आजकल वह
एक उदास नदी बनी हुयी है
वैसे ही जैसे कभी
ककड़ी बनी
अपने पिता के खेत में लगी थी
जिसे देखकर हर राह चलते के मुहॅ में
पानी आ जाता था
अपनी ही उमंग में
नाचती कूदती फिरती यहॉ वहॉ
अचानक वह बॉध बन गयी
कभी पेड़ बनकर
उन बादलों का इन्तजार करती रह गयी
जो पिछली बार बरसने से पहले
फिर-फिर आने का वादा कर गये थे
ऐसे समय में जबकि
सबकुछ मिल जाता है डिब्बाबन्द
एक नदी का उदास होना
बहुत बड़ी बात नहीं समझी जाती।
2 टिप्पणियाँ
अच्छी कविता...बधाई
जवाब देंहटाएंकभी पेड़ बनकर
जवाब देंहटाएंउन बादलों का इन्तजार करती रह गयी अच्छी कविता..
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