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सड़क किनारे लाचार बचपन [कविता]- डॉ अमिता कौण्डल


सड़क किनारे लाचार बचपन

आँखों में लिए लाखों सवाल

घूरता रहा मेरे मुन्ने को

जो लिए था हाथ आइस क्रीम

और पहने था सुंदर वस्त्र

जो पकडे था माँ का हाथ

और बैठ गया था कार में

अब तक उन  सवालिया आँखों 

के जवाव न मिल पाए मुझे

जब भी गुजरती हूँ सड़क से

मिला नहीं पाती में नजरें

क्योंकि कुछ कर जो  नहीं पाती

उन सवालिया आँखों के लिए

वो  आँखे अब  भी घूरती हैं

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4 टिप्पणियाँ

  1. वो आँखें हमेशा घूरती ही रहेगी॥ काश हम कुछ करपाते तो सड़क यह किनारे भी एक खूबसूरत मंज़र में बदला जाते....बहुत अच्छी सार्थक प्रस्तुति समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है

    जवाब देंहटाएं
  2. लाचार बचपन भाव्पूर्ण कविता है । जिस बचपन को फूल की तरह खिलना चाहिए वह अभाव्ग्रस्त जीवन जीन एको बाध्य है।

    जवाब देंहटाएं
  3. सचमुच उन सवालिया आँखों का सामना करना कठिन है क्योंकि सब कुछ समझ कर भी हम कुछ नहीं कर सकते...इस मजबूरी को आपने बहुत अच्छी तरह से लिखा है|

    जवाब देंहटाएं
  4. पल्लवी जी, रामेश्वर भाईसाहब व् रीता जी आपको कविता पसंद आयी आप सभी के सराहनीय स्नेह्शब्दों के लिए हार्दिक धन्यवाद
    सादर,
    अमिता कौंडल

    जवाब देंहटाएं

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