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प्रतिबद्धता [कविता]- डॉ. वेद व्यथित



समय की प्रतिबद्धता कैसे कहोगे
जब समय के अश्व चलते हैं निरंतर
 सूर्य नभ में कब रहा है थिर हमेशा
और पूर्णिमा रही है कब निरंतर


पर समय तो चाल अपनी चल रहा है
यही है प्रति बद्धता उस की निरंतर |


ज्वार के कितने बवंडर उठ खड़े थे
दूर  मीलों तक नही जा कर रुके  थे
 लग रहा था छोड़ गहराई उठा है
जब किनारे दूर सागर के हुए थे


पर समन्दर शीघ्रता से लौट आया
यही है प्रति बद्धता उस की निरंतर |


गर्जना कर कर के वर्षा खूब की थी
जल मग्न करने को जागी  भूख उस की
प्रलयकारी जल  बहुत  उस ने गिराया
वही रीते हाथ हो कर अब खड़ा है


स्वच्छ  अपना  रूप फिर उस ने दिखाया
यही है प्रति बद्धता नभ  की निरंतर |


सुबह सूरज की किरण हर रोज आती
साँझ अपनी लालिमा हर दिन दिखाती
रात को तारे निरंतर जगमगाते
 रोज प्रात: काल पक्षी चहचहाते


बिन रुके पृथ्वी  धुरी  पर  घूमती है
यही है प्रतिबद्धता उस की निरंतर |


द्वंद जीवन में नये हर रोज आते
हृदय में वे शूल सा आकर चुभाते
मगर खुशियाँ भी कभी आती तो हैं
जो बहुत जल्दी से कितनी दूर जाती हैं


यही क्रम जीवन में होता है निरंतर
यही है प्रति बद्धता उस की निरंतर ||

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3 टिप्पणियाँ

  1. समय की गति के साथ जीवन को समझने की एक बेहतर कोशिश - सुन्दर।
    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  2. jivan bahta jata he nirantar..achhi kavita..

    जवाब देंहटाएं

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