प्यारे बच्चों,
"बाल-शिल्पी" पर आज आपके डॉ. मो. अरशद खान अंकल आपके लिये ले कर आये हैं एक कहानी रावण और हनुमान | तो आनंद उठाईये इस अंक का और अपनी टिप्पणी से हमें बतायें कि यह अंक आपको कैसा लगा।
- साहित्य शिल्पी
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रामलीला के आयोजक उन्हें महीनों पहले संवादों के पुलिंदे थमा देते थे। पांचवीं पास संकटा प्रसाद जी अटक-अटककर पढ़ते और दिन भर दुहरा-दुहराकर याद करते रहते। संवाद याद करने में वह इतने मगन हो जाते कि भूल जाते वह अपनी छोटी-सी दूकान में बैठे हैं। दूकान उनके लिए लंका बन जाती और वह लंकेश्वर।
एक दिन संकटा प्रसाद जी अपने आप में डूबे संवाद याद कर रहे थे कि ससुराल से उनका नार्इ, जिसका नाम हनुमान था, आ पहुंचा। दीवाली नजदीक थी। सासू जी ने त्योहारी भिजवार्इ थी।
नार्इ थोड़ी देर प्रतीक्षा में खड़ा रहा कि संकटा प्रसाद जी कुछ कहें। पर वह क्या कहते? वह तो आखें बंद किए दूसरी ही दुनिया में खोए हुए थे। खांसने-खंखारने से भी काम न चला तो नार्इ ने धीरे से आवाज दी, ''दामाद जी ''
संकटा प्रसाद जी उस समय लंका कांड के संवाद याद कर रहे थे। हनुमान ने सारी अशोक वाटिका तहस-नहस कर दी थी और अब मेघनाथ उन्हें नागपाश में बांधकर दरबार में लाया था। रावण पूछ रहा था, ''रे शठ तू कौन है'' नार्इ को कुछ समझ में न आया। वह बेचारा घबरा गया। कहां तो वह सोचकर आया था कि खूब खातिरदारी होगी, तर माल खाने को मिलेगा, भेंट-उपहार मिलेंगे, पर यहां तो सारा दृश्य ही बदला हुआ था। संकटा प्रसाद जी लाल-पीली आंखों से उसे घूर रहे थे और पूछ रहे थे, ''रे शठ तू कौन है ? नार्इ घबरा गया और हड़बड़ाकर बोला, ''मैं हनुमान हूं, सरकार ''
नार्इ ने समझा कि मेघनाथ इनके किसी नौकर का नाम है। जब नाम ही पहलवान जैसा है तो वह खुद कैसा होगा। नौकर होते भी बड़े निर्दयी हैं। पा गया तो बहुत धुलार्इ करेगा। यह सोचकर बेचारे नार्इ की हालत पतली हो गर्इ।
संकटा प्रसाद जी हवा में हाथ लहराते हुए चीखे, ''कहां है मेरी तलवार, चंद्रहास? अभी इस दुष्ट को खंड-खंड करता हूं।
अब तो नार्इ से न रहा गया। उसने पोटली उठार्इ और सिर पर पैर रखकर भाग निकला। संकटा प्रसाद जी ने उसे भागता देखा तो चीखे, ''सैनिकों, पकड़ो इस धृष्ट को भागने न पाए ''।
लेकिन सैनिक तो थे नहीं जो उनके आदेश का पालन करते। वह खुद ही उसके पीछे-पीछे दौड़ पड़े। आगे-आगे नार्इ और पीछे-पीछे संकटा प्रसाद जी, हाथों में अदृश्य तलवार लहराते हुए।
नार्इ को गांव के गलियारों का अंदाजा तो था नहीं, वह भागता-भागता तालाब की ओर निकल आया। अब वह बुरा फंसा। जाए तो जाए कहां ? एक तरफ कुआं तो दूसरी तरफ खार्इ। आगे कीचड़ और दलदल से भरा तालाब था तो पीछे संकटा प्रसाद जी दौड़े चले आ रहे थे। नार्इ को लगा बचना संभव नहीं है तो 'अरे राम अरे राम कहता हुआ तालाब में कूद पड़ा।
पीछे-पीछे संकटा प्रसाद जी भी दलदल में समाने वाले थे कि शोर सुनकर गांव वाले उधर आ निकले। उन लोगों ने संकटा प्रसाद जी को पकड़कर झिंझोड़ा तब कहीं उन्हें होश आया।
गांव वालों ने बड़ी मुशिकल से नार्इ को दलदल से बाहर निकाला। बाहर आते ही वह जोर-जोर से रोने लगा। लोगों ने पूछा तो कहने लगा, ''मेरी पोटली तालाब में ही छूट गर्इ।
''पोटली में क्या था ''
यह सुनते ही संकटा प्रसाद जी की सारी खुमारी हिरन हो गर्इ। लेकिन अब हाथ मलकर पछताने के सिवा चारा ही क्या बचा था। दलदल में उतरकर सामान तलाशना भूसे के ढेर में सुर्इ खोजने के बराबर था।
आखिरकार संकटा प्रसाद जी मुंह लटकाकर वापस लौट चले। तभी पीछे से किसी मसखरे ने व्यंग्य किया, ''संकटा प्रसाद जी, अब रामायण छोड़कर महाभारत के संवाद याद करना शुरू कर दीजिए क्योंकि चाची को सब कुछ पता चल गया है ''। यह सुनकर सारे लोग ठहाका मारकर हंस पड़े।
एक थे संकटा प्रसाद जी। गांव की रामलीला में वह हमेशा रावण का रोल करते थे। लंबा-चौड़ा शरीर, बड़ी-बड़ी आंखें, भरी-भरी मूंछें। जब उन्हें सजा-बनाकर खड़ा किया जाता तो वह सचमुच रावण से कम न लगते।
संकटा प्रसाद जी थोड़े मंद बुद्धि के थे। बातों को थोड़ा देर से समझते थे। इसके कारण उन्हें अक्सर हंसी का पात्र बनना पड़ता था। अपने संवादों को वह खूब रटकर रखते थे, लेकिन अगर उसमें थोड़ा भी हेर-फेर हो जाए तो बात संभाले न संभलती थी। बोलना चाहते कुछ और मुंह से निकलता कुछ। कभी-कभी तो ऐसी बातें बोल जाते कि सुनने वाले लोटपोट हो जाते।
संकटा प्रसाद जी थोड़े मंद बुद्धि के थे। बातों को थोड़ा देर से समझते थे। इसके कारण उन्हें अक्सर हंसी का पात्र बनना पड़ता था। अपने संवादों को वह खूब रटकर रखते थे, लेकिन अगर उसमें थोड़ा भी हेर-फेर हो जाए तो बात संभाले न संभलती थी। बोलना चाहते कुछ और मुंह से निकलता कुछ। कभी-कभी तो ऐसी बातें बोल जाते कि सुनने वाले लोटपोट हो जाते।
रामलीला के आयोजक उन्हें महीनों पहले संवादों के पुलिंदे थमा देते थे। पांचवीं पास संकटा प्रसाद जी अटक-अटककर पढ़ते और दिन भर दुहरा-दुहराकर याद करते रहते। संवाद याद करने में वह इतने मगन हो जाते कि भूल जाते वह अपनी छोटी-सी दूकान में बैठे हैं। दूकान उनके लिए लंका बन जाती और वह लंकेश्वर।
एक दिन संकटा प्रसाद जी अपने आप में डूबे संवाद याद कर रहे थे कि ससुराल से उनका नार्इ, जिसका नाम हनुमान था, आ पहुंचा। दीवाली नजदीक थी। सासू जी ने त्योहारी भिजवार्इ थी।
नार्इ थोड़ी देर प्रतीक्षा में खड़ा रहा कि संकटा प्रसाद जी कुछ कहें। पर वह क्या कहते? वह तो आखें बंद किए दूसरी ही दुनिया में खोए हुए थे। खांसने-खंखारने से भी काम न चला तो नार्इ ने धीरे से आवाज दी, ''दामाद जी
संकटा प्रसाद जी उस समय लंका कांड के संवाद याद कर रहे थे। हनुमान ने सारी अशोक वाटिका तहस-नहस कर दी थी और अब मेघनाथ उन्हें नागपाश में बांधकर दरबार में लाया था। रावण पूछ रहा था, ''रे शठ तू कौन है'' नार्इ को कुछ समझ में न आया। वह बेचारा घबरा गया। कहां तो वह सोचकर आया था कि खूब खातिरदारी होगी, तर माल खाने को मिलेगा, भेंट-उपहार मिलेंगे, पर यहां तो सारा दृश्य ही बदला हुआ था। संकटा प्रसाद जी लाल-पीली आंखों से उसे घूर रहे थे और पूछ रहे थे, ''रे शठ तू कौन है ? नार्इ घबरा गया और हड़बड़ाकर बोला, ''मैं हनुमान हूं, सरकार ''
हनुमान का नाम सुनते ही जो कसर बची थी वह भी खत्म हो गर्इ। संकटा प्रसाद जी पूरे के पूरे लंका नरेश हो गए। उन्होंने अटटहास लगाकर कहा, ''हे मेघनाथ, इस कपि को क्या दंड दिया जाए ''
नार्इ ने समझा कि मेघनाथ इनके किसी नौकर का नाम है। जब नाम ही पहलवान जैसा है तो वह खुद कैसा होगा। नौकर होते भी बड़े निर्दयी हैं। पा गया तो बहुत धुलार्इ करेगा। यह सोचकर बेचारे नार्इ की हालत पतली हो गर्इ।
संकटा प्रसाद जी हवा में हाथ लहराते हुए चीखे, ''कहां है मेरी तलवार, चंद्रहास? अभी इस दुष्ट को खंड-खंड करता हूं।
अब तो नार्इ से न रहा गया। उसने पोटली उठार्इ और सिर पर पैर रखकर भाग निकला। संकटा प्रसाद जी ने उसे भागता देखा तो चीखे, ''सैनिकों, पकड़ो इस धृष्ट को भागने न पाए ''।
लेकिन सैनिक तो थे नहीं जो उनके आदेश का पालन करते। वह खुद ही उसके पीछे-पीछे दौड़ पड़े। आगे-आगे नार्इ और पीछे-पीछे संकटा प्रसाद जी, हाथों में अदृश्य तलवार लहराते हुए।
नार्इ को गांव के गलियारों का अंदाजा तो था नहीं, वह भागता-भागता तालाब की ओर निकल आया। अब वह बुरा फंसा। जाए तो जाए कहां ? एक तरफ कुआं तो दूसरी तरफ खार्इ। आगे कीचड़ और दलदल से भरा तालाब था तो पीछे संकटा प्रसाद जी दौड़े चले आ रहे थे। नार्इ को लगा बचना संभव नहीं है तो 'अरे राम अरे राम कहता हुआ तालाब में कूद पड़ा।
पीछे-पीछे संकटा प्रसाद जी भी दलदल में समाने वाले थे कि शोर सुनकर गांव वाले उधर आ निकले। उन लोगों ने संकटा प्रसाद जी को पकड़कर झिंझोड़ा तब कहीं उन्हें होश आया।
गांव वालों ने बड़ी मुशिकल से नार्इ को दलदल से बाहर निकाला। बाहर आते ही वह जोर-जोर से रोने लगा। लोगों ने पूछा तो कहने लगा, ''मेरी पोटली तालाब में ही छूट गर्इ।
''पोटली में क्या था ''
''मालकिन ने सौगात भिजवार्इ थी। दामाद जी के लिए कपड़े, मिठाइयां और जीजी के लिए गहने। हाय, अब मैं उन्हें क्या मुंह दिखाऊंगा।
यह सुनते ही संकटा प्रसाद जी की सारी खुमारी हिरन हो गर्इ। लेकिन अब हाथ मलकर पछताने के सिवा चारा ही क्या बचा था। दलदल में उतरकर सामान तलाशना भूसे के ढेर में सुर्इ खोजने के बराबर था।
आखिरकार संकटा प्रसाद जी मुंह लटकाकर वापस लौट चले। तभी पीछे से किसी मसखरे ने व्यंग्य किया, ''संकटा प्रसाद जी, अब रामायण छोड़कर महाभारत के संवाद याद करना शुरू कर दीजिए क्योंकि चाची को सब कुछ पता चल गया है ''। यह सुनकर सारे लोग ठहाका मारकर हंस पड़े।
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डा0 मोहम्मद अरशद ख़ान, शाहजहांपुर
2 टिप्पणियाँ
अच्छी लघुकथा...बधाई
जवाब देंहटाएंaaj is kahani par najar gai .achchi hasya kahani hai, badhai.
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.