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अजायब घर में रखा हुआ इन्सान [कविता]- राजीव कुमार पांडेय

जब गुजर कर सफ़र से थक जाता हूँ मै
तब-तब उस गाँव के पुराने घर जाता हूँ मै

गाँव के आम के बगीचे में जितना हम तोड़ कर फेंक दिया करते थे,
उससे बहुत कम इस शहर में पैसे के बराबर तौल कर लाता हूँ में ..

जब भी मिलता हूँ इस शहर में किसी से बनकर के अपना,
वो कहता है रुकिए अभी दिल बदल कर आता हूँ मै .

हर मोड़ पे अनशन और बंदी ही देखा है इस शहर,
और हर कोई कहता है कि रुकिए मै सता बदलकर आता हूँ मै ,

जिनके घरों में कुते भी पहनते हैं विदेशों की "टाइयाँ",
कहते हैं वे भी कि देश से प्रेम है इस लिए खादी पहनकर आता हूँ मै,

अपने उसूलों को अब भी  बचा कर के रखा है हमने ,
शायद इस लिए लोग दूर हो जाते हैं जिधर जाता हूँ मै ,

लोगों को आदमी नही
अजायब घर में रखा हुआ इन्सान नजर आता हूँ मै ...

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2 टिप्पणियाँ

  1. जब भी मिलता हूँ इस शहर में किसी से बनकर के अपना,
    वो कहता है रुकिए अभी दिल बदल कर आता हूँ मै .
    bahut sunder bhav
    rachana

    जवाब देंहटाएं

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