तहखाने ने की सीढी पर बैठी नासिरा शर्मा
तहखाने की सीढी पर बैठी नासिरा शर्मा की तहरीरे बरसती चान्दनी में मुझ से बाते कर रही हैं, और यह भी सच है कि हर ज़िन्दा तहरीरे बोलती है। अपने समय से बहुत आगे का सफर तय करती है। शब्द साहित्य की ज़मीन पे अलग-अलग सतरंगी लिबास पहन कर सफर करते है, सफर जीवन का प्रतीक होता है, और शब्दो की प्यास मे ज़िन्दगी की अलामत छिपी होती है। चला बात करब...नासिरा शर्मा से बरसत चान्दनी म...
अन्धेरे तहखाने की पत्थर सीढिया और हाथों की हथेलियो पर, अपना मासूम सा, सूरज की सतरंगी किरणो जैसा, चेहरा लिये अन्धेरे मे कुछ तलाश कर रही है नासिरा शर्मा की निगाहें। शब्द जब किसी की निगाहें बन जायें तब शब्द एक दूसरे की आंखो में आंखे डाल कर बाते करते है। शब्दो को ज़ुबान अता करने का हुनर नासिरा शर्मा को आता है। शब्दो को एक नई पोशाक, नया अर्थ, नयी वाणी, एक नया फलक, और व्यापक अर्थ रचनाकार् देता है, आलोचक शब्दो मे नई रूह नही फूंक सकता।
आज नई सदी मे ऐसी आलोचना लिखी जा रही है कि जहाँ आप को एक घुटन का एहसास होगा। वही लकीर के फक़ीर्..ढोल बाजे के साथ...अपनी अपनी डफ्ली बजाते हुए साहित्य नगर के हर चौराहे पे दिखाई दे जाते है। कहानी बहुत आगे-आगे तो आलोचक पीछे -पीछे हांपते कांपते भागा जा रहा है..मंज़िल क पता नही..आज भी मंज़र कुछ ऐसा ही है। मेरा कहना है कि भाई मेरे! किसी भी रचना पर आलोचना करते समय तुम भी उसी पीडा से गुज़रो, या गुज़रने की कोशिश करो उसी रचना प्रक्रिया से, फिर होगा यह कि आलोचना भी कहानी, कविता की तरह पढी जयेगी, और सोया हुआ शहर भी जाग जयेगा।
मै अपने कमरे मे बैठा हूँ..और मेरे सामने नासिरा शर्मा की पुस्तक "जब समय दोहरा रहा हो इतिहास " है..नासिरा जी कि उंग्लियो से निकलने वाले शब्द कभी कहानियाँ, कभी संस्मरण्, रिपोर्ताज़, यात्रा वृतांत् के रूप मे इस पुस्तक मे मौजूद हैं। जहाँ देश से विदेश तक जो मंज़र है वह पाठको की सोच लहरो को अपने साथ साथ ले कर चलने मे कामयाब नज़र आती है।
"उस लड़की को देश और काल ने बडा किया था। इस लिये जहाँ एक खुलापन था वहीं पर अपनी जडो को पूरी तरह न समझ सकने की बदनसीबी थी, जिस ने बार बार पीछे मुड कर देखने पर मजबूर किया....खान्दानी वैभव अपने खण्डर होते भविष्य की तरफ बढ रहा था...." (तहखाने की सीढी पर बैठी लड्की)
जिस देश काल में हम बडे होते हैं, उसी काल की जडों को हम अपनी ही उंग्लियो से कुरेद्ते है..आज के ताजिरान ए वक़्त मौत की कैसी तिजारत मे लगे है? वर्तमान की तरफ पीठ कर के बैठे है और आने वाले सुनहरे कल का सपना देख रहे है..जडे खोखली होती जा रही है..और पत्तियो पर पानी का छिड्काव् जारी है। हाय !हम हम नही रहे..क्या से क्या हो गये?? आदमी अब आदमी कहाँ रह गया ...हे मानव तुम दानव क्यो बनते जा रहे हो, तुम्हे इस धरती पे क्यो भेजा गया था, तुम्हारा वजूद मानवता के लिये था..मगर...
"फूलो से भरी इस वादी मे /
बन्दूक़ो की धाये धाये पर/
फाख्ताओ का उछल कर मरना/
जैसे सूखे पत्तो से उठ्ता हो रुदन/
डल झील पर डोंगो की जगह.." (बरसती चान्दनी मे तवी का रुपह्लापन)
नासिरा शर्मा हरे भरे दरख्तो, पौधो, पत्तियो और फूलो को सिर्फ नही देखती, देखती हैं उन की निगाहे अपनी संस्कृति /तह्ज़ीब की फैली हुई जडो को ..हरे भरे दरख्तो की पत्तियाँ अपने दर्द का इज़हार तो करती है, मगर जडो को जब जब अपनी पीडा व्यक्त करने का मौक़ा मिला, तब तब बारिश की बून्दो ने उसे एक नया आवरण दे दिया, फिर से धरती पे उग आये एक नये पौधे की पीडा..
रात के अन्धेरे मे एक शय चमकती सी दिखायी दे रही है मुझे,नासिरा!
कही ये मेरा वहम तो नही ?
यह सच है..
तुम्हारे शब्दो ने ऐसा ही कुछ कहा मुझ से..
नासिरा शर्मा ने जब 22,अगस्त,1948 में आंखे खोली तब उन्हे साहित्य संस्कार विरासत मे मिले, जिसे अपने देश की संस्क्रिति के आंचल मे समेटे, तेज़ आन्धी-तूफान से बचाते हुए देश विदेश का भ्रमण करती रही ..मगर एक पल के लिये भी उन्हे क़रार न मिला..युद्ध बन्दियो पर जर्मन व फ्रांसीसी दूरदर्शन् के लिये बनी इन की फिल्में हो या ढेर सारे उपन्यास, कहानी संग्रह पाठको के दिल मे अपनी जगह बनाते गये।
नीम की ठन्डी छाँव का एहसास दिलाने वाली नासिरा शर्मा के साहित्य की ज़ुबान कभी भी धमा-चौकड़ी वाली नही रही। आम ज़िन्दगी की चहल-पहल वाली इस औरत के अन्दर कायनात की वुसअते समायी हुई है। मह्सूसात की जलती चट्टानो पे नंगे पांव चलने वाली नासिरा माई! तुम्हारी तहरीरो से रु ब रु होने के बाद जब मै घर से बाहर निकल रहा था, तब मैने मह्सूस किया कि मेरे मिट्टी बदन वजूद के अन्दर फैली पहाडियो से ज्वालामुखी रिसने लगा है।
मै आगे ही आगे बढा चला जा रहा था और सोया हुआ शहर भी जागता सा दिखायी दिया मुझे। जागती ज़िन्दगी का क़िस्सा अभी जारी है कि लालटेन लिये नासिरा ज़िन्दगी की सडक पे खडी है।
=========================
(खुर्शीद हयात)
11 टिप्पणियाँ
जिस भाषा में पुस्तक चर्चा है उसमें प्रवाह और ताजगी है। क्षमायाचना के साथ यह भी कहना चाहोंगा कि नासिरा जी की पुस्तक का आंशिक परिचय ही मिल सका।
जवाब देंहटाएंGive more Details of Auther, Publisher and from here e can get this book.
जवाब देंहटाएंनासिरा जी का लेखन अनवरत चलता रहे मेरी शुभकामनायें
जवाब देंहटाएं।
भाषा डूबती उतराती है कथ्य के पास पहुँचाती है लेकिन पास पहुँचा कर रुक जाती है। कुछ अधूरा अधूरा लगता है वह क्या है इसे खुरशीद भाई स्वयं विवेचना कर देखें। मैं तो नासिरा जी को किताब की बधाई देना चाहता हूँ।
जवाब देंहटाएं"जब समय दोहरा रहा हो इतिहास" के लिये नासिरा जी को हार्दिक शुभकामनायें। विमर्श में पुस्तक की पूरी जानकारी नहीं मिलती, लेखक की भावनाओं की झलक जरूर मिलती है।
जवाब देंहटाएंनासिरा जी को हार्दिक शुभकामनाए
जवाब देंहटाएंइस पुस्तक की विषयवस्तु क्या है?
जवाब देंहटाएंअनिल कुमार जी क कहना है कि :(01)नासिरा जी की पुस्तक का आंशिक परिचय ही मिल सका। 02)नितेश जी ने कहा :-कुछ अधूरा अधूरा लगता है वह क्या है इसे खुरशीद भाई स्वयं विवेचना कर देखें। मैं तो नासिरा जी को किताब की बधाई देना चाहता हूँ।..आप सब का शुक्रिया कि आप लफ्ज़ो से रु ब रु हुए..हर लफ्ज़ का चेहरा बहुत क़रीब से देखा आप सब ने..आप की प्यास बढ गयी है..और प्यास जीवन का प्रतीक है..मेरी यह तहरीर अधूरी है मेरी तरह ..इस का दूसरा भाग अभी बाक़ी है..(खुर्शीद हयात)
जवाब देंहटाएंनिधि अग्रवाल जी धन्यवाद ! कहानियाँ, संस्मरण्, रिपोर्ताज़, यात्रा वृतांत् के रूप मे अलग अलग रंगो के शब्द इस पुस्तक मे मौजूद हैं। जहाँ देश से विदेश तक जो मंज़र है वह पाठको की सोच लहरो को अपने साथ साथ ले कर चलने मे कामयाब नज़र आती है।
जवाब देंहटाएंखुर्शीद जी का धन्यवाद कि यह जानकारी प्रदान की। इसे अपने आलेख में जोड देते तो अधूरापन नहीं लगता।
जवाब देंहटाएंश्रीकृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं !
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.