नज़र आ रहा है धुआँ ही धुआँ
कोई नज़्रे-आतिश है बस्ती वहाँ
सरासर हैं झूठे वो सारे बयाँ
लगे दोष तो क्या कहे बेज़ुबाँ
वहाँ कैसे महफूज़ कोई रहे
दरिंदे खुले आम घूमें जहाँ
फिरा ढूँढता सहरा-सहरा मगर
न मिल पाया प्यासे को कोई कुआँ
जो ज़ुल्मों के साए ज़मीं पर पड़े
नज़र उठ गई जानिबे-आसमाँ
ख़ुशामद करें जो मिलेंगे हज़ार
कहाँ मिलते ‘देवी’ मगर कद्रदाँ
ठिकाने बदलती है ‘देवी’ अगर
नज़र बिजलियों की गई है वहाँ.
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3 टिप्पणियाँ
अच्छी गज़ल...बधाई
जवाब देंहटाएंजो ज़ुल्मों के साए ज़मीं पर पड़े
जवाब देंहटाएंनज़र उठ गई जानिबे-आसमाँ
ख़ुशामद करें जो मिलेंगे हज़ार
कहाँ मिलते ‘देवी’ मगर कद्रदाँ
बहुत सुंदर ग़ज़ल है बधाई,
सादर,
अमिता कौंडल
सुन्दर दोहे,बधाई!
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.