जनता की ताकत पर गहरी आस्था की कविता: कभी नहीं जनता मरती
अत्याचारों के होने से
लोहू के बहने चुसने से
बोटी-बोटी नुच जाने से
किसी देश या किसी राष्ट्र की
कभी नहीं जनता मरती ।
मुरदा होकर भी जीती है
बंदी रह कर भी उठती है
साँसों साँसों पर उड़ती है
किसी देश या किसी राष्ट्र की
कभी नहीं जनता मरती ।
सब देशों सब राष्ट्रों में
शासक ही शासक मरते हैं
शोषक ही शोषक मरते हैं।
किसी देश या किसी राष्ट्र की
कभी नहीं जनता मरती ।
जनता सत्यों की भार्या है ,
जागृत जीवन की जननी है
महामही की महाशक्ति है
किसी देश या किसी राष्ट्र की
कभी नहीं जनता मरती ।
इस कविता के बरक्स रघुवीर सहाय की एक कविता की इन पंक्तियों को रखकर देखें -
लोग सिर्फ लोग हैं, तमाम लोग ,मार तमाम लोग/
लोग ही लोग हैं चारों तरफ लोग ,लोग ,लोग/
मुँह बाये हुए लोग और आँख चुंधियाए हुए लोग /
कुढ़ते हुए लोग और बिराते हुए लोग/
खुजताले हुए लोग और सहलाते हुए लोग /
दुनिया एक बजबजाती हुई सी चीज हो गई है।
यहाँ एक जनवादी कवि और मध्यवर्गीय मानसिकता के कवि के बीच अंतर समझ में आ जाता है। जनता को देखने के ये दो अलग-अलग दृष्टिकोण हैं जो अलग-अलग राजनैतिक समझ और जीवन-दर्शन से पैदा होते हैं। केदार के लिए जनता भीड़ मात्र नहीं है, न ही मार तमाम लोग। वे जनता को हिकारत भरी नजर से नहीं देखते हैं न ही असहाय-निर्बल। वे जनता की ताकत पर गहरी आस्था रखने वाले कवि हैं। मात्र बीस पंक्तियों की उक्त कविता इस बात को साबित करने के लिए पर्याप्त है। जनता की ताकत पर ऐसा विश्वास एक जनवादी ही कर सकता है। कुछ अकादमिक आलोचक इसे जनता के प्रति अंधपूजा भाव भी कह सकते हैं पर यह संघर्षशील जनता के प्रति जिम्मेदारी का भाव है जिसके पीछे कवि का यथार्थबोध भी है और इतिहासबोध भी। शासकों द्वारा जनता को तमाम तरीके से डराने-धमकाने-दमन का प्रयास किया जाता रहा है। इतिहास इस तरह की घटनाओं से भरा पड़ा है। वर्तमान में भी हमारे आस-पास इसके उदाहरण कम नहीं हैं। अपनी सैनिक-अर्द्धसैनिक शक्ति के बल पर शासक उसे दबाना चाहता है पर जनता है कि तमाम अत्याचार-शोषण-उत्पीड़न-दमन के बावजूद चुप नहीं बैठती है। हिंसक-अहिंसक साधनों के साथ हमेशा उठ खड़ी होती है। एक नई शक्ति के रूप में। बकौल आलोचक डॉ.जीवन सिंह के , ’’यह सही है कि ’जनता‘ में सब कुछ सदा अच्छा नहीं होता उसकी जिंदगी में भी अनेक तरह की ,दुर्बलताएं होती हैं। इसके बावजूद उदित होती प्रतिरोध की ताकत भी उसी जनता के भीतर होती है ,जो बराबर संघर्षरत है।‘‘ यह एक ऐतिहासिक सत्य है। जन संघर्षों के प्रति यथार्थवादी रूख। जनता का कितना ही शोषण किया जाय वह कभी नहीं मरती है। हम इतिहास में बहुत पीछे भी नहीं जाएं, अभी हाल में ही मिस्र ,ट्यूनेशिया ,सीरिया ,लेबनान में जनता का जो उभार दिखाई दिया है वह कवि केदारनाथ अग्रवाल की इस आस्था को ही सही सिद्ध करता है-
कभी नहीं जनता मरती है/.....
शासक ही शासक मरते हैं /
शोषक ही शोषक ही मरते हैं।
यह दूसरी बात है कि शासक या शोषक को इस बात का भ्रम तथा अहंकार होता है कि वह अपनी ताकत के बल पर जनता को हरा देगा। वह अपने शीश महल में बैठा अपनी नीवं खिसकती नहीं देख पाता। लेकिन कुछ समय के लिए ऐसा भले ही हो जाए अंततः जनता की एकजुटता की ही जीत होती है क्योंकि -
चुन-चुन /
क्षण-क्षण के कण /
जीवित जनता /
जोड़ रही है दिन की हड्डी-पसली-ममता/
दृढ़ से दृढ़तर बना रही है अपनी क्षमता।
इसलिए तो केदार उस जनता से बल ग्रहण करते हैं । जनता के बल को ही अपनी कविता का बल बताते हैं -
मुझे प्राप्त है जनता का बल /
वह बल मेरी कविता का बल /
मैं उस बल से / शक्ति प्रबल से /
एक नहीं सौ साल जिऊँगा /
काल कुटिल विष देगा तो भी /
मैं उस विष को नहीं पिऊँगा।
जनता के इस बल से प्राप्त ताकत से ही कवि युग-जीवन के सत्य को लिखने की बात तथा राज्य द्वारा अमित धन-सम्पत्ति देने पर भी नहीं बिकने का संकल्प व्यक्त करता है। जनता की ताकत पर विश्वास करने वाला कवि ही ऐसा कह सकता है।
केदार बाबू अपने समाज की इतिहास-गति को इकहरे और एकांगी रूप में न देखकर सदैव उसके द्वंद्वात्मकता में देखते हैं। वास्तव में हम पाते हैं कि दुनिया में अब तक जितने भी परिवर्तन हुए हैं वे सारे जनता की संगठित शक्ति और जुझारुपन के बदौलत ही हुए हैं। कोई भी ऐसा शासन जो शोषण-दमन की नींव पर खड़ा है वह अधिक दिनों तक नहीं टिक पाया है। कुछ समय के लिए भले जनता की सामूहिक चेतना को भ्रमित या कुंद कर दिया जाय या उसे ’ मुरदा ’ बना लिया जाय पर देर-सबेर वह जाग उठती है। वह रोके नहीं रुकती है। मारे नहीं मरती है। वही है जो दिशांतर कर सकती है। केदार का विश्वास रहा है कि-
जहाँ धूल-धरती सिसकती पड़ी है/
जहाँ आँसुओं की बरसती झड़ी है/
जहाँ लाट खल्वाट खूनी गड़ी है/
जहाँ मृत्यु-मीनार ऊँची खड़ी है/
वहाँ जनता रहेगी। वह सारे दुःखों को सहेगी फिर भी हँसती हुई जिएगी। न काटे कटेगी न मारे मरेगी । एक न एक दिन युगांतर करेगी। कवि का जनता पर ऐसा अटूट विश्वास वैज्ञानिक, अद्भुत और नई ऊर्जा से भरने वाला है। जनता को बंदी बनाकर बाँधने की कोशिश हमेशा की जाती रहती है पर अधिक समय तक ऐसा नहीं चल सकता वह तमाम बंधनों को तोड़ उठ खड़ी होती है- मुरदा होकर भी जीती है/ बंदी रह कर भी उठती है। यही जनता है जिसने - रीड ,परदे और आत्मा की प्रबलतम तीव्र ध्वनियाँ / जो कि थीं साम्राज्यवादी मान्यताओं की लहरियाँ / और सारे उपनिवेशों पर निरंकुश नाचती थी , उसको धूल चटा दी । हिंद, बर्मा, अरब, पैलेस्टीन की जन-क्रांतियों ने /मार कर हँसिया-हथौड़े/ देह उसकी तोड़ दी है/ हड्डियों को चरमरा कर लुंज उसको कर दिया है। इसी जनता के बल पर तो कवि कहता है-
अतः आज हम हँसते-हँसते /
नयी शपथ यह प्रथम करेंगे/
शोषक का साम्राज्य हरेंगे/
जनवादी सरकार करेंगे।
इस जनता की शक्ति को वे अपनी ‘लड़ रहा है जीवंत उत्तरी वियतनाम ‘ कविता में भी रेखांकित करते हैं-
डालर ने सोचा था/ हो ची मिह्न भुनगा है /
उसका देश केंचुआ है / उसके लोग मुरदा हैं/
जाहिल आबादी है/ चुटकी से मसल देगा भुनगे को /
एड़ी से कुचल देगा केंचुए को /
जल्दी से जीत लेगा मुरदों को /
जाहिल आबादी को पीट लेगा/
लेकिन / उस भुनगे ने/ डालर को मसल दिया।
केचुए ने/ डालर को कुचल दिया/
मुरदों ने / डालर को पीस दिया/
जाहिल आबादी ने / डालर का खून किया/
डालर की फौज फटी काई-सी /
डालर के वायुयान/ टूट गए कुल्हड़ से/
फूट गए बुल्ले से।
भारत सहित तीसरी दुनिया के राष्ट्रीय मुक्ति-संग्राम इसी जनता की शक्ति के परिणाम रहे। भगत सिंह, अंबेडकर,सुभाष चंद्र बोस ,महात्मा गाँधी सरीखे नायकों की शक्ति जनता ही तो थी।
केदार बाबू शोषित जनता का आह्वान करते हैं-
पत्थर के सिर पर दे मारो अपना लोहा/
वह पत्थर जो राह रोक कर पड़ा हुआ है/
जो न टूटने के घमंड में अड़ा हुआ है/
जो महान फैले पहाड़ की /
अंधकार से भी गुफा का /
एक बड़ा भारी टुकड़ा है।
यह कहते हुए जनता के भीतर शक्ति का संचार करते हैं-
हार न मानो / और न हारो ,जीना जानो /
यह जीवन की आन हमारी शान है/
और हमारे भुजवीरों की प्रान है।
इसलिए -
मार हथौड़ा / कर-कर चोट /
लोहू और पसीने से ही/
बंधन की दीवारें तोड़।
हार न मानो / और न हारो ,जीना जानो /
यह जीवन की आन हमारी शान है/
और हमारे भुजवीरों की प्रान है।
इसलिए -
मार हथौड़ा / कर-कर चोट /
लोहू और पसीने से ही/
बंधन की दीवारें तोड़।
यदि कोई यह सोचता है कि जनता पर अत्याचार करने उसका शोषण-उत्पीड़न या दमन करने से उसको मारा जा सकता है तो यह भ्रम है । किसी भी देश की जनता को मारा नहीं जा सकता है उसको खत्म नहीं किया जा सकता है क्योंकि जनता में संघर्ष की अकूत ताकत होती है। वह क्षिति की छाती को जर्जर देखकर बादलों की तरह गरज उठती है। तमाम तरीकों से उसे दबाया जाय, भले उसमें तमाम दोष हों , अंधविश्वासों-रूढ़ियों से जकड़ी हो ,संकीर्णताओं से ग्रस्त हो , ’मुरदा‘ होकर पड़ी हो पर उसे अंधविश्वासों ,रूढ़ियों और संकीर्णताओं में बहुत दिनों तक उलझाये नहीं रखा जा सकता है । दमन-अत्याचार -शोषण बढ़ता है तो उसके समझ में बातें आने लगती है। वह सामाजिक-राजनैतिक बंधनों को तोड़ उठ खड़ी होती है -सांसों-साँसों पर उड़ती है। संगठित होकर शोषणकारी सत्ता का अंत करके ही दम लेती है । जनता की इस एकजुटता के आगे बड़ी से बड़ी शोषणकारी सत्ता नहीं ठहरती है उसे अंततः खत्म होना ही होता है । शोषण-दमन तभी तक होता जब तक वे असंगठित होती है। संगठित होकर जनता क्रांतिकारी सर्वहारा का रूप लेती है । इसकी संगठित शक्ति लामबंद होकर बड़े से बड़े चट्टानों को उड़ा सकती है। जैसा कि मुक्तिबोध कहते हैं - ’’ कोई भी बुद्धिजीवी व्यक्ति यह जानता है कि एक स्थान में एकत्रित संगठित जनता भीड. नहीं है क्योंकि वह संगठित है। जहाँ संगठन है वहाँ एक प्रेरणा और एक उद्देश्य भी है। जहाँ एक प्रेरणा और उद्देश्य है वहाँ एक स्फीति और सक्रिय चेतना है। देश-विदेश के पिछले इतिहास से हमें ये सूचित होता है कि संगठित जनता ने असाधारण कार्य किया है। संगठनों की प्रेरणा तथा उद्देश्य उचित हैं या अनुचित ,यह बात उनकी परीक्षा करने से स्पष्ट होगी परंतु हमारे कई नए कवियों को उस एकत्रीकरण से ही डर लगता है जिसे जनता का सामूहिक दृश्य कह सकते हैं। उसे सामूहिकता से चिढ़ है। क्यों ? इसलिए कि पश्चिमी विचार पत्र उसे वैसा ही सिखाते हैं। उसे सिखाया गया है कि सचेत, आत्मनिर्णीत,विवेकपरक, संकल्प से शून्य होकर व्यक्ति अपने को समूह में विलीन कर देता है। इसलिए हे!जागरूक, सचेत महानुभाव तुम अपने को समूह में विलीन मत करो। दूसरे शब्दों में जनता समूह है वह अज्ञ है, वह अंधकारग्रस्त है, वह जल्दी ही भीड़ बन जाती है। उसका साथ मत दो। तुम सचेत व्यक्तित्वशाली प्राण-केंद्र हो। उसमें अपने आपको विलीन मत करो। अपने अंतिम निष्कर्ष में यह विचारधारा अंत्यंत प्रतिक्रियावादी है,वह जन के प्रति घृणा पर आधारित है और बुद्धिजीवियों को जनता से अलग करके रखने का एक उपाय है। ‘‘ केदार इस बात को बहुत अच्छी तरह समझते हैं इसलिए वे अज्ञेय की तरह व्यक्तिवादी दर्शन को नहीं बल्कि मार्क्सवादी दर्शन का अपना प्रेरणा स्रोत बनाते हैं और मानते हैं कि कोई भी मार्क्सवादी हुए बिना आदमी नहीं हो सकता। मार्क्सवाद हमें सामूहिकता से रहना सिखाता है। मार्क्सवाद की ही प्रेरणा है केदार बाबू जनता की संगठित ताकत पर निष्ठा रखते हैं। वे मानते हैं कि जनता सत्यमार्ग पर चलने वाली है। जीवन में जीवंतता उसी से आती है क्योंकि वह क्रियाशील है। पृथ्वी की महाशक्ति है। केदार बाबू अपनी एक कविता में सर्वहारा की शक्ति की ऐसी आग से तुलना करते हैं जो लोहे की दीवार वाले गढ़ों को मोमबत्ती की तरह गला देती है क्योंकि शासक वर्ग भौतिक रूप से कितना ही सबल हो पर आत्मिक रूप से कमजोर होता है जबकि जनता के पास आत्मिक शक्ति अधिक होती है जिसके बल पर वह बड़ी-बड़ी फौजों का भी सामना कर लेती है।जनता ऐसा इसलिए कर पाती है क्योंकि उसके पास सत्य का बल होता है। वह सत्य पथ पर चलने वाली और छल-छद्म ,लूट-पाट ,झूठ-फरेब से दूर होती है। जीत हमेशा उसी की होती है जो सत्य मार्ग पर चलता है उक्त कविता में यह उनका यह कहना बिल्कुल सटीक है -
जनता सत्यों की भार्या है /जागृत जीवन की जननी है /
महामही की महाशक्ति है।
यह कवि की जनता की वास्तविक ताकत को पहचानने की क्षमता है। केदारनाथ अग्रवाल जनता की दुर्बलता और सबलता दोनों की द्वंद्वात्मकता में जीवन को देखते हैं। वे मानते हैं कि केवल खाते-पीते-जीते, कत्था, चूना, लौंग, सुपारी, तम्बाकू खा पीक उगलते, चलते-फिरते बैठे-ठाले, फूहड़ बातें करने वाले घंटों आल्हा सुनते-सुनते मुरदा जैसे सो जाने वाले लोग भी जरूरत पड़ने पर खोए,सोए मैदानों-चट्टानों को थर्राने की शक्ति रखते हैं। रोड़ो से बेहारे लोहा ले सकते हैं।’गर्रा नाला‘ की तरह अर्रा सकते हैं। एक अन्य कविता में वे लिखते हैं-
जो पराजित हो नहीं सकते किसी से /
जो मिटाए जा नहीं सकते किसी से/
जो मरेंगे किंतु फिर जीकर लड़ेंगे ।
जनता की अमरता या उसकी शक्ति पर उनकी कितनी अटूट आस्था है यहाँ भी देखी जा सकती है-
जो जीवन की धूल चाटकर बड़ा हुआ है/
तूफानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है/
जिसने सोने को खोदा, लोहा मोड़ा है/
जो रवि के रथ का घोड़ा है/ वह जन मारे नहीं मरेगा/
नहीं मरेगा!!/
जो जीवन की आग जलाकर आग बना है /
फौलादी पंजे फैलाए नाग बना है/
जिसने शोषण को तोड़ा ,शासन को मोड़ा है/
जो युग के रथ का घोड़ा है /
वह जन मारे नहीं मरेगा /नहीं मरेगा!!
इस कविता में ’ नहीं मरेगा ‘ की आवृत्ति जनता में उनकी दृढ़ एवं गहरी आस्था को प्रदर्शित करती है। जनता में ऐसा दृढ़ विश्वास मार्क्सवाद जैसी वैज्ञानिक विचारधारा से लैस कवि ही व्यक्त कर सकता है।
यहाँ प्रश्न उठता है केदार बाबू जिस जनता पर इतना विश्वास करते हैं वह जनता कौन है ? इसका उत्तर उनकी अलग-अलग कविताओं में व्यक्त हुआ है। वह है श्रम संपृक्त जनता - जो अन्न उपजाती है सड़कें बनाती है कारखानों में उत्पादन करती है । जो लोहा पीटती है । जो खून चाटती हुई वायु में / पैनी कुसी खेत के भीतर / दूर कलेजे तक ले जाकर/ जोत डालता है मिट्टी को। उसको कवि हमेशा जीवन में सक्रिय देखता है -
मैंने उसको जब-जब देखा / लोहा देखा/
लोहा जैसा -तपते देखा ,गलते देखा/ढलते देखा /
मैंने उसको गोली जैसा चलते देखा।
यही लोग हैं जो इस बात को कहने का साहस करते हैं-
हम पचास हैं,/ मगर हाथ सौ फौलादी हैं/
सौ हाथों के एका का बल बहुत बड़ा है/
हम पहाड़ को भी उखाड़ कर रख सकते हैं। ......
बिना मजूरी पूरी पाए/हवा हाथ से नहीं झलेंगे।/
हाथ उठाए/फन फैलाए /सब जन गरजे।
कवि पाब्लो नेरूदा कहते हैं - जनता मेरे जीवन का सबसे बड़ा पाठ रही है ,जब भी मैं इसके बीच आ जाता हूँ तो बिल्कुल बदला हुआ महसूस करता हूँ। मुझे लगता है कि मैं इस अनिवार्य बहुमत का अंश हूँ ,मानवता के महान वृक्ष का एक पत्ता हूँ। केदार नाथ अग्रवाल भी अपने पुरखे के इस स्वर से स्वर मिलाते हैं और उसे अपने जीवन में लागू करते हैं । वे हमेशा अपने जन और जनपद के बीच रहना ही पसंद करते रहे। हमेशा उस मनुष्य को खोजते रहे जो श्रम ,ईमान और सत्य के पथ पर चलता रहा-
मैं उसे खोजता हूँ/ जो आदमी है /
और / अब भी आदमी है/
तबाह होकर भी आदमी है/
चरित्र पर खड़ा /देवदार की तरह बड़ा।
मैंने उसको जब-जब देखा / लोहा देखा/
लोहा जैसा -तपते देखा ,गलते देखा/ढलते देखा /
मैंने उसको गोली जैसा चलते देखा।
यही लोग हैं जो इस बात को कहने का साहस करते हैं-
हम पचास हैं,/ मगर हाथ सौ फौलादी हैं/
सौ हाथों के एका का बल बहुत बड़ा है/
हम पहाड़ को भी उखाड़ कर रख सकते हैं। ......
बिना मजूरी पूरी पाए/हवा हाथ से नहीं झलेंगे।/
हाथ उठाए/फन फैलाए /सब जन गरजे।
कवि पाब्लो नेरूदा कहते हैं - जनता मेरे जीवन का सबसे बड़ा पाठ रही है ,जब भी मैं इसके बीच आ जाता हूँ तो बिल्कुल बदला हुआ महसूस करता हूँ। मुझे लगता है कि मैं इस अनिवार्य बहुमत का अंश हूँ ,मानवता के महान वृक्ष का एक पत्ता हूँ। केदार नाथ अग्रवाल भी अपने पुरखे के इस स्वर से स्वर मिलाते हैं और उसे अपने जीवन में लागू करते हैं । वे हमेशा अपने जन और जनपद के बीच रहना ही पसंद करते रहे। हमेशा उस मनुष्य को खोजते रहे जो श्रम ,ईमान और सत्य के पथ पर चलता रहा-
मैं उसे खोजता हूँ/ जो आदमी है /
और / अब भी आदमी है/
तबाह होकर भी आदमी है/
चरित्र पर खड़ा /देवदार की तरह बड़ा।
’कभी नहीं जनता मरती है‘ या ’ वह जन मारे नहीं मरेगा‘ यह कोरा विश्वास या आशावाद ही नहीं बल्कि एक यथार्थ भी है। जनता श्रम के पर्याय का नाम है। कर्मठता उसका गुण व स्वभाव है। वह उत्पादन करती है किसी अन्य के श्रम तथा अधिशेष पर निर्भर नहीं रहती है।
उक्त कविता से कवि की जनता के प्रति पक्षधरता तथा जनसंघर्षों के प्रति यथार्थवादी दृष्टिकोण का पता चलता है। ऐसी कविता केवल जनता का कवि ही लिख सकता है जिसके मन में जनता की शक्ति के प्रति गहरी या गौरवशाली संबद्धता का भाव हो। जो जनता को परिवर्तन की ताकत मानता हो तथा जनता की सत्ता चाहता हो। जैसा कि केन्या के प्रसिद्ध उपन्यासकार न्गुगी वा थ्योंगो लिखते हैं ,’’ साहित्य में दो तरह के परस्पर विरोधी सौंदर्यबोध होते हैं:दमन और उत्पीड़न और साम्राज्यवाद के प्रति मौन स्वीकृति का सौंदर्यबोध ,और पूर्ण मुक्ति के लिए मानव समुदाय के संघर्ष का सौंदर्यबोध।‘‘ केदारनाथ अग्रवाल की इन कविताओं का सौंदर्यबोध मुक्ति के लिए मानव समुदाय के संघर्ष का सौंदर्यबोध है। जनता को इतना प्यार करने वाला और उस पर इतना विश्वास रखने वाले कवि को मूलतत्ववादी और ’शिश्नोदर प्रवृत्ति का कवि‘ कहना मुझे कहीं से समझ में नहीं आता है। यह उनका गलत मूल्यांकन है। केदार सचेत और सायास वर्गीय चेतना के कवि हैं। ऊपर आयी चर्चा से भी यह बात पुष्ट होती है। शताब्दी वर्ष में उनकी प्रेम, करुणा, सौंदर्य, प्रकृति संबंधी कविताओं की चर्चा खूब की जा रही है पर इस तरह की उत्कट जन-आस्था की कविताओं की बहुत कम चर्चा हो रही है क्या यह जानबूझकर नहीं है? प्रगतिशीलों द्वारा अज्ञेय की शताब्दी कार्यक्रम बढ़-चढ़ कर मनाना या उनमें उत्साह से भाग लेना और केदारनाथ अग्रवाल को मांसल कविता का कवि और फार्मेंलिस्ट सिद्ध करना क्या एक ही मंतव्य से किए जा रहे दो अलग-अलग प्रयास नहीं हैं? डॉ0 रामविलास शर्मा का विश्वास था कि एक बार अखिल भारतीय आंदोलन होने दो, लोग केदार की कविताएं ढूँढ-ढूँढ कर पढेंगे। निश्चित रूप से तब जन-आस्था की इसी तरह की कविताएं होंगी जो जनता की जबान पर चढ़ चारों ओर गूँजंगी।
------------
------------
महेश चंद्र पुनेठा जोशी भवन निकट लीड बैंक पिथौरागढ़ 262501
25 टिप्पणियाँ
सुबह सुबह केदार की ओजस्वी और दिशा देती कविताओ का सुन्दर संकलन पढा। धन्यवाद पुनेठा जी। अज्ञेय को ले कर आपकी टिप्पणी इस लेख में जबरदस्ती घुसाई गयी लगती है इससे केदार पर से फोकस हट कर एसी बहस की ओर जा सकता है जो निरर्थक है।
जवाब देंहटाएंकृपया थोडा बडा फांट प्रयोग किया करें, पढने में बहुत दिक्कत हो रही है।
जवाब देंहटाएं------
ब्लॉग के लिए ज़रूरी चीजें!
क्या भारतीयों तक पहुँचेगी यह नई चेतना ?
जनता को देखने के ये दो अलग-अलग दृष्टिकोण हैं जो अलग-अलग राजनैतिक समझ और जीवन-दर्शन से पैदा होते हैं।
जवाब देंहटाएं....केदार जी की कविताओ को समझ्ने मै सहायक आलेख.मध्यवर्गीय मानसिकता एवम जन्वादी वि्चार धारा मै स्पस्ट अन्तर करना सम्भव नही... आज का जन मध्यवर्गीय होता जा रहा है. कविओ के बीच के अन्तर को भी पाटा जाना चहिये.
मैं उसे खोजता हूँ/ जो आदमी है /
जवाब देंहटाएंऔर / अब भी आदमी है/
तबाह होकर भी आदमी है/
चरित्र पर खड़ा /देवदार की तरह बड़ा।
सुन्दर संकलन मैं अपने विद्यालय में ग्यारहवी-बारहवी के सभी विद्यार्थियों को इसे उपलब्ध कराने जा रही हूँ। मुझे अज्ञेय और केदार की बहस निरर्थक लगती है। अज्ञेय का नाम हटा कर केदार लिखना ही क्यों जरूरी है। दोनों की अपनी जगह है, दोनों नें मूल्यवान रचनायें दी हैं, दोनों को खूब पढती हूँ और दोनों को नमन।
जनसरोकारों से भरी रचनाओं के लिये केदारनाथ अग्रवाल का नाम अग्रिम पंक्ति में लिया जायेगा। उनके तेवर और भीतर तक स्पर्श करती कविताओं नें हमेशा सोचने पर मजबूर किया है।
जवाब देंहटाएंबड़ा मन से लिखा लेख है, गहरी समझ के साथ. केदारबाबू के साथ संवेदना और सरोकार के जिस स्तर पर जुड़े हो वह साफ़ दिखता है और इसीलिए रघुवीर सहाय एवं अज्ञेय, तथा केदारजी के बीच फर्क को रेखांकित कर पाए हो. हाशिए पर चलती रघुवीर सहाय की कविताएं बिना ज़्यादा टिप्पणी की दरकार के,यह खुलासा कर देती हैं कि उनके लिए 'जनता'कितनी 'व्यक्तित्वहीन' संज्ञा है, जबकि केदारबाबू के यहां जनता अपनी तमाम कमज़ोरियों के बावजूद एक जीवंत, प्राणवान समूह है जो चाहे गिरता-पड़ता है पर फिर खड़ा होजाता है. अमरीका बनाम विएतनाम के सन्दर्भ में यह बात बखूबी उजागर-स्थापित होती है. इतनी म्हणत और दृष्टि-सम्पन्नता के साथ लिखे इस लेख के लिए मेरी बधाई लो.
जवाब देंहटाएंमेरे दूकान की पकौडी उसके दूकान से स्वादू है
जवाब देंहटाएंजो यह बोले वह ही सच्चा जनवादू है
अज्ञेय तो सी-सी है
सहाय तो थू-थू है
हर तरफ मेरे भाई
तेरा लिखा सही है
तू ही तू है
दूसरा कोई नहीं)
अच्छा लेख है। पुनेठा जी आपके लेख से अनावश्यक बहस का आरंभ हुआ है। जिन तत्वों पर चर्चा हो रही है उसकी जरूरत न तो आपके लेख में है न ही टिप्पणियों में। पाठक के मुँह में चम्मच से विचार पिलाने का क्या मतलब समझने वाला सारा सच खुद ही समझ जाता है। केदार जी की संग्रह रखने योग्य पंक्तियों को प्रस्तुत करने के लिये आपका धन्यवाद। केदार जैसे कवि की रचनायें स्वयं बोलती हैं उन्हें भुलाया नहीं जा सकता है।
जवाब देंहटाएंपूरा आलेख एक तर्कपद्धति पर चलता है .एक समय के कवियों की तुलना से आलेख को व्यापक आधार मिल गया है. फिर केदार जी की कवितायें अपना प्रमाण स्वयं हैं .आपने आलेख को चारों तरफ से पुष्टिवर्धक बनाकर प्रस्तुत किया है ,इसके लिए बधाई
जवाब देंहटाएंकेदारनाथ अग्रवाल की कविता निश्चय ही व्यापक जन-सरोकारों की कविता रही है और मेहनतकश जनता के प्रति उनकी आस्था और आत्मविश्वास में कभी कमी नहीं आई। अपने छह दशक के कवि-कर्म में उनके केन्द्रीय स्वर और लोक-संवेदना में इस निरंतरता को बखूबी देखा जा सकता है, महेश पुनेठा का यह आलेख केदारनाथ अग्रवाल की कविता की इसी खूबी को उनके समूचे काव्य-संसार से पुष्ट करता है। केदार की कविता की रघुवीरसहाय या मध्य-वर्गीय मानसिकता वाले अन्य किसी कवि से क्या तुलना की जाय? उनके वैचारिक और मानवीय सरोकार इतने स्पष्ट रहे हैं कि उनके बारे भ्रम की कोई गुंजाइश नहीं है। तभी तो केदार-नागार्जुन-त्रिलोचन किसी सप्तक श्रृंखला में अंटने वाले कवि कभी नहीं रहे और उन्होंने हिन्दी की जनवादी कविता को एक ठोस आधार दिया। बहुत अच्छा विवेचन किया है महेश पुनेठा ने। हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंविजय वर्धन उप्रेती, बेहतरीन लिखा है। उम्मीद करता हुं कि, भविष्य में भी इस तरह का पढ़ने को मिलेगा। जाहिर सी बात है कि, जिस कवि की आम जनता पर आस्था होगी, उसकी रचनाएं यथार्थ के उतनी ही करीब होगीं।
जवाब देंहटाएंइतिहास से लेना चाहिये उसे बिगाडने की कोशिश नहीं करनी चाहिये। पुनेठा सर बहुत बरिष्ठ रचनाकार हैं उनसे असहमत होने में मुझे अपनी सोच का कई बार मूल्यांकन करना पडा है लेकिन हर बार यही लगा कि जो बात वो कहना चाहते थे वह मुझ तक और बेहतर पहुँच जाती अगर सहाय और अज्ञेय को जानबूझ कर इस लेख में जगह नही दी गयी होगी। जो अपना काम कर गये उनसे तो आगे बढने की ही जरूरत है लेख में यह विमर्श होता कि कोई भी समकालीन कवि केदार-नागार्जुन के आसपास भी नहीं पहुँच पा रहा है एसा क्यों है? ये भी तो सही है न कि मध्यमवर्गीय समकालीन कवियों को अब न रचना पर मेहनत से लेना देना है न वो अब वैसा व्यापक अनुभव रखते है। मैं गलत भी हो सकती हूँ लेकिन एसे विवाद आपके लिखे हुए से अधिक आपको चर्चा में लाते हैं। क्या हिन्दी का लेखक इस राह पर चल पडा है इसे भी तो सोचना पडेगा।
जवाब देंहटाएंआपने बहुत निष्ठा और मन से केदार बाबू की कविताओं का आकलन किया है और उनकी जन-पक्षधरता को रेखांकित किया है.बधाई!
जवाब देंहटाएंचुन-चुन /
जवाब देंहटाएंक्षण-क्षण के कण /
जीवित जनता /
जोड़ रही है दिन की हड्डी-पसली-ममता/
दृढ़ से दृढ़तर बना रही है अपनी क्षमता।
महेश भाई ने केदार जी की कविता पर यह जो लिखा है वह बहुत साहस क़ॆ साथ लिखा है! अपनी बात कहने का यह साहसिक ढंग मुझे पसंद आया ! जनवादी कवि और मध्यवर्गीय मानसिकता के कवि के बीच के अंतर को महेश भाई ने बडी सादगी से और बहादुरी से खोल दिया है ! केदार जी की कविता के सामने रघुवीर सहाय की कविता की ज़मीन कितनी पोली है,यह लिख कर प्रकट कर देना है बड़ी दिलेरी का काम है !ऐसे समय में जब रघुवीर सहाय को सदी का सबसे बडा कवि मानने वाले बैठे हैं !.... महेश जी आपको की बात में है ! बधाई !
जवाब देंहटाएं@naresh chandraker
जवाब देंहटाएंcreate a big line.
don't delete a created line to prove yourself true.
What sahas? cant you see the propaganda?
This is the most sansational way to project your name forward?
@बेनामी
जवाब देंहटाएंआज के दौर में सच को सच कह पाना भी बहुत साहस की बात है . क्यूंकि आज के दौर में जहाँ आप जैसे लोग हैं जो सही और सटीक मूल्यांकन को भी प्रचार का जरिया मानते हैं....आप में तो इतनी ताकत भी नहीं है की आप अपने नाम से टिपण्णी करें....वैसे भी साहस जन में होता है...आप तो जन से कटे हुए लोग हैं..यथार्थ से कोसों दूर..
शानदार आलेख बहुत बहुत बधाई..
जवाब देंहटाएंसाहित्य शिल्पी को भी बधाई बेहतरीन आलेख देने के लिए....
*एसे विवाद आपके लिखे हुए से अधिक आपको चर्चा में लाते हैं। क्या हिन्दी का लेखक इस राह पर चल पडा है इसे भी तो सोचना पडेगा।*
जवाब देंहटाएं--------निधि जी आपने ऐसा लिखकर विमर्श को छोड़ कर पुनेठा जी के व्यक्तित्व पर सवाल खड़ा कर दिया है. जो लोग पुनेठा जी को व्यक्तिगत रूप से जानते हैं उन से पूछिए की पुनेठा जी का लेखन कभी भी नाम की चर्चा के लिए नही रहा है. इनकी रचनाओं की तरह ही इनकी जीवन शैली सरल और स्वाभाविक है. लम्बे समय तक काव्य रचना करने के बाद भी उन्होंने कभी संकलन की इच्छा नही की. मित्रों के लाख आग्रह के बाद इनका पहला संग्रह *भय अतल में * प्रकाशित हुआ. इन्हें जानने वाले इन्हें नागार्जुन की परम्परा का कवी मानते हैं. छपाई की बीमारी और प्रकाशकों के आगे गिडगिडाने वाले लेखकों की पुनेठा जी ने हमेशा निंदा ही की है. इनके इसी स्वभाव के कारण इनके पाठक चाहे वो कम ही क्यूँ न हों , कविता को निजी जिंदगी में जीने वाला कवी मानता है
रंजीत ठाकुर जी
जवाब देंहटाएंमेरी पुनेठा जी की योग्यता पर कोई सवाल नहीं है। मैं केवल अपनी असहमति दिखा रही हूँ कि पुनेठा जी नें जो सवाल खडे किये हैं वो केदार की रचनाओं पर बात होने ही नहीं देते। कौन बडा है कौन छोटा है कौन मझोला है इसे इतिहास पर छोडना चाहिये और आगे की बात होनी चाहिये। यह भी ठीक नहीं लगता कि एक परंपरा का कवि दूसरे परंपरा के कवि की योग्यताओं पर उंगली उठाने लगे क्योंकि तब तो यह सवाल भी उठता है कि कौन महान है पुनेठा जी या अज्ञेय? पुनेठा जी या रघुवीर सहाय? मैं मानती हूँ कि पुनेठा जी का उद्देश्य अपनी एसी तुलना कराना नहीं रहा होगा। मुझे निर्पेक्ष भाव से सभी रचनाकारों को पढना अच्छा लगता है और पुनेठा जी नें मेरे प्रिय कवियों में से एक केदार की जाति निश्चित कर दी जो मुझे अच्छा प्रयास नहीं लगता। मुझे लगता है केदार जैसे कवि पर किसी साँचे में ढली हुई बात बेकार है वे कहीं आगे के और विराट रचनाकार हैं।
असहमति रखने और सार्वजनिक रूप से उसे व्यक्त करने का हक़ हरेक को है.निधि को भी.सवाल यह कहां से उठ गया कि अज्ञेय बड़े हैं या पुनेठा? मैं इसे दूसरी तरह रखूँ? पुनेठा अज्ञेय से बड़े नहीं हैं, मानलिया, पर इसका अर्थ यह कैसे होगया कि पुनेठा,अज्ञेय से छोटे होने के कारण अज्ञेय पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकते? और यह भी कि सिर्फ़ छोटे होने की वजह से कोई सार्थक टिप्पणी नहीं करसकते? केदार यदि आगे के, और विराट रचनाकार हैं तो बाक़ी बातों के कोई मायने-मतलब नहीं रह जाते.सभी यदि सामान रूप से अच्छे लगते हैं तो फिर जिसे "आलोचना-विवेक" कहा जाता है उसका कोई अर्थ है भी या नहीं? एक चीज़ और होती है जिसे "जीवन-विवेक भी कहा जाता है. उसके कोई अर्थ होते हैं या नहीं? यह तो समझ आता है कि निधि आहत हुई हैं, पर इस तरह तो आलोचना को नहीं लिया जाता. नहीं लिया जाना चाहिए.डेविड देशिज़ ने टी.एस.इलियट के जीवित रहते कह दिया था :"ELIOT IS A MINOR POET AMONG MAJOR POETS". कोई पत्ता तक नहीं खडका था अंग्रेज़ी आलोचना में. और किसी ने डेविड देशिज़ की हैसियत पर अंगुली नहीं उठाई थी. प्रसंगवश बतादूं देशिज़ अंग्रेज़ी कविता के आचार्य थे, बड़े आलोचक होने के साथ-साथ. पर इलियट का भी तो डंका बजता था. अज्ञेय बड़े कवि थे पर उन्हें 'पवित्र गाय' नहीं बनादेना चाहिए.
जवाब देंहटाएंमोहन जी
जवाब देंहटाएंइसे आप जान बूझ कर नजर अंदाज कर रहे हैं कि यहाँ मसला आलोचना विवेक का नहीं है। यहाँ मसला किसी रचनाकार का उसे चरित्र हनन करने की हद तक निशाना बनाने का है। पुनेठा जी के इस लेख नें केदार की भी खेमेबाजी कर दी है और एक राजनीतिक पार्टी की सोच भर लिखने वाला कवि जितना बौना बना दिया है। मेरी यही आपत्ति है। किसी कवि की आलोचना उसकी एक रचना को दूसरे कवि की दूसरी रचना से जोडने पर यदि की जा सकती है तो यकीन कीजिये इस तरीके से आप अपनी भी आठ दस कविताओं को केदार की रचनाओं के बराबर या अधिक प्रगतिशील सिद्ध कर सकते हैं। पवित्र गाय बनने का यही तो तरीका है।
निधि जी
जवाब देंहटाएंकौन छोटा है और कौन बड़ा इसे आप इतिहास पर छोड़ने की बात कर रही हैं पर किसके लिए छोड़ें भाई , हमे तय करना होगा की किस रचनाकर ने अपने समय और अपनी जनता के साथ न्याय किया है और कौन सिर्फ लिखने के लिए लिखता रहा. इक परम्परा का कवी दूसरी परम्परा के कवी पर ऊँगली क्यूँ नही उठाएगा ? क्यूँ तुलना नही करेगा? अजीब बात है . क्या हम सही गलत के फर्क को मिटा देंगे . आप निरपेक्ष भाव से पढ़ती हैं . पर बता दूँ की दुनिया में कुछ भी निरपेक्ष नही होता .आप वामपंथ और दक्षिणपंथ को इक ही चश्मे से देखेंगे क्या ? आपने लिखा है *तब तो यह सवाल भी उठता है कि कौन महान है पुनेठा जी या अज्ञेय? पुनेठा जी या रघुवीर सहाय?* बिलकुल यह सवाल है ,और ये उठना चाहिए और उठेगा . आपने लिखा है *पुनेठा जी नें मेरे प्रिय कवियों में से एक केदार की जाति निश्चित कर दी जो मुझे अच्छा प्रयास नहीं लगता। मुझे लगता है केदार जैसे कवि पर किसी साँचे में ढली हुई बात बेकार है वे कहीं आगे के और विराट रचनाकार हैं।* (पुनेठा जी ने अगर आप जाति न कहें तो) केदार नाथ अग्रवाल को आम जनता का कवी माना है . सांचे में ढालना पड़ेगा भाई . नही तो आने वाली पीढ़ी साहित्य के नाम पर कूड़ा पढ़ेगी . आपने केदार को *आगे के और विराट रचनाकार हैं* कहा है .क्या यह सांचे में ढालना नही है .ऐसा कहने के लिए आपने कोई मानक को बनाया होगा न ? यही पुनेठा जी ने भी किया है .....
रंजीत जी मुझे लगता है बहस में मैं अकेली पड गयी हूँ। मैं मानने के लिये तैयार नहीं हूँ कि केवल वामपंथी ही पूरी तरह POLITICALLY CORRECT लोग हैं। माफ कीजियेगा रंजीत जी आज की पीढी समकालीनता और पार्टिबाजियों के चक्कर में बहुत सा कूडा कचरा पढने के लिये मजबूर है। एक जैसा रटा रटाया है पचास समकालीन की कविता उठाईये बिलकुल CARBON COPY और इनही प्रोटो टाईप लोगों को कोई नागारजुन की परम्परा का बताता है तो कोई केदार की परम्परा का। नागर्जुन और केदार अगर जान लें कि उनकी परम्परा के नाम पर कैसे कैसे खेमे बन गये है तो वो मायूस हो जायेंगे। पुनेठा जी नें आलोचना नहीं प्रस्तुत की है अपने सांचे में डाल कर FINISHED PRODUCT निकाला है। मैंने केदार को विराट कहा अवश्य है लेकिन उन्हें किसी A से Z के स्केल पर नहीं रखा है। मुझे निर्पेक्षता अच्छी लगती है कमसे कम बिना किसी के प्रति दुर्भावना रखे विविधता पढने के लिये मिलती है।
जवाब देंहटाएंनिधि जी आप इस बहस में बिलकुल अकेली नही हैं, हम आपके साथ हैं.कृपया आप ऐसा न सोचें. मैंने वामपंथ और दक्षिपंथ की तुलना की है न की वामपंथ की कमी बताई है. अगर लोग कूड़ा पड़ने को मजबूर है तभी वर्गीकरण करना जरूरी है तब नागर्जुन और केदार मायूस नही होंगे .उन्हें ख़ुशी होगी की उनकी विचारधार के साथ न्याय हो रहा है. यही बात मैंने कहने की कोशिश की थी. आपने केदार बाबू को विराट कहा है तो उन्हें किसी A से Z के स्केल पर रखा है। विराट का विलोम भी तो होता है न.उसके नीचे का शब्द भी तो आप लिख सकती थी लेकिन आपने मूल्यांकन किया फिर लिखा ये A से Z का स्केल ही है. आप दुर्भावना से नही पडती ठीक है लेकिन तब आप निरपेक्ष नही होते क्यूँ की निरपेक्ष होना सम्भव ही नही है
जवाब देंहटाएंनिधि जी हम आपको फेस बुक से जोरना चाहते है सर्च में क्या लिखना होगा ?
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.