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दलित और दो लघुकथायें - आलोक कुमार सातपुते


दलित-1

वह अपनी धुन में मग्न चला जा रहा था कि अचानक, उसे उसके कानों में पिघले शीशे सा कुछ डलता हुआ प्रतीत हुआ। उसने ध्यान दिया, पास ही एक संत मनुस्मृति पर प्रवचन कर रहा है ।

वह चौंक गया । उसे अचानक ही अहसास हो गया कि, वह तो दलित है।


दलित -2

‘‘हम हिन्दू उदार प्रवृत्ति के और सहनशील होते हैं, इसीलिये तो इतने आक्रमणों के बाद भी हमारा धर्म, हमारी संस्कृति जीवित है।’’

‘‘हम मुसलमान अपने धर्म की रक्षा के लिये जान भी लड़ा देते हैं। हम एक-एक, दस-दस के बराबर होते हैं, इसी कारण तो हम इतने व्यापक हैं।’’

‘‘हम सिख हैं। हमारी उत्पत्ति ही मुस्लिम संस्कृति से हिन्दू संस्कृति की रक्षा करने के लिए हुई है। लेकिन हाँ, हम हिन्दू नहीं हैं। हमारी बहादुरी तो जगज़ाहिर है।’’

‘‘हम ईसाई बुद्धिमान होते हैं। हम दलितों को भी अपने धर्म में मिलाकर उन्हें स्वाभिमान से जीना सीखाते हैं। हमने अपनी बुद्धि के सहारे ही सारी दुनिया पर राज किया है।’’

हम क्या बोलें...? बस इतना ही कि हम दलित हैं।

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