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चर्चित युवा कवि त्रिलोक महावर से शरद चन्द्र गौड की बातचीत

‘बस्तर अंचल’ को साहित्य के क्षेत्र में शीर्ष स्थान पर स्थापित करने वाले श्री त्रिलोक महावर नॆं अपनी उल्लेखनीय उपस्थिति दर्ज की है उसी तरह से साहित्य के क्षेत्र में आपका नाम जाना पहचाना है। बस्तर की मिट्टी से जुड़े त्रिलोक जी ने बस्तर को करीब से देखा है बल्कि उसे जिया भी है। अपनी व्यस्तताओं के बाद भी उनका लेखन कार्य सतत् जारी है। आपके तीन कविता संग्रह प्रकाशित हो कर चर्चा में हैं।

त्रिलोक जी का पहला कविता संग्रह ‘विस्मित ना होना’ प्रकाशित हुआ तब लोगों को यका-यक विश्वास  ही नहीं हुआ कि एक छोटे से कस्बे का युवक इतनी प्रभावशाली कविताएं लिख सकता है। दूसरा कविता संग्रह ‘इतना ही नमक’ बस्तर के आदिवासी अंचल के प्रति उनकी मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति थी वहीं तीसरा कविता संग्रह ‘नदी के लिए सोचो’ उनके पर्यावरण के प्रति प्रेम एवं प्रतिबद्धता को प्रदर्षित करता है।

उनसे साहित्य शिल्पी के लिए एक आत्मीय बातचीत हुई, इस बातचीत में मेरे साथ शामिल थे सूत्र के संपादक श्री विजय सिंह एवं वरिष्ठ रचनाकार श्री अवध किशोर शर्मा। प्रस्तुत है उक्त साहित्यिक चर्चा के कुछ अंश - 

-शरद चन्द्र गौड
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शरद चन्द्र गौड़ः आप की प्रारम्भिक रचना कब प्रकाशित हुई ?

त्रिलोक महावरः 1975 में भारत सरकार शिक्षा समाज मंत्रालय ने एक प्रतियोगिता आयोजित की थी जिसमें कविता लिखनी थी, मैनें इसमें कविता भेजी। मेरी कविता ‘चिड़िया रानी’ को प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ। एक लम्बे अरसे के बाद लाला जगदलपुरी ने मुझे बताया कि प्रतियोगिता के निर्णायक वे थे। मुझे लगा पहली बार कविता लिखने पर यदि पुरस्कार प्राप्त हो सकता है तो और लिखना चाहिए, फिर यह क्रम निरन्तर जारी रहा। उस समय मैं लाला जगदलपुरी जी के नाम से परिचित था लेकिन प्रत्यक्ष संपर्क ‘चिड़िया रानी’ को प्रथम पुरस्कार प्राप्त होने के बाद ही शुरू हुआ। फिर मैने लघु कथाओं पर भी हाथ लगाया, 1982 में लघुकथाओं पर पोस्टर प्रदर्षनी लगायी एवं बाल कविताएं भी लिखी।

शरद चन्द्र गौड़ः शासकीय जिम्मेदारियों के बढ़ जाने के बाद आप लेखन का सिलसिला किस प्रकार जारी रख पाते है ?

त्रिलोक महावरः शासकीय जिम्मेदारियां लेखन शुरू करने के लगभग 9 साल बाद आयी तब तक तो मैं काफी लिख चुका था। लेकिन जिस काम के लिए मैं समय निकालता हूं उसमें कविता भी महत्वपूर्ण है, वैसे तो कविताएं एक धारा में लिखी जाती है। अपने विचारों को मैने कभी नष्ट नहीं होने दिया, यहां तक रात के 2-3 बजे तक बैठकर कविता लिखता रहा हूं और कई बार तो 8-10 कविताएं थोक में लिखी, कभी-कभी दो तीन माह तक एक भी कविता लिख नहीं पाया। शासकीय सेवा की जिम्मेदारियों के चलते लेखन तो प्रभावित नहीं हुआ, किन्तु पढ़ना जरूर प्रभावित हुआ।

शरद चन्द्र गौड़ः आपका लेखन से जुड़ाव आकस्मिक था या लेखन के माहौल से प्रभावित थे ?

त्रिलोक महावरः लेखन से जुड़ाव सहज रहा है। मेरे घर के सामने एक कदम का पेड़ था जब सूर्य डूबता था तब उसके सौंदर्य से मैं प्रभावित था मुझे लगता था जैसे यह मेरी प्रेयसी है। बस केनवास पर यह रंग आये और मैने लिखना प्रारम्भ किया। प्रकृति मुझे लोगों के करीब ले जाती है, मैने अपनी एक कविता में लिखा कि 

‘‘ जिन्दगी की प्रयोगशाला में परखनली है कविता’’। 

जीवंत चीजों का संचरण कविता में होना चाहिए, मेरी कविता में शामिल थे जगदलपुर के विष्वास होटल, बिनाका होटल एवं मेरे आस पड़ोस के लोग। बस्तर तो मेरी जन्म भूमि रही है, बस्तर के लोग और उनका जीवन भी मेरी कविता के विषय रहे है। बस्तर की नोनी (छोटी बच्ची) जब चिरोंजी के बदले नमक लेती है तब वह मेरी कविता में आ जाती है, ‘‘इतना ही नमक’’ ऐंसी ही कविता है। बस्तर के जंगलों के कटने का दर्द या इंद्रावती के सूखने की चिंता हो मेरी कविता के विषय वस्तु बन जाते है, नदी मेरे लिये निर्जीव वस्तु ना होकर जीवन से जुड़ा महत्वपूर्ण पहलू है, उससे जुड़े सभी पहलू मेरी कविता में सहर्ष आ जाते है।

शरद चन्द्र गौड़ः जब आप लिख रहे थे तब जगदलपुर का साहित्यिक माहौल कैसा था ?

त्रिलोक महावरः शहर के रचनाकार गुलशेर खां ‘‘शानी’’ जी का नाम तो पहले ही प्रसिद्धी पा चुका था, धनंजय वर्मा जी भी लिख रहे थे। बचपन में मैं ‘‘गनीआमपुरी जी’’ के पास कपड़े ईस्त्री कराने जाया करता था, उनकी दुकान पर लाला जगदलपुरी, अभिलाष दुबे, परमात्मा प्रसाद शुक्ल आया करते थे, इन साहित्यकारों की चर्चा मैं चुपके से सुना करता था और कभी गनीआमपुरी हमें उर्दू में गजल सुनाया करते थे जिसे मैं देवनागरी में लिख लिया करता था और शहर में हो रही गोष्ठियों में शामिल होता था। उस समय शहर का साहित्यिक माहौल आत्मीय था। मेरी प्रारम्भिक रचनाएं ‘नव संदेश अखबार’, ‘दण्डकारण्य समाचार पत्र’, एवं ‘बस्तर संदेश’ ने छापी। कालेज की पत्रिका में तो मेरी रचनाएं छपती ही थी। हस्तलिखित पत्रिका ‘‘ज्ञानद्वीप’’ बस्तर हाईस्कूल से निकाली जिसका संपादन भी मैनें ही किया, पहले इसे शानी जी निकालते थे फिर यह बंद हो गयी थी इसे मैनें पुनः निकाला। 1977 में सौभाग्य से आकाशवाणी जगदलपुर प्रारम्भ हुआ, विमल चन्द्र गुप्ता उसके डायरेक्टर थे, उन्होनें मुझे नाटकों, कविता पढ़ने, संस्मरण, बालकविता में मौका दिया। 1984 तक मैने आकाशवाणी में काम किया। इस दौरान हमें ‘कैफी आजमी साहब’ व ख्वाजा अहमद अब्बास से रूबरू होने का मौका मिला। उन्हीं दिनों शानी जी से भी भेंट हुई उस समय मैं विद्यार्थी था।

शरद चन्द्र गौड़ः आप की पहली रचना ‘विस्मित ना होना’ के विषय में आप क्या कहेंगे ?

त्रिलोक महावरः ‘विस्मित ना होना’ अर्थात आश्चर्य चकित ना होना का मुख्य पृष्ठ शशांक जी ने तैयार किया था एवं इसका विमोचन संस्कृति भवन भेपाल में हुआ इस अवसर पर ‘आग्नेय’ जी उपस्थित थे। पहली कविता संग्रह के प्रकाशन से काफी बल मिला लोगों ने इसे सराहा जिससे मैं आगे और लिखने के लिए प्रोत्साहित हुआ।

शरद चन्द्र गौड़ः ‘इतना ही नमक’ क्या शोषण के विरूद्ध लिखी गयी रचना है ?

त्रिलोक महावरः मेरी कविता में मानवीय संवेदनाओं से जुड़ी चीजें आती है। बस्तर में सागोन एवं शाल वृक्ष के कटने की समस्या, नमक के बदले वनोपज का लेन-देन मेरी कविताओं में आते रहे। ‘इतना ही नमक’ कविता संग्रह के बहाने मैने बस्तर के जन-जीवन को छूने की कोशिष की है।

शरद चन्द्र गौड़ः आजकल आप का लेखन कैसा चल रहा है ?

त्रिलोक महावरः अच्छा चल रहा है, लेखन के कारण साहित्यिक मित्रों से मुलाकात भी होती रहती है। स्व.कमला प्रसाद जी, हरीनारायण जी और अन्य रचनाकारों से मिलना हुआ। लालाजी से कल ही मैं मिल कर आया हूं, विजय सिंह जी से बंद टाकीज के सामने मुलाकात होती रहती है। बहुत पहले रीवां के एक साहित्यिक कार्यक्रम में नामवार सिंह, जीवन सिंह, प्रेमषंकर रघुवंषी आये थे उनसे मिलना हुआ था। षिव मंगल सिंह सुमन, भाल चंद्र्र जोषी, संजीव बख्शी, भगवत रावत, लीलाधर मण्डलोई, डॉ. नरेन्द्र जैन से भी चर्चाएं हो चुकी है। बस्तर आने पर अवध किशोर शर्मा, रउफ परवेज, मदन आचार्य, योगेन्द्र मोतीवाला, हरिहर वैष्णव, योगेन्द्र महापात्र जोगी, पं.बालगंगाधर सामंत से मुलाकात होती रही। रावल बंधु, भवशंकर दत्त, कमालुद्दीन साहब, देवी प्रसाद पाण्डे, जी से भी संपर्क रहा है। विजेन्द्र जी एवं ज्ञानरंजन जी से पत्राचार होता था, सुधीर विद्यार्थी, कमर मेवाड़ी, राजाराम भादु, हरिषंकर अग्रवाल से संपर्क रहा। जगदलपुर के ‘नवआयाम सांस्कृतिक मंच’,‘तरूण साहित्यि समिति’ का मैं महासचिव रहा एवं 1981 से 84 तक रोटरेक्ट जगदलपुर का अध्यक्ष भी रहा हूं। उन दिनों मैनें जगदलपुर में खूब साहित्यिक आयोजन किये , मेरे पास साहित्यिक गतिविधियों की कतरनें अब तक सुरक्षित है। मैने लीक से हट कर लिखने से परहेज नहीं किया। 1984 में मैने जगदलपुर छोडा़ किन्तु उसके बाद भी मैं जगदलपुर से लगातार जुड़ा हूं।

शरद चन्द्र गौड़ः कौन-कौन सी विधा में आप लिख रहे है ?

त्रिलोक महावरः नई कविता, हाईकू एवं दोहे भी लिखे। कहानी भी लिखी लेकिन कविता लिखने में मन ज्यादा रमा। समय की कमी के कारण मैं साहित्य की विधा कविता लेखन की तरफ मुड़ा। मानवीय दुख-दर्द, पर्यावरण,एवं समस्याओं के निराकरण को अपनी रचना की विषय वस्तु बनाया। कुटुम्बसर की अंधी मछलियों, दोना भर पेज पर मैने कविता लिखी। अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल मैने अपनी कविताओं में किया है। मेरी चचिर्त कविता ‘पेंजई के फूल’ युगोस्लाविया के संघर्ष पर आधारित थी। नौकरी के अनुभव भी मेरी कविताओं में है खसरा न.-168 कविता को काफी सराहा गया ।

मैनें मनुष्य के संघर्ष को स्वाभाविक रूप से अपनी कविता में आने दिया। अभी मेरी एक कविता छपी है जिसमें मैने 25 पैसे को अपनी कविता का विषय बनाया है , कविता में मैनें लिखा है‘‘ 25 पैसे का रंग प्यार से रंगने के लिए काफी था, जिसकी उम्र भर ना छूटने की गारंटी थी’’।

शरद चन्द्र गौड़ः वर्तमान लेखन को आप किस परिप्रेक्ष्य में लेते है ?

त्रिलोक महावरः लेखन की सार्थकता तभी है जब वह लिखने एवं पढ़ने वाले को अपील करे। पढ़ने वाला जब कविता को अन्य के साथ साझा करे तब वह सैकड़ों को आंदोलित करती है।

शरद चन्द्र गौड़ः 1985 के बाद के बस्तर की साहित्यिक गतिविधियों को आप किस रूप में लेते है ?

त्रिलोक महावरः 1985 के पहले जगदलपुर कस्बा हुआ करता था, वह अब हर क्षेत्र में विस्तार पा चुका है। बस्तर से बाहर की साहित्यिक गतिविधियों से यहां के साहित्यकार परिचित हो रहे है। जगदलपुर के बहुत से साहित्यकारों ने साहित्य के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई है इसमें शामिल है विजय जी के संपादन में निकल रही पत्रिका ‘सूत्र’। मेरी एक कविता में मैनें लिखा है ‘‘ कस्बा छोड़कर गया था, नगर बन गया’’। लालाजी ने बस्तर को एक नया आयाम दिया है, लोग उनके नाम से जगदलपुर को जानते है, और भी कई रचनाकार यहां सक्रिय है जैसे आपने भी अपनी अच्छी उपस्थिति दर्ज की है, अवध जी भी अच्छा लिख रहे हैं, रउफ साहब से तो सभी लोग परिचित है। कुल मिलाकर जगदलपुर शहर की पहचान साहित्यक क्षेत्र में स्पष्ट रूप से बनी है।

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8 टिप्पणियाँ

  1. AAPKE BAARE MEIN ITNAA PATA HI NAHI THA TRILOKJI .AAP KABHI PAGAT BHI NAHI KARTE KI AAP RACHNA SANSAR MEIN DOOBE HUYE HAIN .... SURU

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  2. यह बस्तर रचनाकारों की कर्मस्थली लगता है, अच्छा साक्षात्कार।

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  3. सार्थक चर्चा- कविता

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  4. सार्थक चर्चा ...वार्ता रुचिकर...
    कविता में अंगरेजी के शब्दों के प्रयोग से परहेज नहीं....
    आभार...

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  5. SUDOOR VANANCHAL ME SAHITYA AUR SAHITYAKAR SARTHAK CHARCHA.......JAIPRAKASH

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