साहित्य और कला को समर्पित एक जुझारू व्यक्तित्व का नाम विजय सिंह है। १८ जुलाई १९६२ को जगदलपुर बस्तर की खुरदुरी जमीन में जन्में विजय सिंह कविता रचते ही नही उसे जीते भी हैं। उनकी कविताओं में बस्तर अंचल की जीती जागती मुकम्मल तस्वीर देखी जा सकती है, वही अंचल जहां डोकरी फूलो सिर में टोकरी लिए दोना पत्तल बेचने जंगल से शहर की ओर आ रही है, कंधे में कॉंवड़ बोहे एक आदिवासी कहीं जा रहा है, एक काली स्त्री अपने तमाम दुःखों को भूलकर बेखौफ हॅंस रही है। जहां हरे पौधों में पक रही है लाल र्मिच। मुहल्ले में लहरा रहा है नारियल का पेड। घोटुल में जहां एक मोटियारी चेलिक के संग मॉंदल के थाप में थिरक रही है और जंगल पक रहा है/आम अभी पूरा पका नही है/ चार तेंदू पक रहे हैं/ पक रहे हैं किस्म-किस्म के फूल पौधे। सावधान अभी पक रहा है जंगल। (पक रहा है जंगल पृष्ठ-९४) यहॉं पर जंगल का पकना सिर्फ चार तेंदू चिरौजियों का पकना नही है, सताए हुए लोगों का एक विचार एक जनमत का पकना है।

आलोच्य कृतिः- बंद टॉंकीज
समीक्षकः- निर्मल आनंद
कवि- विजय सिंह
पता: ग्राम- कोमा-राजिम, जिला- रायपुर
प्रकाशक- शब्दालोक,
सी-३/५९, नागार्जुन नगर, (छ०ग०) पिन-४९३८८५
सहादतपुर-विस्तार, दिल्ली-११००९४
मो०- ९७५४२१५३६२
प्रकाशन वर्ष- २००९ मूल्यः- ८०.०० रूपये
पता: ग्राम- कोमा-राजिम, जिला- रायपुर
प्रकाशक- शब्दालोक,
सी-३/५९, नागार्जुन नगर, (छ०ग०) पिन-४९३८८५
सहादतपुर-विस्तार, दिल्ली-११००९४
मो०- ९७५४२१५३६२
प्रकाशन वर्ष- २००९ मूल्यः- ८०.०० रूपये
विजय सिंह की कविताओं में पेड, पहाड , पक्षी, पुल, पूरी प्रकृति बोलती है। महानगरीय विडंबनाओं के इर्द गिर्द रची जा रही आज की युवा कविता प्रकृति से निरंतर दूर होती जा रही है। ऐसे में ठीक इसके विपरीत विजय की कविताएं प्रकृति से सुंदर संवाद करती है। कविता की जगह जब कवि बोलने लगता है तब वह रचना वक्तव्य-परकता की शिकार हो जाती है किन्तु यह वनवासी कवि काव्य कला के महीन हुनर से भलीभॉंति परिचित है फलतः उनकी कविताएं प्रथम पाठ से पाठकों के हृदय सरोवर में कमल की तरह खिल जाती है। पगडंडी को छूकर/ एक नदी बहती है/ मेरे भीतर। हरे रंग को छूकर/ मैं वृक्ष हो जाता हूं/ फिर जंगल/ मेरी जडों में/ खेत का पानी है/ और चेहरे में/ घूसर मिटटी का ताप/ (शांत जंगल को पृष्ठ-४४)
विजय के काव्य संसार में बस्तर की अकथ व्यथा-कथा है। व्यवस्था की कुत्सित राजनीति से दूर भोले-भाले आदिवासियों का जीवन, तेंदू, चार, चिरौंजी, हर्रा, बहेड़ा, दोनापत्तल, मधुरस और जडी बूटी बेचकर चलता है। न जाने कितनी मधुमक्खियों का दंश झेलकर वे जंगल से हमारे लिए शुध्द शहद लाते हैं जिन्हें हाट बाजार में हम सस्ते में खरीद लेते हैं। प्रकृति की मनोरम गोद में पलता आदिवासी जीवन बाहर से जितना सुन्दर और आकर्षक लगता है भीतर से उतना ही त्रासद और जोखिम भरा होता है। धूप हो या बरसात/ ठंड हो या लू/ मुंड में टुकनी उठाए/ नंगे पांव आती है/ दूर गॉंव से शहर/ दोना पत्तल बेचने वाली/ डोकरी फूलो/ (डोकरी फूलो पृष्ट-९६)
गांव में खुमरी, भॅंदई, ढेंकी, कॉंवड और जॉंता का जमाना लद चुका है, जिसका उपयोग ग्रामीण दैनिक जीवन में होता था। किन्तु तमाम आधुनिक सुविधाओं से दूर बस्तर के आदिवासी अंचलों में यह हस्तनिर्मित यंत्र उनके जरूरतों को पूरा करते आज भी जीवित हैं। विजय सिंह की कॉंवड कविता में यह अनूठा चित्र देखा जा सकता है- कंधों के दुलारे हैं कॉंवड / कॉंवड हाट जाते हैं/ पानी भरते है/ सडक बनाते हैं/ यहॉं तक/ गांव के बीमार आदमी को शहर के/ अस्पताल पहुंचाते हैं कॉंवड / कॉंवड कहीं भी रहे/ मेहनत के गीत गाते हैं/
विजय सिंह के संग्रह में कुछ प्रेम कविताएं भी हैं, जिन्हे पढ कर पाठक का मन हराभरा होकर खिल जाता है। मुझे विश्वास है, इन कविताओं से गुजरते हुए पाठक प्रेम की पवित्र नदी में नहाकर खुद को हल्का महसूस करेंगे- तुम मेरी पृथ्वी हो/हरी भरी/ जिसे निहारता रहता हूं/ हजारों हजार बार/ आओ मेरी पृथ्वी आओ/ मेरे घर/ मैं घर को/ तुम्हारी हथेलियों में/ फूल की तरह/ खिला हुआ देखना चाहता हूं/
विजय सिंह के पास कविता का उत्पादन नहीं सृजन है संख्यात्मक दृष्टि से कम किन्तु बेहद ठोस कविता रचनेवाले कवि हैं विजय। वे कहते हैं- अच्छा हुआ- मैं बड़ा कवि नही हुआ-और न ही-एकांतश्रीवास्तव, अरूण कमल, देवीप्रसाद मिश्र, राजेश जोशी और आलोक धन्वा की तरह/ सातवे, आठवे, नवें दशक के, चर्चित कवियों की कविता में शामिल हुआ/ न पहल ने मेरी कविता छापी/ न साक्षात्कार ने/ और न ही/ नामवर सिंह और अशोक वाजपेयी ने/ मेरी कविता की तारीफ की। फिर भी कविता लिखता हूं/ आपको मालूम है/ मेरे मुहले के चौक में बैठा/ जूते में कील ठोकता/ हॅंसता मुस्कराता बूढा मोची नानू/ मुझे जानता है/ कि मैं एक कवि हूं/ क्या यह कम बडी बात है। बेलाग सरलता और सहजता विजय का स्वभाविक चारित्रिक गुण है। उनके मन में छलकपट नही अविश्वास नहीं है। यही मानवीय गुण आदमी को सच्चा और संवेदनशील बनाता है। जिनके जीवन में नाटकीयता दिखावा और बनावटीपन है वे अच्छे कवि नही हो सकते। प्रखयात कथाकार अमरकांत कहते हैं अच्छी कविता व्यापक संवेदना की भूमि से आती है पाखण्ड से कविता नही आती। विजय के व्यक्तित्व की यही सहजता, सरलता और संवेदनशीलता छनकर उनकी कविताओं में आती है जो उनकी रचना को विशिष्टि प्रदान करती है- रात के अंतिम पहर में/ भोर की रोशनी कुतरती है/ अंधेरे को धीरे-धीरे/ इस समय/ दुकान की बरनियों में रखे/ पिपर मेंट टॉफी के स्वपन में/ मुहल्ले का कौन सा बच्चा/ चिल्हर लेकर आता होगा/ (मुहल्ले की किराना दुकान पृष्ट-१८) इप्टा के साथ-साथ विगत १८ वर्षो से बच्चों के लिए रंग कर्म, लेखन, निर्देशन, व 'सूत्र' जैसे महत्वपूर्ण जनपक्षधर साहित्यिक पत्रिका के संपादन से जुडे विजय सिंह एक अच्छे कवि ही नही देश के एक सचेत और संवेदनशील नागरिक भी हैं। वे जानते है बच्चे ही देश के आने वाले भविष्य हैं, इन्ही बच्चों के कोमल मन में वे एक सफल कृषक की तरह बाल नाटकों के माध्यम से साहित्य और संस्कृति की बीज बोते है। इसीलिए विजय के काव्य संग्रह में बच्चों पर कई उम्दा कविताएं खिली हुई हैं- आओ मिलकर खेलें/ कोई नया खेल/ बीज की तरह/ समा जाएं/ खेत की काली दुनिया में/ और देखें/ दाने के अंदर की पृथ्वी को/ (गॉंव के बच्चों के लिए पृष्ठ-६६) सूरज की हॅंसी/ तीरथगढ़ का जल प्रपात है/ जहॉं मैं डूबता उतरता हूं और भूल जाता हूं/ अपनी थकान/ (मै हॅंस रहा हूं पृष्ठ-५८) एक ओर छद्म आधुनिकता की ऑंधी हमारी ऑंखों को मानव जीवन के विराट कल्याणकारी स्वप्न से वंचित करती जा रही है वही दूसरी ओर पूंजी और बाजारवाद का भयानक दैत्य अपने भारी भरकम पैरों से, इंसानियत, ईमानदारी, भाईचारा और विश्वास जैसे मानवीय मूल्यों को रौंदता हुआ आगे बढ रहा है। विजय सिंह की मुहल्ले में नारियल का पेड कविता इसी समस्या की शिनाख्त करती है- समझ में नही आता/ मुहल्ले में/ यह कैसी हवा चली है/ कि हर घर के/ दरवाजे से खुलता रास्ता/ सिर्फ बाजार की ओर दौडता है/ जहॉं केवल बेचने वाले/ और खरीदार दिखाई पडते हैं/ अपना चेहरा कोई यहॉं दिखता नही/ दुआ सलाम में भी खिंच गई है/ एक लकीर/
जब से नक्सलाइटों ने बस्तर के जंगलों में अपना डेरा जमाया है हॅंसते खेलते आदिवासी जीवन की खुशियों को पाला मार गया है जैसे चलते-चलते कोई चलचित्र रूक गई हो एक निरीहता और असहायता की स्थिति निर्मित हो गई है और बस्तर के ज़र्रे जर्रे में दहशत समा गई है। इस समस्या का कारगर निदान अभी तक हमारी सरकार और जनप्रतिनिधि नही ढूंढ़ पाए हैं। जगर गुंडा में एक दिन कविता इसी समस्या का चित्रण करती है- एक ठहरे हुए समय में/ यहॉं सुबह होती है/ मुर्गा बॉंग देता है जरूर/ लेकिन जगरगुंडा की सडकें थरथराती हैं/ कि कब हॉंका आ जाए अंदर से/ यहॉं पेड शांत रहते हैं/ और आसमान भी चुप सा दिखता है/ नदी डरी और सहमी हुई सी बहती है/ (जगरगुंडा में एक दिन पृष्ठ-४६) लाल मिर्च, नोनी की हॅंसी, शांत जंगल को, काली स्त्री, हॅंसने के लिए वे समय नही देखते, तुम मेरी पृथ्वी हो, धूसर रंग, डोकरी फूलो, कॉंवड, पक रहा हैं जंगल जैसी महत्वपूर्ण कविताएं विजय सिंह को समकालीन युवा कविता में सर्वथा अलग पहचान देती है। एक निष्पक्ष पाठकीय अनुभव के हिसाब से कह सकता हूं कि विजय सिंह की कविताएं अपनी विविधता और जीवंतता के साथ समकालीन काव्य परिदृश्य को समृध्द करती हुई एक नया आयाम देती है।
2 टिप्पणियाँ
bhai nirmal anand evam vijai je ko badhaie
जवाब देंहटाएंअच्छी समीक्षा...बधाई
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.