आईना पूछता है चाहत मेरी
जब-जब बताता है हकीकत मेरी
हकीकत जानकर होती नहीं हिम्मत
मुझे कुछ मांगने की
कड़वाहट उस हकीकत की खत्म
करती जिज्ञासा और कुछ जानने की
तोड़ दू आईना और डाल दू
पर्दा उस सच्चाई पर
जो भारी पड़ जाती है
अक्सर मेरी हर अच्छाई पर
पर आत्ममूल्यांकन के साक्षी
उस आईने को मैं यू तोड़ नहीं सकता
और सच से इस तरह कभी मुख
अपना मैं मोड़ नहीं सकता।
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लेखक परिचय -
दस वर्षों से लगातार स्वतंत्र लेखन।
इस दौरान विभिन्न विषयों पर आलेख, कविता, व्यंग्य एवं पत्र देष के प्रतिष्ठित समाचार पत्रों नईदुनिया, राज एक्सप्रेस, दैनिक भास्कर, पत्रिका आदि में प्रकाषित होते रहे हैं।
इन्दौर से सन् 2005-06 में बैचलर ऑफ जर्नलिज्म एण्ड मॉस कम्यूनिकेषन की परीक्षा भी उत्तीर्ण की है।
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2 टिप्पणियाँ
अच्छी कविता है।
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता..बधाई
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.