क्यों दुत्कारते हो मुझे जब
ट्रैफिक लाइट पर इक गुब्बारा
बेचने की कोशिश करता हूँ मैं
स्कूल क्यों नहीं जाते
कह कर धिक्कारते हो
शौक नहीं है मुझे
लू के थपेड़ों में
या फिर ठिठुरती ठण्ड में
इक गाड़ियों का धुआँ खाने का
पर देख नहीं पाता,
मैं सुबह सुबह माँ को
लोगों के घर झाड़ू लगाते
बहन को दूसरों की जूठन धोते
सह नहीं पाता,
असफलता से हारे हुए बाप
को हर साँझ माँ को कोसते
और शराब के जहर में मरते
मैं भी चाहता हूँ स्कूल जाऊँ
तुम्हारे बेटे जैसा बड़ी सी कार में
बैठ आइसक्रीम खाऊँ
माँ की गोद में जा सो जाऊँ
पर मेरी नियति मुझसे रूठी है,
तभी मेहनत को भाग्य बनाया है
और खड़ा हूँ यहाँ दो पैसे कमाने को
ताकि माँ को दे सकूँ कुछ सकून
दीदी की बिदाई को जोड़ सकूँ कुछ धन
और बाप की परेशानी कुछ कर सकूँ कम
नहीं खरीद सकते इक गुब्बारा तुम
तो न खरीदना
पर धिक्कारना न मुझे,
मेरी मजबूरी को कामचोर
का लिबास न पहनाना.
11 टिप्पणियाँ
अच्छी कविता...बधाई
जवाब देंहटाएंगरीब बच्चों की मानसिक स्थिति को दर्शाती बहुत ही सुन्दर रचना ...!
जवाब देंहटाएंबधाई .... !!
पर देख नहीं पाता,
जवाब देंहटाएंमैं सुबह सुबह माँ को
लोगों के घर झाड़ू लगाते
बहन को दूसरों की जूठन धोते
बालश्रम का यह पहलू हमें बहुत कुछ सोचने पर मज़बूर करता है। महज़ भाषण देकर या बालश्रम के विरोध के नाम पर चंद बच्चों को काम से हटवा देने भर से यह समस्या हल नहीं होगी।
प्रभावी प्रस्तुति!
मार्मिक और ह्रदय स्पर्शी रचना !
जवाब देंहटाएंमुंशी प्रेम चंद की कहानी " ईदगाह " और जयशंकर प्रसाद की " छोटा जादूगर " याद आ गयी !
आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (04.06.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.blogspot.com/
जवाब देंहटाएंचर्चाकार:-Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)
स्पेशल काव्यमयी चर्चाः-“चाहत” (आरती झा)
पर देख नहीं पाता,
जवाब देंहटाएंमैं सुबह सुबह माँ को
लोगों के घर झाड़ू लगाते
बहन को दूसरों की जूठन धोते
सह नहीं पाता,
असफलता से हारे हुए बाप
को हर साँझ माँ को कोसते
और शराब के जहर में मरते
amita ji bahut sunder badhai
bachchon ki manobhavnaon ka sunder chitran kiya hai
badhai
अमिता कौण्दल की यह कविता मार्मिक होने के साथ ही सवाल खरे करती है -
जवाब देंहटाएंनहीं खरीद सकते इक गुब्बारा तुम
तो न खरीदना
पर धिक्कारना न मुझे,
मेरी मजबूरी को कामचोर
का लिबास न पहनाना.
और इन सवालों का उत्तर आराम का जीवन जीने वालों के पास नहीं है।
नहीं खरीद सकते इक गुब्बारा तुम
जवाब देंहटाएंतो न खरीदना
पर धिक्कारना न मुझे,
मेरी मजबूरी को कामचोर
का लिबास न पहनाना.
संवेदनशील भाव की सुन्दर प्रस्तुति अमिता जी - वाह.
सादर
श्यामल सुमन
+919955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
बहुत मार्मिक...एक गरीब के स्वाभिमान को बहुत सुंदरता से उकेरा है...
जवाब देंहटाएंपोस्ट पर देर से आने के लए मैं क्षमा चाहती हूँ आप सभी को मेरी कविता पसंद आई और सब के स्नेह्शब्दों के लिए हार्दिक धन्यवाद. आशा है आप सबका प्रोत्साहन यूँही मिलता रहेगा मेरी कविता को मंच देने के लिए साहित्याशिल्पी परिवार को भी हार्दिक धन्यवाद
जवाब देंहटाएंसादर,
अमिता कौंडल
sundar..
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.