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पता नहीं कब शीशा टूटे [कविता] - प्रभुदयाल श्रीवास्तव


बेटा गया पिसाने आटा
कब वापस आये
किसी धूर्त की गोली से
न स्वर्ग सिधर जाये|

उसकी महनत के ईंधन से
चूल्हा जलता है
उसके तन मन संदोहन से
ही घर चलता है
वह न हो तो घर
भूतों का डेरा हो जाता
अंधियारे में घर का
कोना कोना खो जाता
है आशीश उसे दुनियां की
नज़र न कग जाये|

रामायण में खंजर है
बंदूक कुरानों में
कोतवाल भी नहीं सुरक्षित
हैं अब थानों में
समाचार में दिल दहलाने
वाली बातें हैं
पता नहीं कितनों के
अंतिम दिन या रातें हैं
पता नहीं कब शीशा टूटे
और बिखर जाये|

रोज धमाकों के उत्सव
शहरों शहरों होते
अपने प्रिय जनों को जाने
कौन कौन खोते
कहीं किसी का पैर
किसी का धड़ दिख जाताहै
बम फटने से कितनों का ही
सिर फट जाता है
घर से कदम निकाला बाहर
और अखर जाये|

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4 टिप्पणियाँ

  1. रोज धमाकों के उत्सव
    शहरों शहरों होते
    अपने प्रिय जनों को जाने
    कौन कौन खोते
    कहीं किसी का पैर
    किसी का धड़ दिख जाताहै
    बम फटने से कितनों का ही
    सिर फट जाता है
    घर से कदम निकाला बाहर
    और अखर जाये| Acchii abhivkti Goverdhan Yadav chhindwara

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