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आज फ़िर जीने की ख्वाहिश जागी है [ग़ज़ल] - दिवाकर ए. पी. पाल

आज फ़िर जीने की ख्वाहिश जागी है;
आज फ़िर एक सुहाना ख्वाब देखा था.

सुबह के धुंधलके में, लालिम रोशनी के साथ;
एक नई मंज़िल का साथ देखा था.

एक पुराना मर्ज़ था, सीने में दबा-सा;
उसका ही खातिब, इलाज़ देखा था.

मरासिमों के फ़ंदे, घुटन दे रहे थे;
मरासिमों से खुद को आज़ाद देखा था.

सेहर नया है, नई इक सोच है;
इस सोच से मुखातिब, खुद को एक बार देखा था.

आज फ़िर जीने की ख्वाहिश जागी है,
आज फ़िर एक सुहाना ख्वाब देखा था..

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7 टिप्पणियाँ

  1. सुबह के धुंधलके में, लालिम रोशनी के साथ;
    एक नई मंज़िल का साथ देखा था.
    अच्छी सोच और अच्छी रचना

    जवाब देंहटाएं
  2. माफी चाहता हूँ मगर ये रचना ग़ज़ल नहीँ है
    क्योँकि इसमेँ काफिया तो कहीँ दिख ही नहीँ रहा

    जवाब देंहटाएं
  3. इस पूरी रचना मेँ Ghazal का कोई भी Rule follow नहीँ हुआ है।

    ना इसमेँ काफिया है
    ना मतला है
    ना शे'र बह्र (Bahr) मेँ हैँ

    ये किसी भी तरह से ग़ज़ल नहीँ कही जा सकती है
    और
    कविता भी नहीँ कही जा सकती है

    जवाब देंहटाएं
  4. siraz ji se sahmat hoon. aisee rachnaon ko akavita hee kaha ja sakta hai.

    जवाब देंहटाएं
  5. Ji.. Apke sujhaaw yaad rakhunga... waise, main bhi ise kavitaa hi kahna chahunga..

    जवाब देंहटाएं
  6. आदरणीय दिवाकर ए पी पाल जी

    आपकी विनम्रता प्रशंसनीय है …

    आप श्रेष्ठ रचनाकारों की ग़ज़लें ( अन्य रचनाएं भी ) ध्यान से पढ़ें , बार बार पढ़ें तो आपको स्वयं ही बहुत कुछ समझा आता जाएगा । मां सरस्वती से मांगना भी लाभकारी रहेगा … :)

    सृजन ईश्वर की आराधना से कम नहीं होता ।


    हार्दिक शुभकामनाएं !

    - राजेन्द्र स्वर्णकार

    जवाब देंहटाएं

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