत्र स्वीकारोकित ही नारें का रजिस्टर्ड होना कहलाता है। अब सब जान गये कि सत्य की जीत होती है। स्कूलों, थानों, कार्यालयों, न्यायालयों, संसद, विधान सभाओं अर्थात सभी महत्वपूर्ण ठिकानों पर ''सत्यमेव जयते'' लिखा हुआ पाया जाने लगा। थाने में दरोगा जी की कुर्सी के ठीक ऊपर ''सत्यमेव जयते'' पढ़ने को मिलेगा। चुनांचे जहां-जहां सत्य जा कर स्वयं को कृतार्थ कर सकता था, वहा-वहां वह पहुंचा। किताबो, सेमिनारों, सामूहिक-चर्चाओं से लेकर बड़े-बडे व्याख्यानों में गया। पर व्यवहार में देखा गया कि सत्य तो पोथियों में कैद है। मानते है कि सत्य की जीत होती है। 'सत्यं वद, धर्मं चर' यह भी कुछ दुविधा में है कि सत्य को वदना चाहिए व धर्म को चर जाना चाहिए। बहरहाल मै ग्रेज्युएट था सो इतना फर्क तो कर सकता था कि सत्य को बोलना चाहिए। सत्य के लिए आग्रह करना आवश्यक है। इसलिए एक दिन ठान के निकला कि चाहे जो हो जाए, आज सत्य ही बोलूंगा। सौ में सूर सहस्त्र में काना यानी एक अंधा 100 के बराबर व एक काना हजार के बराबर होता है। एक दफतर में काम के लिए गया तो दफतर के एकनयन बड़े बाबू को काने जी नमस्कार कह दिया, तो मेरी दुर्गति कर दी गर्इ। वापस आते समय रास्ते में एक व्यकित मरी भैस की खाल उतार रहा था, उसे चमा... जी कहते ही वह गरम हो गया और लाठी लेकर मुझे दौड़ा लिया। सोचा सब गलत लिखा है। इससे काम कहां चलता है। सत्य के भी भेद हो गये। सत्यं ब्रूयात, अप्रिय सत्यं न ब्रूयात - अर्थ यह है कि 'सत्य प्रिय और अप्रिय के वर्गीकरण में फंस गया है। इसलिए सत्य बोलने के लिए बी.ए. के बाद पी.एच.डी. कर लेनी चाहिए।
इधर लोगबाग सत्य में कम रूचि लेने लगे। उन्हें सत्य किताबों एवं अध्यापकों के पढ़ानें तक अच्छा लगता था, आगे नहीं। क्या हो देश का, देश तो नारों के बगैर बढ़ेगा नहीं। सत्य की दुर्गति देश के किस हिस्से में नही हरो रही भला, कुल जमा यह उसकी दुर्गति मुंबर्इ के खैरनार बन चुकी थी। महापुरूष देश को नाराशून्य कैसे बनाये रहे! एक नारा आया 'श्रमेव जयते'! मेहनतकश मजदूरों का कहना ही क्या! कबहुंक सुनौगो दीनदयाल, लो भैया सुन लिये दीनदयाल। अब मजदूर वर्ग डटकर काम करने लगे, काम तो पहले भी करत थे, पर पहले का काम करना अपंजीकृत था। अब चौड़े से, कहना ही क्या। बोल जवान हर्इसा ... हिम्मत कर ले हर्इसा ........ देश तरकिकयों चढ़ने लगा। कल कारखाना हो या हो दफतर, स्कूल हो या हो कोर्इ वर्कशाप - सब श्रम की बलिहारी। मिल का सायरन टोटली धर्मनिरपेक्ष और जातियां, धर्म एवं रंग भेद के तेवर हाशिये पर सिकुड़ गये थे। श्रमिक होना अपने आप में गर्व का विषय था। गर्व से कहो हम श्रमिक है। पर धीरे-धीरे श्रम में लोगों की दिलचस्पी कम होने लगी। कारण जो तथाकथित श्रमिक थे वे शार्टकट में भरोसा रखते थे। शार्टकट इस तरह का कि श्रम कम लगे, माल ज्यादा मिले। माल समझ गयें न, माल। अपने ही लोगों ने श्रमेव जयते का नारा भी खारिज कर दिया।
देश का क्या होगा। देश बिना नारों के चलेगा कैसा। कोर्इ न कोर्इ ऐसा होगा ही जिसे यह हिम्मत करनी पड़ेगी। देश में अब बड़े महानुभावों और महात्माओं का भी अभाव था। इस शून्यता को कैसे भरा जाये?
रिश्वत सृषिट के बनने के समय भी थी। पहले आये नजराना, शुक्राना, मेहनताना, हकराना, जबराना फिर उपहार, उत्कोच जैसे शब्द घूस, रिश्वत के रूप में समय-समय पर सत्याग्रह की तरह टूटते, बिगड़ते और बनते रहे। लोग चोरी, छिपे और नजरे बचाकर लेते थे। कहीं-कहीं अंग्रेजी का रौबदाब 'कमीशन के रूप में बरस पड़ता था - सर इसमें इतना पर्सेन्ट कमीशन का होगा, ये बाते खुलकर इसलिए हो जाती थी कि अंग्रेजी का मामला है। हिन्दी में घूस लेने को बड़ी हिकारत से सिद्धान्त नवीस लोग देखते थे। ''वो रहा घुसहा बाबू ... हलांकि ये लोग अंग्रेजी के कमीशन, गिफट से कत्तर्इ परहेज नही करते थे। व्यवहार में लोग लेते थे, वह भी चोरी-छिपे। एक बात और घूस शब्द केवल बाबू के स्तर के करमचारी के लिए होता है। बकिया जितने भी अंग्रेजी शब्द हे वे अफसरों के लिए ही वाजिब होते है। ये पांच सौ से ऊपर की रकम के लिए होते है।
मुझसे रहा नही गया। यह ओढ़ी हुर्इ नैतिकता किस काम की। मैने आनन-फानन में '' रिश्वतमेव जयते" का नारा दे कर देश पर बड़ा अहसान किया। देश में नारे के अभाव का संकट दूर हो गया। वैसे भी हमारे महापुरूष पूर्वजों ने समय समय पर देश की अर्थव्यवस्था को सुधारने के उददेश्य से जो अच्छे एवं बुद्धिमानी के काम किये उनमें धन का गुप्त आदान प्रदान प्रमुख है। मनसा कर्मणा जो इस लेनदेन की पद्धति का अनुसरण करते है, वे सुखी रहते है, उनके बच्चे इन्जीनियर, अफसर और डाक्टर बनते हैं, घरवालियां भी तरह तरह के रंगों से अपने होंठ रंगती है, नाखूनों को संवारती है। धन के लेन देन को घूस या रिश्वत कहते है। रिश्वतमेव जयते .... अब क्या था, कहना ही क्या, ''रिश्वत सर्वत्र विराजयते"। दफतर का अफसर बोला ....... ठीक है आप दें अप्लीकेशन, नीचे से फार्इल चलवा लीजिए, मेरे पास आयेगी तो समझ लेंगे .....। नीचे से .. माने कल का सत्यवाची श्रमिक। नीचे वाला बोला - आप दस दफे आयेंगे, आने-जाने में खर्चा तो होगा ही, आप समझिये काम आपका है, और काम होना है। अब आप समझ गये हो तो आप का काम डन... । वरना ... दरअसल घूस वेतन संचयिका का काम करती है। वह साल के बारहों महीने अछूती या आप कहिये कुमारी कन्या बनी रहती है। कचहरियों, समाजसेवियों और मुंसिफाना काम करने वाले किसी भी जाति, रंग-रूप, मजहब के कर्मियों में भी अब इसकी पैंठ हो चुकी है।
रिश्वत भ्रष्टाचार की जवान बेटी है जो पूरे देश में घूम-घूम कर डोरे डाल रही है। जहां-जहां जाती है, वहीं लोगों को अपना बनाकर छोड़ आती है। शिक्षा, राजनीति, शासन, न्यायपालिका शायद ही कोर्इ महकमा बचा हो जहां यह न जाती हो। रिश्वत बाढ़ का पानी है। सारे तटबंधों को तोड़कर सामाजिक ढांचे को तहस-नहस करने पर अमादा है। पैसा लार्इए .. काम करार्इए .... ऐसे में प्रेमचन्द का बुधिया कहां टिकता है। ऐसी व्यवस्था में मान भी ले कि बुधिया कहीं या किसी स्तर पर अपना काम कराने में सफल हो जाता है तो उसकी किस्मत या पूर्व जन्म के संस्कार ही माने जायेंगे।
गिव एण्ड टेक ने डिवार्इड एण्ड रूल की जड़ों को और पुख्ता कर दिया है। दीमक से घुनी लकड़ी पर रंग-रोगन ...... मेरा भारत महान .... जय हो .... मुझे खुशी है कि मेरा दिया गया नारा सुपरहिट है।
मै जानता हूं कि जब किसी देश में मेहनत, नैतिकता और र्इमानदारी को अज्ञातवास मिला है, तब-तब रिश्वत ने ''शार्टकट" को जन्म दिया है।
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1 नाम: आर. के. भंवर (आर.के.सिंह)
2. जन्म तिथि: 01.07.1962
3. आवासीय पता सूर्य सदन, सी - 501सी, इंदिरा नगर, लखनऊ
4. सम्प्रति: उ0 प्र0 आवास एवं विकास परिषद, 104 महात्मा गांधी मार्ग, लखनऊ में प्रषिक्षण समन्वयक के पद पर कार्यरत
5. साहितियक लेखन से जुड़ाव वर्ष 1977 से
6. प्रकाषन: आवास संदेश- सरकारी पत्रिका का 09 वर्षो से सम्पादन
काव्य निलय - का सम्पादन
कृष्ण जैसा समझा, वैसा पाया - वैचारिक पुस्तक
बाघ - कहानी (हिन्दुस्तान प्रकाशन, लखनऊ)
लखनऊ से प्रकाशित समाचार पत्र राष्ट्रीय सहारा, हिन्दुस्तान, आज, कुबेर टार्इम्स, स्वतंत्र भारत, राष्ट्रीय स्वरूप में व्यंग्य रचनाओं का प्रकाषन
अटटहास, नैमिष-भूमि पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाषन
7 सांस्कृतिक गतिवधि नाटय लेखन ' आखिर कब तक , आम आदमी, म से मास्टरजी, आदि एवं उनके मंचन
विभिन्न सांस्कृतिक समारोहों का संचालन
राजनैतिक समारोहों की कम्प्येरिंग का कार्य
8. नवीन क्षितिज बच्चों के लिए 'बच्चा पार्टी नामक अखबार के प्रकाशन की कार्य योजना
9 सामाजिक कार्य: रेन वाटर हार्वेसिटंग पर कार्य
सन्मार्ग इंडिया नामक सामाजिक संगठन में प्रमुख कार्यकारी अधिकारी के रूप में विभिन्न सामाजिक सरोकारों से सम्बद्ध
लो-कास्ट एण्ड क्वालिटीबेस हाऊसिंग पर कार्य
10 शैक्षणिक कार्य यथार्थ, मानविकी एवं परिचय पर षिक्षा के उन्नयन एवं विकास से सम्बंधित कार्य योजना
विभिन्न शैक्षिक संस्थानों के विजन डाक्यूमेंट बनाने का कार्य
1 टिप्पणियाँ
रिश्वत भ्रष्टाचार की जवान बेटी है जो पूरे देश में घूम-घूम कर डोरे डाल रही है- बहुत सटीक और करारा....
जवाब देंहटाएंउम्दा लेखनी..बधाई.
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