कविता में अगर नदी ,पहाड़ ,वन ,धूप-छाँव ,सूरज, चाँद , सितारे और ऋतु परिवर्तन के दृश्य न हों और उनमें लौकिक वस्तुओं के रंग-रूपों का बिंब न हो तो बेचारा पाठक कैसे अपने प्रांत ,प्रदेश और देश को देख सकता है और कैसे उससे प्यार कर सकता है। -केदारनाथ अग्रवाल
इस कथन के आलोक में यदि हम रजत कृष्ण के सद्य प्रकाशित कविता संग्रह ’ छत्तीस जनों वाला घर ‘ को देखें तो हम पाते हैं कि उनकी कविताओं में प्रकृति भी है और लौकिक वस्तुओं के रंग-रूप भी जिसमें पाठक अपने देश को देख सकता है। उनका पूरा जनपद उनकी कविताओं में बोल उठता है। उसे यहाँ देखा जा सकता है। यहाँ जीवन की वे बड़ी और भावसंपन्न स्मृतियाँ भी हैं जिनसे मानवीय संबंधों में सरसता और सुंदरता आती है। उनकी ये कविताएं जनपदों की ताकत का अहसास कराती हैं। युवा कविता पर अक्सर आरोप लगाया जाता है कि वह ठस एवं एकरस होती जा रही है । उसमें मध्यवर्गीय या नागर जीवन ही अधिक व्यक्त हो रहा है । गाँव या जनपद के जीवनानुभव एवं प्रकृति कविता से गायब होती जा रही है । अगर कहीं व्यक्त हो भी रही है तो अतीत मोह एवं भावुकता उसमें हावी है। जनपदीय जीवन न आ पाने के चलते इंद्रियबोध में कमी आ गई है । वैचारिकता का अधिक बोझ पड़ गया है । इस सबके चलते कविता में सरसता का ह्रास होता जा रहा है । कविता शुष्क गद्य में बदलती जा रही है जिसके चलते कविता से पाठकों का मोह भंग हो रहा है। पर रजत कृष्ण की कविताओं को पढ़ते हुए ये आरोप गलत साबित होते हैं। उनकी कविताएं सेव की तरह हैं जिनमें पौष्टिकता के साथ-साथ सरसता भी है ,जो जनपदों की इंद्रधनुषी दुनिया से हमारा परिचय कराती हैं।
उनके जनपद की दुनिया अनूठी है वहाँ ’ छत्तीस जनों वाला घर‘ है जो चाह कर भी शहर में संभव नहीं है। एक ऐसा घर जहाँ चारों ओर से प्रवेश किया जा सकता है । कहीं कोई रोक-टोक नहीं । किसी अभिजात्य घर की तरह नहीं , जिसमें चाहर-दीवारी और मात्र एक प्रवेश द्वार या एक रास्ता होता है। जहाँ बाड़ी है , कुँआ है , कोठा है , खलिहान है , सिलबट्टा है ,जाँता है सबसे बड़ी बात यह घर ’ हम दो -हमारे दो ‘ के लिए न होकर छत्तीस जनों के लिए है। वहाँ ’ खेत‘ मात्र जमीन का टुकड़ा नहीं है बल्कि पुरखों के खून-पसीने से महकती मिट्टी का पर्याय है जहाँ झूमते पेड़ की छाँव तले हल जोतते हुए सुस्ताते बाबूजी ,निंदाई-रोपाई करती माँ , चमकती देह वाले घाँवरा और ललहूँ बैल दिखते हैं और जब-हम कहते हैं
खेत /और हमारे अंतस जल में /
शहद सी घुल मिल जाती है/ बनिहार-बुतिहारों की /
मेहनत कसी बोली / हँसी-ठिठोली ।
वहाँ खेत के साथ भी एक आत्मीय रिश्ता है।’ खेत‘ शब्द एक व्यापक अर्थ लिए हुए है। वहाँ पड़ोसी भी खालिस पडोसी नहीं कोई न कोई रिश्ता है उनके साथ भी । कोई जीजा है तो कोई काका। वे एक-दूसरे से केवल औपचारिक रूप से नहीं जुड़े हैं बल्कि उनके सुख-दुख एक हैं -
खिड़की के रास्ते से ही/ जाते हैं पड़ोसी के घर/
हमारे यहाँ से / दूध-दही / आचार-पापड़ /
हमारी बाड़ी के / भटा -मूली -गोभी -टमाटर /
पड़ोसियों की रसोई में पहुँचे बिना/ कभी नहीं झरते /....
उनके घर पके / आम-अमरुद -जामुन /
बिना हमारे यहाँ पहुँचे / असल स्वाद नहीं देते।
समीक्ष्य संग्रह में ’पवन‘ ,’पानी‘ ,’आग‘ , ’पेड़‘ आसमान ,सूरज ,चाँद ,सितारों पर अनेक कविताएं हैं । इन विषयों पर इतनी आत्मीय कविताएं एक जनपदीय बोध का कवि ही लिख सकता है। उनकी कविता में सूरज ,चाँद ,तारे ,आसमान सभी आते हैं पर वे सबसे अधिक महत्व धरती को ही देते हैं। इन सबकी बातें वे धरती के बिना अधूरी मानते हैं। धरती है तभी तो आसमान ,सूरज ,चाँद ,सितारों की सार्थकता है-
आसमान ,सूरज ,चाँद/ और तारों की बातें /
धरती के बिना /अधूरी है ....बस/
एक धरती ही /हमें गोद में लेती /
चादर ओढ़ाती / और छाती से चिपटाकर /
सदा-सदा के लिए /बिछ जाती है।
कवि का धरती को यह सम्मान देना प्रकारांतर से उसके जन को सम्मान देना है। प्रकृति उनके यहाँ एक ऐसे संगी-साथी या रिश्तेदार के रूप में आती है जो बातें करती है ,साथ चलती है, रास्ता बताती है ,कंघा थपथपाती है, आश्वस्त करती है आत्मीय बनकर ’आदिम-मितान‘ की भूमिका निभाती है-
थकने लगती है /आँखें जब /
सुदूर जंगली इलाके में / किसी अपने को न पाकर/
ऊँचे तनकर खड़े पेड़ /
सबसे करीबी बन/थपथपाते हैं कंधे/
आश्वस्त करती हैं चिड़ियाँ /हममें भी है अपनापन।
यहाँ ’अस्पताल का नारियल पेड़‘ भी बातें करता है। भीतर आ बैठता है । उससे एक रिश्ता जुड़ जाता है-
फल से लदे / इस पेड़ का /
कोई खत / मुझे नहीं मिला /
ना ही मैंने / कभी इसे लिखा /
देखो फिर भी / जुड़ आया है / इससे एक रिश्ता ।
प्रकृति से इस तरह के रिश्ते जनपदीय चेतना के कवियों की कविताओं में ही मिलते हैं। यह मनुष्य के साथ प्रकृति का पुराना रिश्ता है जो शहरीकरण के चलते कमजोर होता चला गया है। जो आत्मीयता ,जो उल्लास ,जो सादगी, जो सरलता हमें इन कविताओं में दिखती है वह केवल जनपदों में ही मिलती है। इसी के चलते ’सूखे के दिन ‘ भी कट जाते हैं क्योंकि वहीं मिलती है ’दीवाली का दीया ‘ रखने की यह परंपरा -
बाड़ी -बखरी में / दुआर में ,कोठार में /
चाहे जहाँ रखो दिया/ पर एक बचा लेना /
घर की देहरी में रखने / कि आते-जाते हरेक चेहरा /
जगमग दिखे / कटे हर मन का अंधेरा ।
दूसरे की ऐसी चिंता आप और कहाँ दिखती हैं। भले ही आज बाजारवाद के प्रभाव से ये जनपद भी अछूते नहीं रहे फिर भी बहुत कुछ है इसमें से जो वहाँ बचा हुआ है यह केवल कविता तक नहीं समझा जाय।
किसान और जनपद एक दूसरे के पर्याय हैं। जब भी जनपद की बात आएगी वह तब तक पूरी नहीं होगी जब तक किसान की बात न की जाय। रजत किसान-जीवन के कवि हैं। इन कविताओं में किसान जीवन का कटु यथार्थ एवं संघर्ष ....अच्छी फसल होने की खुशी और उस खुशी का गायब होना ....फसल के लहलहाने के साथ किसान के स्वप्नों का लहलहाना....महाजन का शोषण ,किसान की मजदूर में बदलने की विडंबना व उसके खिलाफ उसका प्रतिरोध आदि यत्र-तत्र व्यक्त हुआ है। किसान-घर का उल्लास ’ अगहन की सुबह ‘ में देखा जा सकता है। यह खुशी-उल्लास जिसमें घर के कमइया/और बनिहार-बुतिहार सभी / हुलस-हुलस के बोल रहे हैं। आज धान कटाई शुरू होने वाली है। खुशी ऐसी कि जैसे धान नहीं कोई आत्मीय व्यक्ति घर आने वाला हो। अद्भुत है यह खुशी लगता है जैसे घर भर के लोगों में खुशी के पंख लग गए हों -
यह अगहन की /उगती हुई एक सुबह है/
एक सुबह/ जाँगर-पेरते माँ-बाबूजी की रगों में /
चौकड़ी भरती / चौकड़ भरती इस सुबह को /
खेत में खड़े धान पर / हँसिया गिरना है/
घर-भर की आँखें उज्जर होना है।
ऐसी चौकड़ी भरती सुबह क्या किसी नगर-महानगर में देखी जा सकती है? मुझे याद नहीं आता कि ‘ चौकड़ी भरती सुबह ‘ जैसे बिंब का प्रयोग मैंने कहीं और किसी कविता में पढ़ा हो। इस अद्भुद सुबह के अनुभव को क्या नगर में रहने वाला कोई कवि व्यक्त कर सकता है ? यह है जनपद की ताकत और ताजगी । जनपद के कवि के पास ही यह विशिष्ट अनुभव हो सकता है जो पाठक के मन को हुलसित कर देता है। मन प्रसन्न हो जाता है ..... इस खुशी का क्या कोई मुकाबला है कि जिसमें घर-भर की आखें उज्जर हो जाती हों । यह उजास श्रम से पैदा हो रहा है। ऐसा सामूहिक उजास आज के व्यक्तिवादी युग में केवल जनपदों में ही बचा रह गया है । इस उजास का अनुभव भी जनपद में बसा कोई लोकधर्मी कवि करा सकता है। फसल कटाई ,फसल मिंजाई का दिन एक उत्सव होता है यहाँ । यह उत्सव श्रम की संलग्नता से पैदा होता है। कितना पुरसुकून जीवन है ये । मन आत्मीयता से भर उठता है। यहाँ नहीं है मूड़ उठाने तक की फुरसत पर इसमें भी आनंद है। सही-गलत तरीके से और कम से कम श्रम कर अधिकाधिक धन कमाने के पीछे भागती हुई इस दुनिया में श्रम से पैदा यह आनंद एक प्रतिसंसार की सृष्टि करता है जहाँ केवल श्रम करने वाले ही प्रतिष्ठा पा सकते हैं। बैठे ठाले लोगों के प्रति वहाँ कैसा व्यवहार होता है ’ वे जो बैठे ठाले खाते हैं ‘ कविता में देखा जा सकता है-
चाहे हों /वे कितने ही विचारवान धनी-मानी /
और गुणवान / मुहल्ले की /
किसी मिटिंग में /ऐसे लोगों की /
नहीं पूछता कोई/वे जो /बैठे ठाले खाते हैं/
उनके घर सामने के रास्ते / बेहद उदास /
और थके-हारे दिखते हैं ।
ऐसा केवल जनपदों में ही हो सकता है। श्रम के प्रति यही सम्मान और आस्था जनपदों का चरित्र है। केवल गाँवों में ही यह देखने को मिलता है जहाँ बैठे-ठाले लोगों से कोई भी किसी तरह का संबंध नहीं रखना चाहता है। इस तरह के लोगों से संबंध रखना असम्मान की बात समझी जाती है। वहाँ तो छोटे से लेकर बड़े तक सभी श्रम संलग्न देखे जा सकते हैं । स्त्री-पुरुष के बीच कामों का बँटवारा नहीं है । ’ खलिहान में ‘ इसका उदाहरण देख सकते हैं-
बाबू जी धान मिंज रहे हैं / मिंज चुके धान को /
माँ ओसा रही है /.....भाई पंखा ओटा रहा है /
और धान सकेल-सकेल के /बहन माँ को दे रही है ।
ऐसी सामूहिकता कहाँ संभव है ? यही है जो पूरे परिवार और समाज को जोड़े रखती है। बिल्कुल सही है कवि का यह कहना -
तो इनसा धनी -मानी /और प्रतापी /
दुनिया भर में दूसरा कोई / लगता नहीं।
यह धन को ही सबकुछ समझने वाली दुनिया की आलोचना है। पूँजीप्रधान दुनिया में सब कुछ मिल सकता है पर ऐसी सामूहिकता और आत्मीयता दुर्लभ है। यही है जो मनुष्यता की रक्षा करती है। इस तरह इन कविताओं द्वारा बैठे-ठाले लोगों जो इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रतीक मानते हैं ,को उनकी हैसियत का अहसास कराया गया है तथा श्रम संलग्न लोगों को प्रतिष्ठित । सामूहिक श्रम के प्रति यह गहरी आस्था जनपदीय कविता की खासियत है।
किसान जीवन पर आ रहे संकटों से भी यह कवि बेखबर नहीं है। उन्हें पता है कैसे किसानों की जमीन छीनी जा रही है ,विरोध करने पर कैसे उन पर गोलियाँ चलाई जा रही हैं , किन परिस्थितियों में वे आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं । वे बताते हैं कि अकाल हो या सुकाल किसानों की आत्महत्या का सिलसिला नहीं रूकता। किसान ही नहीं -
इस साल /बहुत से मजदूरों /बहुत से कर्मचारियों /
और बहुत से/ बेरोजगारों ने भी/ आत्महत्या कर ली।
कवि यह भी बखूबी जानता है कि ये आत्महत्या नहीं अप्रत्यक्ष रूप से हत्याएं ही हैं क्योंकि-
ऐसा नहीं / कि इनमें से /किसी ने भी /
कोई कम लड़ा हो / लड़े..... /
हालात से सबके सब /जी भर कर लड़े/
पर अपनी हर लड़ाई में वे इतने अकेले होते गए/
कि जब थके तो / सिर टिकाने को /उन्हें कोई कंधा/
नहीं मिला /टूटे तो सहारा देने/कोई बाँह नहीं मिली।
इसलिए यह आत्महत्या नहीं हत्या ही हैं जिसमें हत्यारा साफ बच निकलता है।
सूखे के दिनों में परेशान किसान की व्यथा भी इन कविताओं में व्यक्त हुई है । हर सुख-दुख में कवि किसान के साथ खड़ा दिखता है। वे दृष्टा नहीं भोक्ता कवि हैं इसलिए उनकी कविताओं में यथार्थ अधिक प्रमाणिक रूप में आया है। रजत की कविता उन किसानों की कविता है जो अकाल-दुकाल से जूझते हुए रोजी-मजूरी कर जैस-तैसे काट लेते हैं जिनगी। ’सुकाल में ‘ किसान क्या-क्या मंसूबे पालता है इन पंक्तियों में देखा जा सकता है -
खड़ी फसल देख / मेड़ पर बैठा जगतू /
सोच रहा है / बेटी के हाथ पीले ही कर देगा /
इस रामनवमी में ।
किसान की अच्छी फसल पर कितनों की गिद्द दृष्टि लगी रहती है । ’अन्नमाता ‘घर नहीं पहँची होती है उससे पहले महाजन ,बैंक नोटिस ,अमीन पटवारी घर पहँच जाते हैं -
महाजन का / पाई-पाई चुकाया चुकता किया बैंक का ऋण /भरा नहर-नाली का / टैक्स भी । इस सब के बाद उस किसान की क्या स्थिति हो जाती है -
कि जगतू राम बल्द भुखऊ भी /
जा खड़ा हुआ उनमें / जो रहे-सहे खेत बेचकर /
इस सुकाल में भी / हो गए /भूमिहीन खेतिहर।
इन पंक्तियों को पढ़ते हुए लगता है कि हमारे जनपदों और वहाँ रहने वाले किसान का जीवन वहीं पड़ा हुआ है जहाँ आजादी से पहले था । प्रेमचंद का ’ गोदान‘ याद हो आता है। समझ में नहीं आता कि आखिर कब तक इसी तरह जगतू-हरकू के खेत बिकते रहेंगे ?कब तक किसान आत्महत्या करते रहेंगे? जनपदों का किसान जीवन का यथार्थ इन कविताओं में बारीकी से व्यक्त हुआ है।साथ ही परिस्थितियों में आए परिवर्तन भी यहाँ दर्ज हुए हैं । कवि पाठक का ध्यान इस विडंबना की ओर खींचता है कि पहले यह ’जुलुम‘ गाँव के मुखिया-महाजन ही करते थे-
अब का जुलुम / सब जुल्मियों के ढाए जुलुम से बड़ा /
हमारी सरकार ने / हमारी छाती पर चढ़ /
हमारी धरती मइया को / जर खरीद बेच दी ।
इसके चलते स्थिति यहाँ तक आ पहुँची है -
बीते क्वाँर में / जिस खेत-खार में/
धान की लहराती बालियो को /
छेड़ते -गुदगुदाते हम लौटे थे धरती से/
दिख नहीं रहे हैं वे कहीं/ नहीं दिख रहे हैं/
कहीं वे किसान / जिनकी बाट जोहती /
आँख में ही / सब से पहले उतरते रहे हैं हम /
बरसों बरस से / नहीं दिख रहे हैं /
जाने-चिन्हें / वे बनिहार-बुतिहार/
मेड़ पर रखवार जस खड़े / वे हरड़ा-बहेड़ा /
आँवला-तेंदू और चार / .....
खेत-खार / अब कहाँ के /
कहाँ के किसान ......किसान अब वर्कर होंगे /
यहाँ बनने वाली फैक्ट्री के /
बनिहार-बुतिहार चले गए शहर/
काम की तलाश में / और जिनसे छूटा नहीं /
गाँव का मोह / वे बँध गए हैं ईंट-ठेकेदारों के ठीए से।
पर अच्छी बात है कि ऐसा नहीं है कि किसान इन सारी स्थितियों को चुपचाप स्वीकार कर ले रहे हों ,वे अपने तरीके से अपना प्रतिरोध भी दर्ज कर रहे हैं कवि इस प्रतिरोध को रेखांकित करता है -
यह गाँव की / सत्तर वर्षीय /
सतरूपा मरारिन थी/ जो जबड़ा पसार रहे /
फैक्ट्री के सामने पड़ती / अपनी बत्तीस डिसमिल /
जमीन को / जीते जी न छोड़ने की /
कसम खाए बैठी थी।
इस तरह इन कविताओं में देश के अन्य भागों से लेकर छत्तीसगढ़ तक के उस सत्य को व्यक्त किया गया है जिसमें बड़ी पूँजी को लाभ पहुँचाने के लिए किसानों को उनकी जमीन से बेदखल कर उनको मजदूर बनने के लिए मजबूर किया जा रहा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लाभ पहुँचाने के लिए कृषि क्षेत्र में वैश्वीकरण-उदारीकरण की नीतियों को लागू करखेती को बरबाद किया जा रहा है। फलस्वरूप किसानों को आत्महत्या की ओर धकेला जा रहा है। यह सत्य भी इन कविताओं में व्यक्त हुआ है कि पलायन और किसानों की आत्महत्या के चलते गाँव खाली हो रहे हैं , स्थिति इतनी खराब हो चुकी है कि - अब तो मिट्टी तरसने लगी है/ कुम्हार के हाथों की एक-एक छुअन के लिए।
किसी कवि का जनपदीय चेतना से लैस होने का मतलब यह कतई नहीं है कि उस कवि की अपील उस जनपद विशेष तक ही सीमित रहेगी । स्थानीयता ही विश्वजनीनता की पहली शर्त है। स्थानीय हुए बिना वैश्विक नहंी हुआ जा सकता है। रजत कृष्ण की कविताएं भी इस बात को सिद्ध करती हैं। उनकी कविताओं की विषयवस्तु भले ही स्थानीय हो लेकिन उनकी अपील वैश्विक हैै। वे जिन मूल्यों और संकटों की बात करते हैं वह सार्वजनीन मूल्य और सार्वदेशिक संकट हैं । जिन मानवीय संवेगों की बात करते हैं वे सार्वकालिक एवं वैश्विक हैं। जैसे वे मानते हैं -
उस आदमी का जीना / कोई जीना नहीं होता है /
जो सोचता हो /फकत अपनी ही जीत /
अपनी ही मंजिल /और अपने सुखों के बारे में।
यह किसी भी देश और काल के लिए सत्य है। इसी तरह यह उनका विश्वास भी कि -पहाड़ से भारी एक-एक पल/ एक दूसरे का दुःख नापते-नापते सहज कटता है। रजत ऐसी जिंदगी की चाह करते हैं जो टूट-बिखर कर भी फूल की तरह महकती रहे । यह चाहना भी प्राणिमात्र के कल्याण में है। उनके लिए रिश्तों का जो महत्व एवं सार्थकता है वह सभी पर लागू होती है । रिश्ते का मतलब एक दूसरे से जुड़ना मात्र नहीं हैं बल्कि एक -दूसरे के सुख-दुख में बराबर की भागीदारी का मतलब है -
यह एक-दूसरे के पतझर को / अपने अंतस में सहना है /
बसंत को पोर-पोर जीना है /.....
यह अपने हिस्से की धूप को /
तुम्हारे कँपकपाते आँगन में / बिखेरना है /
तुम्हारे घर के अँधेरे को / अपनी हथेलियों में समेटना है।
इन रिश्तों में किसी की अनुपस्थिति को यह महसूस करना कुछ उसी तरह होता है-
जैसे महसूस करता है किसान /
पकी फसलों में /मिट्टी की उपस्थिति को /
हवा ,पानी और धूप की / उपस्थिति को।
ये ऐसे मानवीय मूल्य हैं जो किसी भी देश और काल में पुराने नहीं पड़ते । यही कारण है ये कविताएं पाठक के मन में कुछ उसी तरह किलकती हैं जैसे उनकी कविताओं में आया धान धरती की कोख में । इनमें क्रियाशील जीवन का उल्लास छलक-छलक पड़ता है जो नख-सिख तक स्फुरण पैदा कर देता है। इन कविताओं में आशा का प्रस्फुटन भी है -
अंधेरे की उमर/ चार पहर से अधिक /
भला कब हुई / खटखटाना /
साहस और धैर्य की /कुंडियाँ /सूरज /
खुद दरवाजा खोलेगा ।
इसके लिए वे किसी दूसरे पर भरोसा न करने या कोई आएगा और उनको मुक्ति दिलाएगा के भ्रम को न पालने की सलाह देते हैं -
आएगा न कोई मुक्तिदाता / ’ भरम काल‘ से/
निकलें-निकलाएं / चलो संगी बीड़ी सिपचाएं/
रोम कोई जुड़ाएं न / आग दहकाएं ।
ये ही कविताएं हैं जो निराशा में आशा ,उदासी में उजास ,हताशा में उत्साह का संचार कर जीवन संग्राम में संघर्ष की नई ताकत प्रदान करती हैं। ऐसी कविताओं के रहते कोई भी अपने को पस्तहिम्मत महसूस नहीं कर सकता है और कह उठता है-
नापूँगा मैं /पहाड़ों की दुर्गम चाटियाँ /
अंधेरे को नाथकर / चाँदसे बातें करूँगा।
रजत की कविता में यह ऊर्जा कहाँ से पैदा हुई इस के स्रोत भी हमें उनकी कविताओं में मिलते हैं-
मेरी रगों में /सूर्य के जाए /
अन्नदाता का खून है/ मेरी जड़ में /गर्माहट है /
महानदी की कोख की ।
इस तरह वे घनी होती दुख की रात को और ठस होती जिंदगी के ठसपन को दूर करने का हौसला हासिल करते हैं। स्वयं रास्ते खोजते हैं मुकाम तक पहुँचते हैं । उनका मानना है कि बैठे-बिठाए साकार नहीं होते सपने । दुख कवि को परास्त नहीं करता बल्कि लड़ने की प्रेरणा देता है। लोगों का दुख देखकर अपना दुख छोटा लगने लगता है और कवि अपनी दुनिया में लौट आता है । ....घटा रुपए का मूल्य इस साल / इस साल घटा और भी मूल्य आदमी का । यह मानवीय मूल्यों के ह्रास की चिंता है।
जनपदीय होने का मतलब गैर-राजनैतिक होना भी नहीं होता है । ये कविताएं ऊपरी तौर पर राजनैतिक न लगते हुए भी अपनी तरह से राजनैतिक कविताएं हैं । राजनीति -अर्थनीति के देशी-विदेशी संदर्भ इन कविताओं में आए हैं । अपनी तरह से उसकी आलोचना करती हैं। पूँजीवादी लोकतंत्र में लोक की हैसियत एक वोट के सिवा कुछ नहीं होती है इस बात को ये कविताएं अच्छी तरह बताती हैं। यह लोकतंत्र की विडंबना है -
यह नयी सरकार चुनने का वक्त है/
और हम जिन्हें चुनने जा रहे हैं/
उनके चुनाव के लिए/
बहुत-बहुत शर्मिंदा हैं। .....
अंबानी के सपनों में पल रहे इस देश में ‘ -
कितनी ही सरकारें / हमने चुनीं /
कितनी ही खारिज की / पर यहाँ कुछ चीजें हैं कि /
कभी नहीं बदली / कभी नहीं सुधरी ।
आजादी को साठ साल से अधिक हो गए हैं एक दर्जन से अधिक सरकारें बदल चुकी हैं पर आज तक न ’फगनूराम गोड़ ‘ की फटी कमीज सिली-तुनी जा सकी , न ’राम प्रकाश सिंह ‘ की पाँवों की घिसट रही चप्पल बदली। कमीज का फटापन और चप्पल की घिसटन हर सरकार को दिखती है । उसे बदलने-सुधारने की बातें भी होती हैं ,योजनाएं भी बनती हैं पर उनमें आज तक अमल नहीं हो सका। यह हैं लोकतंत्र के हाल । अब तो यह हाल है कि लोक के नाम पर बनी सरकार ही लोक को दगा देने में जुटी हुई है । ’ जरखरीद -बिक्री ‘ कविता में इसी पीड़ा की अभिव्यक्ति हुई है । प्रकृति की मार तथा गाँव के मुखिया-महाजन का जुलुम तो किसान सालों-साल से सहते आ रहे हैं जिसको सहने की आदत भी उन्होंने बना ली है पर अब की बेर की आफत तो इससे बड़ी है जो हमारी कही जाने वाले सरकार ने पैदा की है।
इस तरह हम पाते हैं कि रजत कृष्ण की इन कविताओं में उनका पूरा परिवेश और समय बोलता है । भाषा और शिल्प की दृष्टि से भी उनकी कविताओं में कमजोरी नजर नहीं आती है। भाषा सहज-सरल एवं सरस है । इस संदर्भ में डा0 जीवन सिंह ने सही लिखा है ,’’ कवि ने अपनी कला-भाषा का आविष्कार कर लिया है।वह जिसे जितना देखता है ,स्पर्श करता है ,सूँघता है ,सुनता है और आस्वादन करता है ,वहीं से उनकी भाषा-बोली भी लाता हैै। भाषा के भीतर बोली का रचाव ने इनकी रचनात्मक व्यंजना को दुगुना कर दिया है। ‘‘ पर थोड़ा आश्चर्य इस बात पर होता है कि पिछले लंबे समय से उनके राज्य में जल-जंगल-जमीन के लिए चले रहे आदिवासियों के संघर्ष और उसके दमन की कोई सशक्त अनुगूँज जाने क्यों उनकी कविताओं में नहंीं आ पाई ? साथ ही जाने क्यों कहीं-कहीं वे भावुकतावश वैज्ञानिकता को नकारते हुए दिखाई देते हैं। आशा की जानी चाहिए कि आगे वे इन सीमाओं से मुक्त होंगे। अभी कवि के इस पहले संग्रह का स्वागत किया जाना चाहिए जो अपनी छत्तीसगढ़ी जमीन की महक के साथ हमारे हाथों में है।
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छत्तीस जनों वाला घर ( कविता संग्रह) रजत कृष्ण प्रकाशकः संकल्प प्रकाशन बागबाहरा ,जिला: महासमुंद (छ0ग0) 493449 मूल्य: साठ रूपए
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संपर्क -महेश चंद्र पुनेठा जोशी भवन निकट लीड बैंक पिथौरागढ़ 262501 (उत्तराखंड)
इस कथन के आलोक में यदि हम रजत कृष्ण के सद्य प्रकाशित कविता संग्रह ’ छत्तीस जनों वाला घर ‘ को देखें तो हम पाते हैं कि उनकी कविताओं में प्रकृति भी है और लौकिक वस्तुओं के रंग-रूप भी जिसमें पाठक अपने देश को देख सकता है। उनका पूरा जनपद उनकी कविताओं में बोल उठता है। उसे यहाँ देखा जा सकता है। यहाँ जीवन की वे बड़ी और भावसंपन्न स्मृतियाँ भी हैं जिनसे मानवीय संबंधों में सरसता और सुंदरता आती है। उनकी ये कविताएं जनपदों की ताकत का अहसास कराती हैं। युवा कविता पर अक्सर आरोप लगाया जाता है कि वह ठस एवं एकरस होती जा रही है । उसमें मध्यवर्गीय या नागर जीवन ही अधिक व्यक्त हो रहा है । गाँव या जनपद के जीवनानुभव एवं प्रकृति कविता से गायब होती जा रही है । अगर कहीं व्यक्त हो भी रही है तो अतीत मोह एवं भावुकता उसमें हावी है। जनपदीय जीवन न आ पाने के चलते इंद्रियबोध में कमी आ गई है । वैचारिकता का अधिक बोझ पड़ गया है । इस सबके चलते कविता में सरसता का ह्रास होता जा रहा है । कविता शुष्क गद्य में बदलती जा रही है जिसके चलते कविता से पाठकों का मोह भंग हो रहा है। पर रजत कृष्ण की कविताओं को पढ़ते हुए ये आरोप गलत साबित होते हैं। उनकी कविताएं सेव की तरह हैं जिनमें पौष्टिकता के साथ-साथ सरसता भी है ,जो जनपदों की इंद्रधनुषी दुनिया से हमारा परिचय कराती हैं।
उनके जनपद की दुनिया अनूठी है वहाँ ’ छत्तीस जनों वाला घर‘ है जो चाह कर भी शहर में संभव नहीं है। एक ऐसा घर जहाँ चारों ओर से प्रवेश किया जा सकता है । कहीं कोई रोक-टोक नहीं । किसी अभिजात्य घर की तरह नहीं , जिसमें चाहर-दीवारी और मात्र एक प्रवेश द्वार या एक रास्ता होता है। जहाँ बाड़ी है , कुँआ है , कोठा है , खलिहान है , सिलबट्टा है ,जाँता है सबसे बड़ी बात यह घर ’ हम दो -हमारे दो ‘ के लिए न होकर छत्तीस जनों के लिए है। वहाँ ’ खेत‘ मात्र जमीन का टुकड़ा नहीं है बल्कि पुरखों के खून-पसीने से महकती मिट्टी का पर्याय है जहाँ झूमते पेड़ की छाँव तले हल जोतते हुए सुस्ताते बाबूजी ,निंदाई-रोपाई करती माँ , चमकती देह वाले घाँवरा और ललहूँ बैल दिखते हैं और जब-हम कहते हैं
खेत /और हमारे अंतस जल में /
शहद सी घुल मिल जाती है/ बनिहार-बुतिहारों की /
मेहनत कसी बोली / हँसी-ठिठोली ।
वहाँ खेत के साथ भी एक आत्मीय रिश्ता है।’ खेत‘ शब्द एक व्यापक अर्थ लिए हुए है। वहाँ पड़ोसी भी खालिस पडोसी नहीं कोई न कोई रिश्ता है उनके साथ भी । कोई जीजा है तो कोई काका। वे एक-दूसरे से केवल औपचारिक रूप से नहीं जुड़े हैं बल्कि उनके सुख-दुख एक हैं -
खिड़की के रास्ते से ही/ जाते हैं पड़ोसी के घर/
हमारे यहाँ से / दूध-दही / आचार-पापड़ /
हमारी बाड़ी के / भटा -मूली -गोभी -टमाटर /
पड़ोसियों की रसोई में पहुँचे बिना/ कभी नहीं झरते /....
उनके घर पके / आम-अमरुद -जामुन /
बिना हमारे यहाँ पहुँचे / असल स्वाद नहीं देते।
समीक्ष्य संग्रह में ’पवन‘ ,’पानी‘ ,’आग‘ , ’पेड़‘ आसमान ,सूरज ,चाँद ,सितारों पर अनेक कविताएं हैं । इन विषयों पर इतनी आत्मीय कविताएं एक जनपदीय बोध का कवि ही लिख सकता है। उनकी कविता में सूरज ,चाँद ,तारे ,आसमान सभी आते हैं पर वे सबसे अधिक महत्व धरती को ही देते हैं। इन सबकी बातें वे धरती के बिना अधूरी मानते हैं। धरती है तभी तो आसमान ,सूरज ,चाँद ,सितारों की सार्थकता है-
आसमान ,सूरज ,चाँद/ और तारों की बातें /
धरती के बिना /अधूरी है ....बस/
एक धरती ही /हमें गोद में लेती /
चादर ओढ़ाती / और छाती से चिपटाकर /
सदा-सदा के लिए /बिछ जाती है।
कवि का धरती को यह सम्मान देना प्रकारांतर से उसके जन को सम्मान देना है। प्रकृति उनके यहाँ एक ऐसे संगी-साथी या रिश्तेदार के रूप में आती है जो बातें करती है ,साथ चलती है, रास्ता बताती है ,कंघा थपथपाती है, आश्वस्त करती है आत्मीय बनकर ’आदिम-मितान‘ की भूमिका निभाती है-
थकने लगती है /आँखें जब /
सुदूर जंगली इलाके में / किसी अपने को न पाकर/
ऊँचे तनकर खड़े पेड़ /
सबसे करीबी बन/थपथपाते हैं कंधे/
आश्वस्त करती हैं चिड़ियाँ /हममें भी है अपनापन।
यहाँ ’अस्पताल का नारियल पेड़‘ भी बातें करता है। भीतर आ बैठता है । उससे एक रिश्ता जुड़ जाता है-
फल से लदे / इस पेड़ का /
कोई खत / मुझे नहीं मिला /
ना ही मैंने / कभी इसे लिखा /
देखो फिर भी / जुड़ आया है / इससे एक रिश्ता ।
प्रकृति से इस तरह के रिश्ते जनपदीय चेतना के कवियों की कविताओं में ही मिलते हैं। यह मनुष्य के साथ प्रकृति का पुराना रिश्ता है जो शहरीकरण के चलते कमजोर होता चला गया है। जो आत्मीयता ,जो उल्लास ,जो सादगी, जो सरलता हमें इन कविताओं में दिखती है वह केवल जनपदों में ही मिलती है। इसी के चलते ’सूखे के दिन ‘ भी कट जाते हैं क्योंकि वहीं मिलती है ’दीवाली का दीया ‘ रखने की यह परंपरा -
बाड़ी -बखरी में / दुआर में ,कोठार में /
चाहे जहाँ रखो दिया/ पर एक बचा लेना /
घर की देहरी में रखने / कि आते-जाते हरेक चेहरा /
जगमग दिखे / कटे हर मन का अंधेरा ।
दूसरे की ऐसी चिंता आप और कहाँ दिखती हैं। भले ही आज बाजारवाद के प्रभाव से ये जनपद भी अछूते नहीं रहे फिर भी बहुत कुछ है इसमें से जो वहाँ बचा हुआ है यह केवल कविता तक नहीं समझा जाय।
किसान और जनपद एक दूसरे के पर्याय हैं। जब भी जनपद की बात आएगी वह तब तक पूरी नहीं होगी जब तक किसान की बात न की जाय। रजत किसान-जीवन के कवि हैं। इन कविताओं में किसान जीवन का कटु यथार्थ एवं संघर्ष ....अच्छी फसल होने की खुशी और उस खुशी का गायब होना ....फसल के लहलहाने के साथ किसान के स्वप्नों का लहलहाना....महाजन का शोषण ,किसान की मजदूर में बदलने की विडंबना व उसके खिलाफ उसका प्रतिरोध आदि यत्र-तत्र व्यक्त हुआ है। किसान-घर का उल्लास ’ अगहन की सुबह ‘ में देखा जा सकता है। यह खुशी-उल्लास जिसमें घर के कमइया/और बनिहार-बुतिहार सभी / हुलस-हुलस के बोल रहे हैं। आज धान कटाई शुरू होने वाली है। खुशी ऐसी कि जैसे धान नहीं कोई आत्मीय व्यक्ति घर आने वाला हो। अद्भुत है यह खुशी लगता है जैसे घर भर के लोगों में खुशी के पंख लग गए हों -
यह अगहन की /उगती हुई एक सुबह है/
एक सुबह/ जाँगर-पेरते माँ-बाबूजी की रगों में /
चौकड़ी भरती / चौकड़ भरती इस सुबह को /
खेत में खड़े धान पर / हँसिया गिरना है/
घर-भर की आँखें उज्जर होना है।
ऐसी चौकड़ी भरती सुबह क्या किसी नगर-महानगर में देखी जा सकती है? मुझे याद नहीं आता कि ‘ चौकड़ी भरती सुबह ‘ जैसे बिंब का प्रयोग मैंने कहीं और किसी कविता में पढ़ा हो। इस अद्भुद सुबह के अनुभव को क्या नगर में रहने वाला कोई कवि व्यक्त कर सकता है ? यह है जनपद की ताकत और ताजगी । जनपद के कवि के पास ही यह विशिष्ट अनुभव हो सकता है जो पाठक के मन को हुलसित कर देता है। मन प्रसन्न हो जाता है ..... इस खुशी का क्या कोई मुकाबला है कि जिसमें घर-भर की आखें उज्जर हो जाती हों । यह उजास श्रम से पैदा हो रहा है। ऐसा सामूहिक उजास आज के व्यक्तिवादी युग में केवल जनपदों में ही बचा रह गया है । इस उजास का अनुभव भी जनपद में बसा कोई लोकधर्मी कवि करा सकता है। फसल कटाई ,फसल मिंजाई का दिन एक उत्सव होता है यहाँ । यह उत्सव श्रम की संलग्नता से पैदा होता है। कितना पुरसुकून जीवन है ये । मन आत्मीयता से भर उठता है। यहाँ नहीं है मूड़ उठाने तक की फुरसत पर इसमें भी आनंद है। सही-गलत तरीके से और कम से कम श्रम कर अधिकाधिक धन कमाने के पीछे भागती हुई इस दुनिया में श्रम से पैदा यह आनंद एक प्रतिसंसार की सृष्टि करता है जहाँ केवल श्रम करने वाले ही प्रतिष्ठा पा सकते हैं। बैठे ठाले लोगों के प्रति वहाँ कैसा व्यवहार होता है ’ वे जो बैठे ठाले खाते हैं ‘ कविता में देखा जा सकता है-
चाहे हों /वे कितने ही विचारवान धनी-मानी /
और गुणवान / मुहल्ले की /
किसी मिटिंग में /ऐसे लोगों की /
नहीं पूछता कोई/वे जो /बैठे ठाले खाते हैं/
उनके घर सामने के रास्ते / बेहद उदास /
और थके-हारे दिखते हैं ।
ऐसा केवल जनपदों में ही हो सकता है। श्रम के प्रति यही सम्मान और आस्था जनपदों का चरित्र है। केवल गाँवों में ही यह देखने को मिलता है जहाँ बैठे-ठाले लोगों से कोई भी किसी तरह का संबंध नहीं रखना चाहता है। इस तरह के लोगों से संबंध रखना असम्मान की बात समझी जाती है। वहाँ तो छोटे से लेकर बड़े तक सभी श्रम संलग्न देखे जा सकते हैं । स्त्री-पुरुष के बीच कामों का बँटवारा नहीं है । ’ खलिहान में ‘ इसका उदाहरण देख सकते हैं-
बाबू जी धान मिंज रहे हैं / मिंज चुके धान को /
माँ ओसा रही है /.....भाई पंखा ओटा रहा है /
और धान सकेल-सकेल के /बहन माँ को दे रही है ।
ऐसी सामूहिकता कहाँ संभव है ? यही है जो पूरे परिवार और समाज को जोड़े रखती है। बिल्कुल सही है कवि का यह कहना -
तो इनसा धनी -मानी /और प्रतापी /
दुनिया भर में दूसरा कोई / लगता नहीं।
यह धन को ही सबकुछ समझने वाली दुनिया की आलोचना है। पूँजीप्रधान दुनिया में सब कुछ मिल सकता है पर ऐसी सामूहिकता और आत्मीयता दुर्लभ है। यही है जो मनुष्यता की रक्षा करती है। इस तरह इन कविताओं द्वारा बैठे-ठाले लोगों जो इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रतीक मानते हैं ,को उनकी हैसियत का अहसास कराया गया है तथा श्रम संलग्न लोगों को प्रतिष्ठित । सामूहिक श्रम के प्रति यह गहरी आस्था जनपदीय कविता की खासियत है।
किसान जीवन पर आ रहे संकटों से भी यह कवि बेखबर नहीं है। उन्हें पता है कैसे किसानों की जमीन छीनी जा रही है ,विरोध करने पर कैसे उन पर गोलियाँ चलाई जा रही हैं , किन परिस्थितियों में वे आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं । वे बताते हैं कि अकाल हो या सुकाल किसानों की आत्महत्या का सिलसिला नहीं रूकता। किसान ही नहीं -
इस साल /बहुत से मजदूरों /बहुत से कर्मचारियों /
और बहुत से/ बेरोजगारों ने भी/ आत्महत्या कर ली।
कवि यह भी बखूबी जानता है कि ये आत्महत्या नहीं अप्रत्यक्ष रूप से हत्याएं ही हैं क्योंकि-
ऐसा नहीं / कि इनमें से /किसी ने भी /
कोई कम लड़ा हो / लड़े..... /
हालात से सबके सब /जी भर कर लड़े/
पर अपनी हर लड़ाई में वे इतने अकेले होते गए/
कि जब थके तो / सिर टिकाने को /उन्हें कोई कंधा/
नहीं मिला /टूटे तो सहारा देने/कोई बाँह नहीं मिली।
इसलिए यह आत्महत्या नहीं हत्या ही हैं जिसमें हत्यारा साफ बच निकलता है।
सूखे के दिनों में परेशान किसान की व्यथा भी इन कविताओं में व्यक्त हुई है । हर सुख-दुख में कवि किसान के साथ खड़ा दिखता है। वे दृष्टा नहीं भोक्ता कवि हैं इसलिए उनकी कविताओं में यथार्थ अधिक प्रमाणिक रूप में आया है। रजत की कविता उन किसानों की कविता है जो अकाल-दुकाल से जूझते हुए रोजी-मजूरी कर जैस-तैसे काट लेते हैं जिनगी। ’सुकाल में ‘ किसान क्या-क्या मंसूबे पालता है इन पंक्तियों में देखा जा सकता है -
खड़ी फसल देख / मेड़ पर बैठा जगतू /
सोच रहा है / बेटी के हाथ पीले ही कर देगा /
इस रामनवमी में ।
किसान की अच्छी फसल पर कितनों की गिद्द दृष्टि लगी रहती है । ’अन्नमाता ‘घर नहीं पहँची होती है उससे पहले महाजन ,बैंक नोटिस ,अमीन पटवारी घर पहँच जाते हैं -
महाजन का / पाई-पाई चुकाया चुकता किया बैंक का ऋण /भरा नहर-नाली का / टैक्स भी । इस सब के बाद उस किसान की क्या स्थिति हो जाती है -
कि जगतू राम बल्द भुखऊ भी /
जा खड़ा हुआ उनमें / जो रहे-सहे खेत बेचकर /
इस सुकाल में भी / हो गए /भूमिहीन खेतिहर।
इन पंक्तियों को पढ़ते हुए लगता है कि हमारे जनपदों और वहाँ रहने वाले किसान का जीवन वहीं पड़ा हुआ है जहाँ आजादी से पहले था । प्रेमचंद का ’ गोदान‘ याद हो आता है। समझ में नहीं आता कि आखिर कब तक इसी तरह जगतू-हरकू के खेत बिकते रहेंगे ?कब तक किसान आत्महत्या करते रहेंगे? जनपदों का किसान जीवन का यथार्थ इन कविताओं में बारीकी से व्यक्त हुआ है।साथ ही परिस्थितियों में आए परिवर्तन भी यहाँ दर्ज हुए हैं । कवि पाठक का ध्यान इस विडंबना की ओर खींचता है कि पहले यह ’जुलुम‘ गाँव के मुखिया-महाजन ही करते थे-
अब का जुलुम / सब जुल्मियों के ढाए जुलुम से बड़ा /
हमारी सरकार ने / हमारी छाती पर चढ़ /
हमारी धरती मइया को / जर खरीद बेच दी ।
इसके चलते स्थिति यहाँ तक आ पहुँची है -
बीते क्वाँर में / जिस खेत-खार में/
धान की लहराती बालियो को /
छेड़ते -गुदगुदाते हम लौटे थे धरती से/
दिख नहीं रहे हैं वे कहीं/ नहीं दिख रहे हैं/
कहीं वे किसान / जिनकी बाट जोहती /
आँख में ही / सब से पहले उतरते रहे हैं हम /
बरसों बरस से / नहीं दिख रहे हैं /
जाने-चिन्हें / वे बनिहार-बुतिहार/
मेड़ पर रखवार जस खड़े / वे हरड़ा-बहेड़ा /
आँवला-तेंदू और चार / .....
खेत-खार / अब कहाँ के /
कहाँ के किसान ......किसान अब वर्कर होंगे /
यहाँ बनने वाली फैक्ट्री के /
बनिहार-बुतिहार चले गए शहर/
काम की तलाश में / और जिनसे छूटा नहीं /
गाँव का मोह / वे बँध गए हैं ईंट-ठेकेदारों के ठीए से।
पर अच्छी बात है कि ऐसा नहीं है कि किसान इन सारी स्थितियों को चुपचाप स्वीकार कर ले रहे हों ,वे अपने तरीके से अपना प्रतिरोध भी दर्ज कर रहे हैं कवि इस प्रतिरोध को रेखांकित करता है -
यह गाँव की / सत्तर वर्षीय /
सतरूपा मरारिन थी/ जो जबड़ा पसार रहे /
फैक्ट्री के सामने पड़ती / अपनी बत्तीस डिसमिल /
जमीन को / जीते जी न छोड़ने की /
कसम खाए बैठी थी।
इस तरह इन कविताओं में देश के अन्य भागों से लेकर छत्तीसगढ़ तक के उस सत्य को व्यक्त किया गया है जिसमें बड़ी पूँजी को लाभ पहुँचाने के लिए किसानों को उनकी जमीन से बेदखल कर उनको मजदूर बनने के लिए मजबूर किया जा रहा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लाभ पहुँचाने के लिए कृषि क्षेत्र में वैश्वीकरण-उदारीकरण की नीतियों को लागू करखेती को बरबाद किया जा रहा है। फलस्वरूप किसानों को आत्महत्या की ओर धकेला जा रहा है। यह सत्य भी इन कविताओं में व्यक्त हुआ है कि पलायन और किसानों की आत्महत्या के चलते गाँव खाली हो रहे हैं , स्थिति इतनी खराब हो चुकी है कि - अब तो मिट्टी तरसने लगी है/ कुम्हार के हाथों की एक-एक छुअन के लिए।
किसी कवि का जनपदीय चेतना से लैस होने का मतलब यह कतई नहीं है कि उस कवि की अपील उस जनपद विशेष तक ही सीमित रहेगी । स्थानीयता ही विश्वजनीनता की पहली शर्त है। स्थानीय हुए बिना वैश्विक नहंी हुआ जा सकता है। रजत कृष्ण की कविताएं भी इस बात को सिद्ध करती हैं। उनकी कविताओं की विषयवस्तु भले ही स्थानीय हो लेकिन उनकी अपील वैश्विक हैै। वे जिन मूल्यों और संकटों की बात करते हैं वह सार्वजनीन मूल्य और सार्वदेशिक संकट हैं । जिन मानवीय संवेगों की बात करते हैं वे सार्वकालिक एवं वैश्विक हैं। जैसे वे मानते हैं -
उस आदमी का जीना / कोई जीना नहीं होता है /
जो सोचता हो /फकत अपनी ही जीत /
अपनी ही मंजिल /और अपने सुखों के बारे में।
यह किसी भी देश और काल के लिए सत्य है। इसी तरह यह उनका विश्वास भी कि -पहाड़ से भारी एक-एक पल/ एक दूसरे का दुःख नापते-नापते सहज कटता है। रजत ऐसी जिंदगी की चाह करते हैं जो टूट-बिखर कर भी फूल की तरह महकती रहे । यह चाहना भी प्राणिमात्र के कल्याण में है। उनके लिए रिश्तों का जो महत्व एवं सार्थकता है वह सभी पर लागू होती है । रिश्ते का मतलब एक दूसरे से जुड़ना मात्र नहीं हैं बल्कि एक -दूसरे के सुख-दुख में बराबर की भागीदारी का मतलब है -
यह एक-दूसरे के पतझर को / अपने अंतस में सहना है /
बसंत को पोर-पोर जीना है /.....
यह अपने हिस्से की धूप को /
तुम्हारे कँपकपाते आँगन में / बिखेरना है /
तुम्हारे घर के अँधेरे को / अपनी हथेलियों में समेटना है।
इन रिश्तों में किसी की अनुपस्थिति को यह महसूस करना कुछ उसी तरह होता है-
जैसे महसूस करता है किसान /
पकी फसलों में /मिट्टी की उपस्थिति को /
हवा ,पानी और धूप की / उपस्थिति को।
ये ऐसे मानवीय मूल्य हैं जो किसी भी देश और काल में पुराने नहीं पड़ते । यही कारण है ये कविताएं पाठक के मन में कुछ उसी तरह किलकती हैं जैसे उनकी कविताओं में आया धान धरती की कोख में । इनमें क्रियाशील जीवन का उल्लास छलक-छलक पड़ता है जो नख-सिख तक स्फुरण पैदा कर देता है। इन कविताओं में आशा का प्रस्फुटन भी है -
अंधेरे की उमर/ चार पहर से अधिक /
भला कब हुई / खटखटाना /
साहस और धैर्य की /कुंडियाँ /सूरज /
खुद दरवाजा खोलेगा ।
इसके लिए वे किसी दूसरे पर भरोसा न करने या कोई आएगा और उनको मुक्ति दिलाएगा के भ्रम को न पालने की सलाह देते हैं -
आएगा न कोई मुक्तिदाता / ’ भरम काल‘ से/
निकलें-निकलाएं / चलो संगी बीड़ी सिपचाएं/
रोम कोई जुड़ाएं न / आग दहकाएं ।
ये ही कविताएं हैं जो निराशा में आशा ,उदासी में उजास ,हताशा में उत्साह का संचार कर जीवन संग्राम में संघर्ष की नई ताकत प्रदान करती हैं। ऐसी कविताओं के रहते कोई भी अपने को पस्तहिम्मत महसूस नहीं कर सकता है और कह उठता है-
नापूँगा मैं /पहाड़ों की दुर्गम चाटियाँ /
अंधेरे को नाथकर / चाँदसे बातें करूँगा।
रजत की कविता में यह ऊर्जा कहाँ से पैदा हुई इस के स्रोत भी हमें उनकी कविताओं में मिलते हैं-
मेरी रगों में /सूर्य के जाए /
अन्नदाता का खून है/ मेरी जड़ में /गर्माहट है /
महानदी की कोख की ।
इस तरह वे घनी होती दुख की रात को और ठस होती जिंदगी के ठसपन को दूर करने का हौसला हासिल करते हैं। स्वयं रास्ते खोजते हैं मुकाम तक पहुँचते हैं । उनका मानना है कि बैठे-बिठाए साकार नहीं होते सपने । दुख कवि को परास्त नहीं करता बल्कि लड़ने की प्रेरणा देता है। लोगों का दुख देखकर अपना दुख छोटा लगने लगता है और कवि अपनी दुनिया में लौट आता है । ....घटा रुपए का मूल्य इस साल / इस साल घटा और भी मूल्य आदमी का । यह मानवीय मूल्यों के ह्रास की चिंता है।
जनपदीय होने का मतलब गैर-राजनैतिक होना भी नहीं होता है । ये कविताएं ऊपरी तौर पर राजनैतिक न लगते हुए भी अपनी तरह से राजनैतिक कविताएं हैं । राजनीति -अर्थनीति के देशी-विदेशी संदर्भ इन कविताओं में आए हैं । अपनी तरह से उसकी आलोचना करती हैं। पूँजीवादी लोकतंत्र में लोक की हैसियत एक वोट के सिवा कुछ नहीं होती है इस बात को ये कविताएं अच्छी तरह बताती हैं। यह लोकतंत्र की विडंबना है -
यह नयी सरकार चुनने का वक्त है/
और हम जिन्हें चुनने जा रहे हैं/
उनके चुनाव के लिए/
बहुत-बहुत शर्मिंदा हैं। .....
अंबानी के सपनों में पल रहे इस देश में ‘ -
कितनी ही सरकारें / हमने चुनीं /
कितनी ही खारिज की / पर यहाँ कुछ चीजें हैं कि /
कभी नहीं बदली / कभी नहीं सुधरी ।
आजादी को साठ साल से अधिक हो गए हैं एक दर्जन से अधिक सरकारें बदल चुकी हैं पर आज तक न ’फगनूराम गोड़ ‘ की फटी कमीज सिली-तुनी जा सकी , न ’राम प्रकाश सिंह ‘ की पाँवों की घिसट रही चप्पल बदली। कमीज का फटापन और चप्पल की घिसटन हर सरकार को दिखती है । उसे बदलने-सुधारने की बातें भी होती हैं ,योजनाएं भी बनती हैं पर उनमें आज तक अमल नहीं हो सका। यह हैं लोकतंत्र के हाल । अब तो यह हाल है कि लोक के नाम पर बनी सरकार ही लोक को दगा देने में जुटी हुई है । ’ जरखरीद -बिक्री ‘ कविता में इसी पीड़ा की अभिव्यक्ति हुई है । प्रकृति की मार तथा गाँव के मुखिया-महाजन का जुलुम तो किसान सालों-साल से सहते आ रहे हैं जिसको सहने की आदत भी उन्होंने बना ली है पर अब की बेर की आफत तो इससे बड़ी है जो हमारी कही जाने वाले सरकार ने पैदा की है।
इस तरह हम पाते हैं कि रजत कृष्ण की इन कविताओं में उनका पूरा परिवेश और समय बोलता है । भाषा और शिल्प की दृष्टि से भी उनकी कविताओं में कमजोरी नजर नहीं आती है। भाषा सहज-सरल एवं सरस है । इस संदर्भ में डा0 जीवन सिंह ने सही लिखा है ,’’ कवि ने अपनी कला-भाषा का आविष्कार कर लिया है।वह जिसे जितना देखता है ,स्पर्श करता है ,सूँघता है ,सुनता है और आस्वादन करता है ,वहीं से उनकी भाषा-बोली भी लाता हैै। भाषा के भीतर बोली का रचाव ने इनकी रचनात्मक व्यंजना को दुगुना कर दिया है। ‘‘ पर थोड़ा आश्चर्य इस बात पर होता है कि पिछले लंबे समय से उनके राज्य में जल-जंगल-जमीन के लिए चले रहे आदिवासियों के संघर्ष और उसके दमन की कोई सशक्त अनुगूँज जाने क्यों उनकी कविताओं में नहंीं आ पाई ? साथ ही जाने क्यों कहीं-कहीं वे भावुकतावश वैज्ञानिकता को नकारते हुए दिखाई देते हैं। आशा की जानी चाहिए कि आगे वे इन सीमाओं से मुक्त होंगे। अभी कवि के इस पहले संग्रह का स्वागत किया जाना चाहिए जो अपनी छत्तीसगढ़ी जमीन की महक के साथ हमारे हाथों में है।
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छत्तीस जनों वाला घर ( कविता संग्रह) रजत कृष्ण प्रकाशकः संकल्प प्रकाशन बागबाहरा ,जिला: महासमुंद (छ0ग0) 493449 मूल्य: साठ रूपए
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संपर्क -महेश चंद्र पुनेठा जोशी भवन निकट लीड बैंक पिथौरागढ़ 262501 (उत्तराखंड)
6 टिप्पणियाँ
खिड़की के रास्ते से ही/ जाते हैं पड़ोसी के घर/
जवाब देंहटाएंहमारे यहाँ से / दूध-दही / आचार-पापड़ /
हमारी बाड़ी के / भटा -मूली -गोभी -टमाटर /
पड़ोसियों की रसोई में पहुँचे बिना/ कभी नहीं झरते /....
उनके घर पके / आम-अमरुद -जामुन /
बिना हमारे यहाँ पहुँचे / असल स्वाद नहीं देते।
जितनी अच्छी रचनायें उतना ही अच्छा उनका विश्लेषण। पुस्तक को आँखों के आगे प्रस्तुत करने जैसी समीक्षा।
मनोयोग से की गयी समीक्षा है। पुनेठा जी का धन्यवाद कि उन्होंने रजत कृष्ण जैसे कवि से परिचित कराया।
जवाब देंहटाएंरजत कृष्ण में अपने आसपास को देखने समझने और उसे अभिव्यक्त करने की गहरी समझ है। समीक्षा बहुत ही बारीकी से की गयी है। धन्यवाद महेश पुनेठा जी।
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएं-Alok Kataria
Rajat kee kavitai to unhi kee hee tarah saral hotee hai...unkee kavitaon ka bada achchha chitran kiya Punetha jee apane. ek bar mai unkee kavita sun ro pada tha...
जवाब देंहटाएंitne achhe kavi ko padhvaane ke liye abhaar mahesh ji aapki sameeksha se kavitayen parat dar parat khulti hain.. jeevan ka koi pahloo kavi ne achhoota nhi chhoda hai aur aapne har rang ko thoda sa uthhakar sameeksha me bhra hai.. bahut sookshm aur gahan drishti hai aapki.. abhaar.
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.