
सारी ख़ामोशियों की हदें पार कर.
यूँ तो जीते रहे रोज़ मर मर के हम
कर रहे हैं अभी एक गिनती मगर
मुस्कराता था वो ऐसे अँदाज़ से
जैसे ज़ख़्मों से उसका भरा हो जिगर.
कितने रौशन सभी के है चेहरे यहां
मन में उनके बसा है अंधेरा मगर
ज़िंदगी ने मुझे है बहुत जी लिया
सीख पाई न उससे कभी ये हुनर.
दीन ईमान दुनियां में जाने कहां
पांव इक है इधर, दूसरा है उधर.
तीर शब्दों के ऐसे निकलते रहे
छेदते ही रहे जो हमारा जिगर.
ज़िंदगी को कभी भी न समझे थे हम
ख़्वाब थी, ख़्वाब ही में गई वो गुज़र.
डर की आहट न देवी कभी सुन सकी
सामने मौत आई तो देखा था डर.
11 मई 1949 को कराची (पाकिस्तान) में जन्मीं देवी नागरानी हिन्दी साहित्य जगत में एक सुपरिचित नाम हैं। आप की अब तक प्रकाशित पुस्तकों में "ग़म में भीगी खुशी" (सिंधी गज़ल संग्रह 2004), "उड़ जा पँछी" (सिंधी भजन संग्रह 2007) और "चराग़े-दिल" (हिंदी गज़ल संग्रह 2007) शामिल हैं। इसके अतिरिक्त कई कहानियाँ, गज़लें, गीत आदि राष्ट्रीय स्तर के पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। आप वर्तमान में न्यू जर्सी (यू.एस.ए.) में एक शिक्षिका के तौर पर कार्यरत हैं।.....
2 टिप्पणियाँ
ज़िंदगी को कभी भी न समझे थे हम
जवाब देंहटाएंख़्वाब थी, ख़्वाब ही में गई वो गुज़र.
डर की आहट न देवी कभी सुन सकी
सामने मौत आई तो देखा था डर.
bahut khub
suder gazal
badhai
saader
rachana
Abhishek V rachna ji
जवाब देंहटाएंaapka abhaar samay nikal kar sahity shilpi par is ghazal par aapni ray dene ke liye
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.