
तेजेंद्र शर्मा की कहानी ‘पासपोर्ट का रंग’ एक ऐसे व्यक्ति की मार्मिक कहानी है जिसे मजबूरी में ब्रिटेन की नागरिकता लेनी पड़ी है। यह पीढियों की सोच और उनके मूल्यों के बीच की खाई को प्रदर्शित करने वाली कहानी है। जहाँ पुरानी पीढ़ी अतीत से अपने अनुभव निकाल कर वर्तमान को उन्हीं के आधार पर तौलती-परखती है, वहीं नई पीढ़ी वर्तमान को अपना सब कुछ माने बैठी है। उसके लिए जीवन की बेहतर सुख-सुविधा अधिक मायने रखती है। उसकी सोच में प्रगति की झलक है। अतीत में जो हुआ वह बीत चुका है उसे बदला नहीं जा सकता है और उसी का रोना रोते रहने से प्रगति नहीं होगी यह वह अच्छी तरह से जानता है। उसने भी स्वतंत्रता का मोल चुकाया है मगर वह पुरानी पीढ़ी से भिन्न है। भारतीय पुरानी पीढ़ी ने स्वतंत्रता के लिए आंदोलन किया और उसके लिए सजा पाई, गोली खाई। और जब आजादी मिली तो टुकड़ों में तथा उसकी कीमत भी उसे चुकानी पड़ी। उसे विस्थापन भोगना पड़ा। वह घर से बेघर हो गया। अपने ही देश में पराया हो गया क्योंकि बँटवारे की आग ने आदमी को हैवान बना दिया था। “गोपाल दास के लिए लाहौर से दिल्ली आना मजबूरी थी। अपनी जन्मभूमि को छोड़ना उस समय उन्हें बहुत परेशान कर रहा था। किंतु कोई चारा नहीं था। वहाँ किसी पर विश्वास नहीं बचा था। दोस्त दोस्त को मार रहे थे। हर आदमी या तो हिन्दु बन गया था या फ़िर मुसलमान। रिश्ते जैसे खत्म ही हो गए थे। सभी इंसान धार्मिक हो गए थे और जानवर की तरह बर्ताव कर रहे थे।” कहानीकार ने यहाँ धार्मिक के साथ जानवर शब्द का प्रयोग विशेषण विपर्यय के रूप में किया है। जिससे उस काल के उन्माद का पता चलता है।
बहरहाल गोपालदास जी के जीवन की विडंबना है कि उन्हें एक बार फ़िर से दर-ब-दर होना पड़ा है। पत्नी के गुजरने के बाद उन्हें उनका बेटा इंद्रेश अपने पास इंग्लैंड ले आया है। बेटी शादी के बाद अमेरिका में है। आज भारत के अधिकाँश माता-पिता की यही स्थिति है। बच्चे बेहतर अवसरों की तलाश में प्रवासी हो गए हैं और वृद्ध माता-पिता उनके लिए आँखें बिछाए देश में ही प्रतीक्षा कर रहे हैं अथवा मजबूरी में अपने बच्चों के साथ विदेश में लटके हुए हैं। जहाँ न उनके विचार मिलते हैं न मूल्य और न ही जीवन शैली। एक दुनिया: समानांतर में राजेन्द्र यादव कहते हैं, कहानी का कोई भी पात्र अपने आपमें कुछ नहीं होता है, किसी-न-किसी का प्रतीक होता है। गोपाल दास प्रतीक हैं उन सारे लोगों के जिन्हें मजबूरी में किसी अन्य देश की नागरिकता लेनी पड़ती है। जिनके लिए यह मजबूरी उनके सीने पर बोझ बन जाती है। वे आम आदमी का प्रतीक हैं।
स्वतंत्रता की कीमत युवाओं ने भी अदा की है। अपेक्षा थी कि भारत एक बार अंग्रेजों की गुलामी से छूट जाएगा तो देश में खुशहाली होगी। सबका जीवन सुखी होगा। लोगों ने स्वतंत्र भारत के बहुत सुहावने स्वप्न देखे थे। मगर जल्द ही उनका मोहभंग हो गया। अत: जिससे भी जैसे भी बन पड़ा बेहतर भविष्य की तलाश में प्रवास पर निकल पड़ा। हाँ, इसको युवा पीढ़ी ने मजबूरी के तौर पर नहीं लिया और जहाँ गए वहाँ के जीवन को अपनाने का प्रयास करने लगे। इसके लिए उन्हें जो भी समझौते करने पड़े उन्होंने उसे सहजता से जीवन की परिहार्यता मान कर स्वीकारा। उन्हें परदेश से ज्यादा शिकायतें न थीं। जरूरत पड़ी तो प्रवास देश की नागरिकता ग्रहण करके वहीं बस गए। पुरानी पीढ़ी की बातें नई पीढ़ी को भावुकता लगती है। साहित्यकार तथा आलोचक अजय नावरिया इस कहानी पर लिखते हुए कहते हैं कि वर्तमान समय में भावुकता के लिए कम-से-कम दया और ज्यादा-से-ज्यादा खीज है। यही खीज बेटे इंद्रेश की बातों में सुनाई देती है। बहु सरोज के मन में अपने स्वसुर के लिए दया है। मगर गोपालदास जैसे लोगों के लिए यह मजबूरी है। जिस ब्रिटिश साम्राज्य को निकाल भगाने के लिए उन्होंने अपनी बाँह में गोली खाई उसी ब्रिटिश नागरिकता के लिए उन्हें महारानी की वफ़ादारी की शपथ उन्हें लेनी पड़ती है। वे शपथ ले तो लेते हैं मगर यह उनकी मानसिक व्यथा का कारण बन जाता है। वे खुद को धिक्कारते हैं। यह आघात उनके मर्म पर लगा है। उनका खाना-पीना सब छूट जाता है।
गोपलदास का चरित्र निर्माण करने के विषय में स्वयं तेजेन्द्र शर्मा का कहना है, “ बाऊजी की यह छवि मेरी बहुत सी कहानियों में दिखाई देती है। ‘पासपोर्ट के रंग’ कहानी के बाऊजी का पूरा चरित्र मैंने अपने बाऊजी पर आधारित किया है जबकि मेरे बाऊजी मेरे ब्रिटेन प्रवास करने से बहुत पहले ही स्वर्गवासी हो गए थे।” पाठक के मन में सहज जिज्ञासा उठती है कि कैसे थे तेजेन्द्र शर्मा के पिता, तेजेन्द्र खुलासा करते हैं, “बाऊजी की खासियत ही उनकी कमजोरी भी थी। बाऊजी जरूरत से ज्यादा ईमानदार व्यक्ति थे। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उनकी बाई बाजू में गोली लग गई थी। पाठक देखता है कि यही गोली गोपालदास को भी लगी है।
बेटे की सोच आधुनिक है, वह अधिक व्यावहारिक है। अंग्रेजों ने जो जुल्म भारतीयों पर किए थे उसी को याद करके जीवन को वहीं ठहराए रहने के पक्ष में इंद्रेश नहीं है। पुरानी बातें भूल कर बेटा जब लाइफ़ आगे बढ़ाने की बात कहता है तो पिता का कहना है, “ – बेटा तू नहीं समझ सकता। मेरे लिए ब्रिटेन की नागरिकता लेने से मर जाना कहीं बेहतर है। मैंने अपनी सारी जवानी इन गोरे साहबों से लड़ने में बिता दी।...जेल में रहा। मुझे तो फ़ाँसी की सजा तक हो गई थी।” जहाँ पिता के मन में द्वंद्व है, वहीं बेटे के मन में कोई द्वंद्व नहीं है। हाँ, पिता को लेकर वह जरूर चिन्तित है। दोनों अपनी-अपनी जगह सही हैं। दोनों के अनुभव भिन्न हैं जीवन का नजरिया भिन्न है। बेटा दूसरी दुनिया में रह रहा है, उसने नए जीवन को सहजता से स्वीकार कर लिया है। उसे ब्रिटिश पासपोर्ट की मात्र अच्छाइयाँ नजर आ रही हैं वह कहता है कि ब्रिटिश पासपोर्ट हो तो वीजा की जरूरत नहीं होती है। मजे से जब चाहो हवाई टिकट लो और किसी भी देश में घूँम आओ। शायद उसके मन में घूँमने-फ़िरने के लिए मौज मस्ती के लिए यूरोप और अमेरिका के तमाम देश हैं। मगर भारत नहीं है, क्योंकि वह भूल जाता है कि भारत आने के लिए वीजा की आवश्यकता पड़ती है। यह बात गोपालदास कैसे भूलते उन्हें तो केवल और केवल भारत आना है। वे भारत लौटने के लिए विझुब्ध हैं। उन्हें यह बात कचोटती है कि अपनी जन्मभूमि के लिए उन्हें वीजा लेना होगा। उन्हें जब इसकी कोई सूरत नहीं नजर आती है तो वे कामना करते हैं कि कोई ऐसी जुगत हो कि दोनों देशों की नागरिकता मिल जाए।
बिल्ली के भागों छींका टूटा। उनकी कामना में अवश्य बल रहा होगा, गोपालदास स्टार टीवी और ज़ी टीवी पर भारत की खबरें सुनते रहते थे। भारत के बारे में भारतवासियों से अधिक गोपालदास जी को खबर रहती। और एक दिन कमाल हो गया, प्रवासी दिवस पर प्रधानमंत्री ने दोहरी नागरिकता की घोषणा कर दी। गोपालदास की खुशी का अंदाजा लगाया जा सकता है। आम आदमी को सत्ताधारी लोग ऐसे ही छोटे-छोटे झुनझुने थमाते रहते हैं जिनसे आम आदमी खुश होकर तमाम उम्मीदें पाल लेता है। पहले पाँच देशों के प्रवासियों के लिए दोहरी नागरिकता की घोषणा होती है, शुक्र है ब्रिटेन उनमें से एक है। गोपालदास जी के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे हैं। वे आनन-फ़ानन में दोहरी नागरिता लेकर फ़िर से भारत के नागरिक बन जाने के स्वप्न पालने लगते हैं। मगर घोषणाओं को इतनी जल्दी अमली जामा नहीं पहनाया जाता है। बीच में लालफ़ीताशाही भी होती है। एक्ट बनने की लम्बी प्रक्रिया तो होती ही है।
वे उस पीढ़ी के हैं जिसका केवल काँग्रेस पर पहले बड़ा भरोसा था मगर अब काँग्रेस से जिनका भरोसा उठ चुका है। वे कहते हैं, “यार ये कोई काँग्रेसी प्रधानमंत्री नहीं है। यह करेक्टर वाला बंदा है।” मगर समय के साथ-साथ गोपालदास जी का धैर्य चुकने लगता है। अगले प्रवासी दिवस पर वे वीजा लेकर भारत आ जाते हैं, सोचते हैं प्रवासी दिवस में खुद भाग लेकर स्थिति का सही जायजा लेंगे। उन्हें एक और झटका लगता है। प्रवासी दिवस में भाग लेने के लिए तगड़ी फ़ीस लगती है। ऐसा नहीं है कि वे यह फ़ीस नहीं भर सकते हैं मगर यह उन्हें अपमानजनक लगता है। यह बात उन्हें और भी ज्यादा खटकती है कि सारा कार्यक्रम अंग्रेजी में होता है। असल में प्रवासी दिवस उन जैसे आम लोगों के लिए नहीं है वह तो संमृद्ध, व्यवसायी प्रवासियों को देश में पूँजी लगाने के लिए आमंत्रित करने का आयोजन है। आज भारत सरकार और सत्ता संस्थान प्रवासियों को सम्मान दे रहे हैं, परंतु यह आर्थिक कारणों से अधिक हो रहा है। बात आर्थिक मुद्दों पर ही समाप्त हो जाती है। दोहरी नागरिकता का प्रवधान धनी-मानी प्रवासियों को ध्यान में रखकर बनाया गया है। इससे तमाम गरीब प्रवासी जो विभिन्न देशों में बद्तर हालत में रह रहे हैं मेहनत मजदूरी करके किसी तरह अपना पेट पाल रहे हैं, अपना पेट काट कर थोड़ी बहुत रकम अपने घर वालों की सहायता के लिए भेज पाते हैं उनका कोई भला करने के लिए यह या ऐसी कोई भी योजना किसी भी पार्टी की सरकार नहीं बनाती है। उसके एजेंडे पर गरीब-मजबूर प्रवासी नहीं होता है। सरकार और प्रकाशकों का यही नजरिया रचनाकारों के प्रति भी कमोबेश यही है। चूँकि अंग्रेजी रचनाकारों का बाजार है अत: उनकी पूछ है, हिन्दी का लेखक उसका पुअर कजिन है जिसकी ओर कोई ध्यान नहीं देना चाहता है न ही सरकार और न ही प्रकाशक। पासपोर्ट का रंग में लेखक बिना बड़बोलेपन के ये बातें चुपचाप कहानी में इंगित कर देता है।
कहानी तब प्रारंभ होती है जब पासपोर्ट और वीसा के नियम आज से भिन्न थे। कहानी की समाप्ति तक नियमों में काफ़ी बदलाव आ चुका होता है। इस दृष्टि से यह कहानी अपने छोटे कलेवर में एक बड़ी कहानी है। संवेदना और अनुभूति के स्तर पर इसमें सघनता और गहराई दोनों हैं। इस कहानी की वास्तविकता के बारे में चाहे कुछ भी कहा जाए, यह अपने सच होने का पूरा-पूरा अहसास उत्पन्न करती है। रचनाकार जिस भूखंड और समाज से परिचित है उसने उसे ही कहानी का घटना स्थल बनाया है। गौरतलब है कि तेजेन्द्र शर्मा भारत में रहते हुए भी कहानियाँ लिख रहे थे। वे ११ दिसम्बर १९९८ से लंदन में रह रहे हैं और उन्होंने ब्रिटेन की नागरिकता भी ले ली है। इसलिए लेखक के रूप में वे भारत और लंदन दोनों भूखंड़ों और समाज से परिचित हैं। लंदन में अक्सर बहुत से भारतीय अपने-अपने समाजों में ही सिमटे रहते हैं जैसे गुजराती, पंजाबी, हिन्दु, मुसलमान। मगर तेजेन्द्र के अनुसार उनकी मित्र मंडली में हिंदु-मुसलमान तो हैं ही कई अंग्रेज भी हैं। एक साक्षात्कार में वे बताते हैं, “हां, भारतीय लोग जरूर खेमों में बंटे हुए हैं। कोई गुजराती है तो कोई पंजाबी, कोई हिन्दु है तो कोई मुसलमान! मेरे दोस्तों में अंग्रेज भी हैं, काले भी हैं और दक्षिण एशियाई मूल के लोग भी हैं। लंदन के कॉलिडेल क्षेत्र की काउंसलर श्रीमती ज़किया ज़ुबेरी उनके मित्रों में शामिल है। वे उनके व्यक्तित्व से खासे प्रभावित हैं यह वे स्वयं स्वीकार करते हैं। दोनों मिल कर हिन्दी-उर्दू के प्रसार-प्रचार के लिए कई कार्यक्रम चलाते हैं। वे साफ़ तौर पर स्वीकार करते हैं, “ज़किया जी की दुनिया से हुए परिचय ने ही ‘एक बार फ़िर होली’, ‘कब्र का मुनाफ़ा’, ‘तरकीब’, ‘होमलेस’ जैसी कहानियाँ लिखने की प्रेरणा दी। कई चर्चित और बेहतरीन कहानियाँ लिखी हैं।”
‘पासपोर्ट’ कहानी पर एक बार पुन: लौटें। कहानी में अगले प्रवासी दिवस पर प्रधानमंत्री ने दोहरी नागरिकता के लिए देशों की संख्या बढ़ा अब वह पाँच से बढ़ कर सोलह देशों के भारतीय प्रवासियों के लिए घोषित की जा चुकी थी। गोपालदास जी प्रधानमंत्री से मिलने का प्रयास करते हैं लेकिन प्रजातंत्र के प्रधानमंत्री से मिलना कोई हँसी-खेल नहीं है। खूब भागदौड़ कार्ने के बाद वे अपने नए देश लौट आते हैं। प्रजातंत्र की विशेषता है कि इसके सत्ता समीकरण बदलते रहते हैं कब और कितने दिन कौन-सी पार्टी सत्ता में रहेगी बताना मुश्किल है। सरकार बदलते ही पुरानी सरकार द्वारा किए सारे वायदे झाड़-बुहार कर बाहर कर दिए जाते हैं और नए वायदों की घोषणा होने लगती है। भारत की सरकार भी बदल गई। काँग्रेस पुन: सत्ता पर काबिज हो गई। गोपालदास जी मन को दिलासा देते हैं कि इस बार काँग्रेस है तो क्या हुआ प्रधानमंत्री तो एक खालसा है। “खालसा को प्रधानमंत्री के रूप में देख कर गोपाल दास जी के मन में उम्मीद और गहरी बँधने लगी थी। गुरु साहब ने खालसा बनाया ही इसलिए था कि हमारी रक्षा कर सके।” गोपाल दास जी कुछ दिन और रुक जाते तो देखते कि खालसा कैसा कठपुतली है। वे तर्क के आधार पर व्यक्ति को उतना नहीं परखते हैं जितना कि उसके धर्म, आस्था, पार्टी, मिथकीय कथाओं के आधार पर परखते हैं। उनके लिए व्यक्ति से ज्यादा उसका धर्म, उसकी कौम महत्वपूर्ण है। साथ ही वे अपने अनुभवों का सहारा लेते हैं जो एक तरह से उचित है। मगर वे अपने अनुभवों का साधारणीकरण करते हैं और जीवन तथा परिस्थितियों को उसी चश्मे से देखते हैं। जबकि सामान्यीकरण अक्सर गलत नतीजे देता है। ये सब पर लागू नहीं हो सकते हैं।
गोपालदास जी के जीवन की सूई एक ही स्थान – दोहरी नागरिकता – पर रुक गई। वे अब दिन रात यही सोचते-बोलते। कितना सुनते लोग। परिवार चिंतित है मगर बाहर के लोग, दोस्त उन्हें पागल करार देने लगे। इसी बीच खबर आई कि प्रवास मंत्रालय बन गया है और प्रवास मंत्री अपने हाथों से ऑस्ट्रेलिया में दोहरी नागरिकता के फ़ॉर्म बाँट रहे हैं। समाचारों पर से उनका विश्वास उठ गया था अत: उस दिन घर लाकर अखबार खूब ध्यान से पढ़ते हैं। यहाँ मीडिया के बढ़ा-चढ़ा कर खबर को प्रदर्शित करने पर तेजेंद्र कटाक्ष के रूप में प्रस्तुत करते हैं। आम आदमी भी मीडिया की विश्वसनीयता को लेकर सशंकित है। इस बार खबर सच्ची थी। गोपालदास जी को तसल्ली होती है, “अब मेरा अशोक के शेर वाला नीला पासपोर्ट एक बार फ़िर से जीवित हो उठेगा। केवल पासपोर्ट का रंग नीले से लाल होने पर इंसान के भीतर कितनी जद्दोजहद शुरु हो जाती है।” वे निरंतर आशा-निराशा के झूले में झूल रहे हैं।
किसी तरह बेचैनी में रात कटती है, अगली सुबह वे सीधे भारतीय उच्चायोग के दरवाजे पर थे। मगर वहाँ इस तरह की कोई सुनगुन न थी। ऑफ़िस में दोहरी नागरिकता के लिए कोई फ़ॉर्म उपलब्ध न था। वे इसे अफ़सरशाही की चाल सोचते हैं। उन्हें लगता है कि इन लोगों को सरकार से अपनी कोई माँग मनवानी होगी इसीलिए ये लोग काम रोके हुए हैं। अकसर प्रजातंत्र में सरकार से अपनी माँग मनवाने का तरीका असहयोग है। अब तक गोपालदास जी का धैर्य जवाब दे चुका था। उनका अनुभव करता था कि अफ़सरशाही हमेशा ही आम आदमी की राह में रुकावटें पैदा करती रहती है। वे ऑफ़िस के लोगों से लड़ पड़े। बात इतनी बढ़ गई कि सुरक्षा कर्मचारी उन्हें बाहर निकालने आ गए तभी एक परिचित ने उन्हें बचाया और घर जाने की सलाह दी। वे आहत मन घर की ओर चलते हैं रास्ते में उन्हें तरह-तरह के विचार परेशान करते हैं। वे खुद को इतना परेशान, लाचार और बेबस अनुभव करते हैं कि उनके मन में आत्महत्या का विचार आता है। किसी तरह वे घर पहुँचते हैं। उनके मन में इतनी ग्लानि, हताशा है कि उनका चेहरा बहु सरोज को देख कर और सकपका जाता है उन्हें लगता है कि कहीं सरोज को ऑफ़िस में हुई अपमान-जनक स्थिति का पता चल गया तो क्या होगा। वे अपनी ही निगाह में गिर जाते हैं, उनका आत्मसम्मान भहरा चुका है। वे सरोज की लाई चाय पीकर अपने कमरे में चले जाते हैं।
बेटा इंद्रेश जब काम से लौटता है तो सरोज को बताता है, “सरोज, बाऊजी की तबीयत शायद ज़्यादा बिगड़ती जा रही है। आज हाई कमीशन में जाकर नाटक कर आए हैं। त्रिलोक का फ़ोन आया था मुझे।” बेटे को ऑफ़िस में हुई अप्रिय घटना की सूचना मिल गई है। मगर उसने भी पिता को पागल सोच- समझ लिया है वह पागल शब्द का प्रयोग नहीं करता है मगर बीमारी से उसका स्पष्ट तात्पर्य पागलपन से ही है। पिता ने जो किया वह उसे उनका जायज़ काम नहीं लगता है, उसे नहीं लगता है कि कोई मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति ऐसा काम कर सकता है इसीलिए पिता का काम उसे नाटक लगता है। सरोज ज्यादा संवेदनशील है वह पहले भी इंद्रेश से कहती है, “जब बाऊजी को पसंद नहीं तो क्यों उनकी नागरिकता बदलवाई जाए। लेकिन इंद्रेश ने किसी की नहीं सुनी।” आज भी वह कहती है, “देखिए आज कुछ कहिएगा मत। हाई कमीशन से बहुत परेशान लौटे हैं। मुझे पता नहीं था कि वहाँ गए थे। लेकिन चेहरा देख कर मुझे लगा कि बहुत निराश दिखाई दे रहे हैं। आप कल समझा दीजिएगा। डिनर टेबल पर कुछ मत कहिएगा।”
पाठक सोचता है कि अब बाप बेटे में कुछ बाता-बाती होगी, बेटा अपने अपमान की बात कहेगा, पिता अपने आहत मन को खोलेगा। मगर जब पोती बाबा को खाना खाने के लिए बुलाने के लिए उनके कमरे में जाती है तो वहाँ कोई और ही दृश्य उपस्थित है। जो पाठक की अपेक्षा से बिल्कुल अलग है। “गोपालदास जी एकटक छत को देखे जा रहे थे। उनके दाएँ हाथ में लाल रंग का ब्रिटिश पासपोर्ट था और बाएँ हाथ में नीले रंग का भारतीय पासपोर्ट। उन्होंने ऐसे देश की नागरिकता ले ली थी जहाँ के लिए इन दोनों पासपोर्टों की जरूरत नहीं थी।” उन्होंने ऐसे देश की नागरिकता ले ली थी जहाँ के लिए इन दोनों पासपोर्टों की जरूरत नहीं थी।’ यदि यह वाक्य कहानीकार खुद न लिख कर पाठकों और आलोचकों पर छोड़ देता तो कहानी और सुगठित, सारगर्भित बनती। खैर।
कहानी का अंतिम वाक्य समय, समाज और सत्ता की विडंबना पर एक सटीक वाक्य है। इधर गोपालदास की मृत्यु की बात परिवार को ज्ञात होती है, उधर “स्टार न्यूज पर पगड़ी पहने नए प्रधानमंत्री अपनी मूँछों में मंद-मंद मुस्कुराते हुए घोषणा कर रहे थे कि अब विदेश में बसे सभी भारतीयों को दोहरी नागरिकता प्रदान की जाएगी।” तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री की बड़ी सटीक तस्वीर खींची है लेखक ने।
कहानी का अंतिम वाक्य समय, समाज और सत्ता की विडंबना पर एक सटीक वाक्य है। इधर गोपालदास की मृत्यु की बात परिवार को ज्ञात होती है, उधर “स्टार न्यूज पर पगड़ी पहने नए प्रधानमंत्री अपनी मूँछों में मंद-मंद मुस्कुराते हुए घोषणा कर रहे थे कि अब विदेश में बसे सभी भारतीयों को दोहरी नागरिकता प्रदान की जाएगी।” तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री की बड़ी सटीक तस्वीर खींची है लेखक ने।
प्रवासी रचनाकारों पर अक्सर आरोप लगता रहता है कि वे भावुकता की, नॉस्टल्जिया की कहानियाँ लिखते हैं। भारत का गुणगान ही उनका मुख्य विषय होता है। वे रहते विदेश में हैं पर बातें सदा भारत में स्वर्णिम जीवन की करते हैं। उन्हें दूर रह कर यहाँ का सब कुछ बहुत अच्छे रूप में याद आता है। उनकी कहानियों में वहाँ का समाज, वहाँ का जीवन भारत के जीवन को और अच्छा, और महान दिखाने के लिए पृष्ठभूमि के रूप में ही अधिकतर आता है, जैसे सुनार स्वर्णाभूषण प्रदर्शित करने के लिए गहरे रंग के मखमल का प्रयोग करता है ताकि आभूषण खिल कर दिखाई दे। विदेश में सब कुछ बुरा ही है तब मन में प्रश्न उठता है कि ये वहाँ गए ही क्यों जबकि ये मनमर्जी से गए हैं किसी मजबूरी में बँधुआ बन कर नहीं। यह आरोप काफ़ी हद तक कुछ प्रवासी कहानीकारों के विषय में सही भी हैं। मगर सबको एक ही लाठी से नहीं हाँका जा सकता है। तेजेन्द्र ने लंदन में मुहिम चला रखी है। एक साक्षात्कार में वे कहते हैं, “मैंने एक मुहिम शुरु की कि हिन्दी कथाकारों को अपने साहित्य में ब्रिटेन के सरोकार लाने होंगे। मैंने ब्रिटेन में बसे भारतीयों के जीवन को समझने का प्रयास किया है। यहाँ के श्वेत लोगों से दोस्तियाँ शुरु की ताकि उनके जीवन को समझने का मौका मिल सके। अंग्रेजों के घर को भीतर से देखा। उनके दिल में झाँकने की कोशिश की।”
कहानी के विषय में अजय नावरिया का कहना है कि ‘पासपोर्ट का रंग’ कहानी तेजेन्द्र शर्मा के राजनैतिक दृष्टिकोण का भी परिचय देती है। वे कहते हैं, “इस दृष्टि में एक स्पष्टता है कि राजनीति वित्त प्रेरित और स्वार्थ आधारित है। इसमें कोई दलीय विचारधारा विरोध नहीं रखती।” आज प्रवास के नियम बदल चुके हैं। संचार और यातायात के संसाधनों में भी नित नए परिवर्तन हो रहे हैं। ऐसे समय में प्रश्न उठता है कि भविष्य में इस कहानी का क्या महत्व होगा? तो जरा ध्यान दिया जाए तो देखा जा सकता है कि इस कहानी का ऐतिहासिक तथ्यों को दर्ज करने केलिए सदा-सदा महत्व रहेगा। यह कहानी एक ऐसे कथानक पर आधारित है जो दिखाती है कि एक समय था जब प्रवास के नियम भिन्न थे और उन नियमों का आम आदमी के जीवन पर दारुण प्रभाव पड़ता था। इसकी संवेदनशीलता पाठक को सदैव विचलित करेगी, उसे प्रवासी के दु:ख-दर्द में भागीदार बनाएगी। तेजेन्द्र शर्मा की कथन की रवानी और छोटे-छोटे मगर सारगर्भित संवाद कहानी को प्रभावशाली बनाते हैं। कहानी पाठक पर एक विशिष्ट छाप छोड़ती है।
यमुनानगर में इस कहानी पर आधारित नाटक देखना अपने आप में एक भिन्न अनुभव था। डी ए वी कॉलेज की छात्राओं ने भाव प्रवण अभिनय से कहानी को जीवंत कर दिया था।
2 टिप्पणियाँ
Yeh samisha warson purv dekhi gayi film saransha ki yaad dila gayi. Sundar bhawpurn samisha ke liye dhanyawad
जवाब देंहटाएंअच्छी समीक्षा...बधाई
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