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रूपान्तरण [कविता]- अशोक कुमार शुक्ला



तपते रेगिस्तान में
पानी की कामना जैसी
धुप्प अंधेरे में
रोषनी की किरण फूटने जैसी
मॉ से बिछडे हुए
किसी अबोध का मिलने पर
मॉ की छाती से चिपककर रोने जैसी
मंझधार में डूबते हुए को
किनारा पाकर मिलने वाली संतुश्टि जैसी
कुछ ऐसी ही तो थी
उस इक्कीसवें बसंत की कल्पना
लेकिन यथार्थ की कठोरता
जब तमाचा बनकर
मेरे गालों पर पडीं
तब मैने जाना कि
चॉदनी रात कैसे आग उगलती है?
 चंदन का आलिंगन
कितना जहरीला हो सकता है?
दिये की लौ
कैसे झुलसा सकती है?
प्रेम की आसक्ति
कितना लाचार कर सकती है?
चहचहाती चिडिया
एक पल में सहम कर मौन हो सकती है
निरीह मेमना
मिमियाकर तुरंत निस्तेज हो सकता है
अगर वह भी 
किसी कसाई के साथ हो

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4 टिप्पणियाँ

  1. निरीह मेमना
    मिमियाकर तुरंत निस्तेज हो सकता है
    अगर वह भी
    किसी कसाई के साथ हो

    इस कल्पनाशीलता नें सिहरा दिया।

    जवाब देंहटाएं
  2. एक पल में सहम कर मौन हो सकती है
    निरीह मेमना
    मिमियाकर तुरंत निस्तेज हो सकता है
    अगर वह भी
    किसी कसाई के साथ हो
    sunder soch mujhe bahut hi achchhi lagi ye kavita
    rachana

    जवाब देंहटाएं
  3. बिलम्ब से टिपण्णी लिखने के क्षमा चाहता हू.
    रचनाजी , अभिषेक जी तथा सुषमाजी को हार्दिक धन्यवाद्
    कि आप सब ने अपनी टिपण्णी लिखकर प्रोत्साहित किया

    अशोक कुमार शुक्ला

    जवाब देंहटाएं

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