इन्सान की जिन्दगी तो मुकद्दर का खेल है
बहला के अपने पास बुला कर, फरेब से
नदिया को लूटना तो समन्दर का खेल है
हम जिसको ढूँढते हैं जमाने में उम्र भर
वो जिन्दगी तो अपने ही अन्दर का खेल है
हर लम्हा हौसलों के मुकाबिल हैं हादसे
दोनों के दरमियान बराबर का खेल है
कहते हैं जिसको लोग धनक,और कुछ नहीं
अश्कों से लिपटी धूप की चादर का खेल है
दुनिया जिसे पुकारती है घर के नाम से
सच पूछिये तो नींव के पत्थर का खेल है
बहला के अपने पास बुला कर, फरेब से
नदिया को लूटना तो समन्दर का खेल है
हम जिसको ढूँढते हैं जमाने में उम्र भर
वो जिन्दगी तो अपने ही अन्दर का खेल है
हर लम्हा हौसलों के मुकाबिल हैं हादसे
दोनों के दरमियान बराबर का खेल है
कहते हैं जिसको लोग धनक,और कुछ नहीं
अश्कों से लिपटी धूप की चादर का खेल है
दुनिया जिसे पुकारती है घर के नाम से
सच पूछिये तो नींव के पत्थर का खेल है
रचनाकार परिचय:-
गौरव शुक्ला कुछ समय पूर्व तक कवि और पाठक दोनों ही के रूप में
अंतर्जाल पर बहुत सक्रिय रहे हैं।
अपनी सुंदर और भावपूर्ण कविताओं, गीतों और गज़लों के लिये पहचाने जाने
वाले गौरव को अपने कुछ व्यक्तिगत कारणों से अंतर्जाल से दूर रहना पड़ा।
साहित्य शिल्पी के माध्यम से एक बार फिर आपकी रचनायें अंतर्जाल पर आ
रही हैं।
2 टिप्पणियाँ
अच्छी गज़ल...बधाई
जवाब देंहटाएंहम जिसको ढूँढते हैं जमाने में उम्र भर
जवाब देंहटाएंवो जिन्दगी तो अपने ही अन्दर का खेल है
जिंदगी के फलसफे को
सलीक़े से समझाता हुआ
उम्दा शेर ....
एक बहुत अच्छी ग़ज़ल के लिए
गौरव जी को बधाई . .
"दानिश"
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