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धृतराष्ट्र खुश हुए [व्यंग्य कथा] - डॉ. सुभाष राय

दिल्ली यानि इंद्रप्रस्थ के एक गांव मेंकुछ वर्ष पूर्व दो बच्चों का जन्म हुआ। एक को दिखायी नहीं पड़ता था। उसकी दृष्टिश्वेत-श्याम थी। काले और सफेद के अलावा उसे कुछ भी अनुभव नहीं होता था। अमूमन उसके सामने अंधेरा ही अंधेरा छायारहता था पर जब कभी वह तेज धूप में निकल जाता या बिजली की तेज चुंधियाने वाली रोशनी के सामनेपड़ जाता तो उसे एक अजूबा अनुभव होता। उसे लगता जैसे सामने किसी ने विशाल श्वेतपर्दा टांग दिया है। यह अद्भुत संयोग था कि उसके पिता का नाम विचित्रवीर्य और मां का नाम अंबिका था। जब वह पैदाहुआ था तब उसकी मां बहुत दुखी हुई थी। अंधे पुत्र का भविष्य क्या होगा? वह साल भर का हुआ तभी से अकेले चुपचाप बुदबुदाता रहता था। पहले तोमां-बाप ने ध्यान नहीं दिया पर एक दिन गांव के प्राथमिक विद्यालय के आचार्य और विचित्रवीर्य के बचपनके साथी सत्यकाम उनके घर पधारे तो माता-पिता ने अपने बच्चे की बीमारी की उनसेचर्चा की। सत्यकाम वहां कुछ दिन रुक गये और उन्होंने बच्चे का गहन निरीक्षण किया। वे यह देखकर हतप्रभ रह गये किजिसे वे बुदबुदाना कहते थे, वहवास्तव में बच्चे का संस्कृत में प्रलाप था।

वह बच्चा संस्कृत में महाभारत केप्रसंगों पर अपने आप से ही बात करता रहता। आचार्य जी अपने मित्र के घर अक्सर आने लगे औरबच्चे को समझने की कोशिश करने लगे। जितना उन्होंने समझा, उससे लगता था कि बच्चे को दुर्योधन की कूटनीति से बड़ाक्षोभ था। जिस तरह पांडवों को उनके अधिकार से वंचित किया गया, द्युत के छल से सारा राजपाट ले लिया गया, द्रोपदी को भरी सभा में अपमानित किया गया, पांडु-पुत्रों को लाक्षागृह में जलाकर मार देने की कोशिश की गयी औरआखिरकार उन्हें महासमर के लिए विवश कर दिया गया, उससे बच्चे को बहुत कष्ट था। उसे दुर्योधन की मृत्यु के बादधृतराष्ट्र द्वारा भीम को छलपूर्वक बाहों में कसकर मार डालने के कुत्सित मंतव्य पर भी बहुत पीड़ा थी। वह कृष्ण कोभी कई बार छली कहने में संकोच नहीं करता था। बर्बरीक की हत्या, जयद्रथ के वध, द्रोणाचार्य और दुर्योधन की मृत्यु के लिए वह कृष्ण को दोषी मानता था। जब आचार्यजी नेमां-बाप को यह सब बातें बतायीं तो उनकी आंखें फटी की फटी रह गयीं। उस दिन से बच्चे काबहुत ज्यादा ध्यान रखा जाने लगा। आचार्यजी काफी समय से उसके पास रहते चले आरहे थे और टूटी-फूटी संस्कृत बोल लेते थे, इसलिएबच्चा उन्हें चाहने लगा था। उनकी गोद में चला आता, उनसे बतियाता रहता। धीरे-धीरे आचार्य जी को यह संदेह होने लगा कि यह कोई साधारण बच्चा नहींहै, निश्चित ही कोई बड़ी आत्माहै। गांव में भी कानों-कान यह बात फैलने लगी और लोग उस बच्चे की बातें सुनने के लिए आने लगे। एक दिन आचार्यजीने साहस करके पूछ ही लिया, तुमकौन हो? अरे अभी तक आप ने पहचाना नहीं,मैं तो समझ रहा था कि आप समझ गये हैं, इसीलिए मेरी बातें इतने ध्यानपूर्वक सुनते हैं।  आश्चर्य जताकर बच्चा कुछ देर के लिए खामोश हो गया। फिर बोला,मैं धृतराष्ट्र हूं। दुर्योधन का पिता,गांधारी का पति और मेरे मां-बाप को तो आप जानते हीहैं। देखिये, बच्चे का बोलना जारी था, मैं अकेला नहीं हूं। चूंकि मेरी आंखें नहींहैं, इसलिए संजय भी मेरे साथ है। वहचतुरसेन के घर पैदा हुआ है।

 पीतमपुरा गांव इतना बड़ा था किएक कोने के लोगों को दूसरे कोने की खबर नहीं रहती ठी। चतुरसेन और गार्गी बहुत परेशानथे। आस-पास हल्ला मच गया था कि उनके घर साक्षात शिव ने अवतार लिया है। बहुत सुंदरबच्चा था उनका। गौर वर्ण, बड़ी-बड़ी आंखें,चटख गुलाबी अधर। दोनों हथेलियों पर चक्रके निशान थे।ललाट जगमग-जगमग। पति-पत्नी बहुत प्रसन्न थे ऐसा बेटा पाकर लेकिन उनकी परेशानी का कारण बन गयाथा, बच्चे के ललाट पर तीसरी आंखका निशान। पूरी भौंहें थीं, बीच मेंपुतली की तरह का तिल। त्रिनेत्र जैसा दिखता था। लोगों ने हल्ला मचा दिया था कि वह शिव का अवतार है।फिर क्या था लोगों का मजमा जुटने लगा। रोज बिचारे पति-पत्नी कई घंटे अपना काम-धामछोड़कर लोगों को बच्चे के दर्शन कराने में जुटे रहते थे। करें तो क्या करें। किसको-किसको नाराज करें। आचार्यजीको जैसे ही इस बच्चे के बारे में पता चला, वे विचित्रवीर्यको साथ लेकर चतुरसेन के घर जा पहुंचे। आचार्य सत्यकाम को बच्चे ने जैसे ही देखा, उसके मुख से भी देवभाषा फूट पड़ी,  आओ,  कैसेहो महानुभाव,महाराज कैसे हैं? आचार्य सत्यकाम हतप्रभ और चमत्कृत थे। बच्चा मुस्करा रहा था और वेएकटक अपलक बच्चे को  निहाररहे थे। कलयुग में ही ऐसा अघट घटित हो सकता है, यह सोचकर वे अतिशय रोमांचित थे। बच्चे के सवाल के काफी देर बाद उन्होंनेजवाब दिया, संजय, धृतराष्ट्र ने तुम्हें याद किया है।

वे कुशल से हैं, पर उन्हें तुम्हारी आवश्यकता है। घर के लोग यहसब देख रहे थे पर उनकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। बच्चा अचानक उछलकर सत्यकामकी गोद में आ गया और चलने का इशारा करने लगा। एक बार सत्यकाम ने चतुरसेन और गार्गीकी ओर देखा और बच्चे को लेकर वापस चल पड़े। विचित्रवीर्य के घर पहुंचते ही संजयधृतराष्ट्र की ओर बढ़ा  औरदोनों ने इस तरह एक दूसरे को जकड़ लिया जैसे युगों बाद मिल रहे हों. पकड़ ढीली पड़ीतो धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा, इंद्रप्रस्थ का क्या समाचार है? संजय बोले, महाराजअच्छा नहीं है। दुर्योधन से भी गया-गुजरा शासन है, उससे भी भयानक अराजकता है। वहतो सौ भाई ही थे, यहां तो पता ही नहीं चलता, कितने भाई हैं। कृष्ण क्या करे,किसकी-किसकी लाज बचाये। चीर खींचने वाले अब हर शहर, हर गली में अपना जाल फैलायेहुए हैं। चित्रपट ने ऐसा जादू किया है कि कुछ सुन्दरियां अब चीर-त्याग के रास्तेपर चल पड़ीं हैं। दुर्योधन ने राज-पाट के लिये अपने भाइयों को द्युत में छल सेपराजित किया था, अब सभी एक-दूसरे के साथ छल कर रहे हैं। छल-प्रपंच और इसके जरियेपद, पैसा और प्रतिष्ठा प्राप्त करना ही आज का जीवन दर्शन बन गया है। जो यह सब नहींजानता, वह मूर्ख माना जाता है।

क्या कह रहे हो संजय? कौन हैइन्द्रप्रस्थ का महाराज, मैं उससे मिलना चाहूंगा, बात करना चाहूंगा।

महाराज, अब राजतंत्र नहीं रहा।भारतवर्ष में प्रजातंत्र है, प्रजा ही राजा है।

यह कैसे? क्या होता है प्रजातंत्र,प्रजा राजा कैसे हो सकती है?

महाराज, जनता वोट देकर अपनेप्रतिनिधि चुनती है। वे मिलकर मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपतिचुनते हैं। प्रजातंत्र में प्रजा की ही स्थिति सबसे दयनीय होती है। उसके प्रतिनिधिमहलों में रहते हैं, जहाज से उड़ते हैं, एक बार चुने जाने के बाद जनता के दुख-दर्दको निपटाने में इस तरह जुट जाते हैं कि जनता उनके दर्शनों के लिये तरस जाती है।कभी अपने क्षेत्र में आते भी हैं तो पास के शहर में आलीशान वातानुकूलित होटल मेंरुकते हैं और वहीं अपने चेलों-चपाटों से जनता का हाल-चाल लेकर वापस उड़ जाते हैं।जनता के अधिकांश प्रतिनिधि दलालों, ठेकेदारों, मिलावटखोरों, जमाखोरों, रिश्वतखोरोंके प्रतिनिधि बन जाते हैं। लूट उनका राजधर्म बन जाता है। ऐश्वर्य और वैभव उनकालक्ष्य और छल उनका साधन। ईमानदार से ईमानदार प्रतिनिधि भी कुछ ही वर्षों में कईमकान, दूकान, गाड़ियां कर लेता है, एकड़ों जगह-जमींन का मालिक बन जाता है, अपनी औरअपने परिवार, नाते-रिश्तेदार, मित्र-दोस्त की जिन्दगियां सुधार देता है, बैंकोंमें करोड़ॉ रुपये जमा कर लेता है, अपने पुत्र-पुत्रियों को जन-प्रतिनिधि बनाने कीजुगाड़ बना लेता है.

इससे जनता को क्या मिलता है?

भारतवर्ष की जनता अपने पुरखों, मुनियों,कवियों के उपदेशों को अभी तक भूली नहीं है। वह हर हाल में प्रसन्न रहती है। कोऊनृप होइ हमें का हानी। वह घर में भले रोये पर बाहर परम संतुष्ट दिखती है। वह भीअपने प्रतिनिधियों की ही तरह पाखंडी है। जिस दिन वोट होता है, वह राजा ही होती है।प्रतिनिधि बनने के लिये आतुर सभी नेता उसके पांव पड़ते हैं, अपनी भूल-चूक के लियेमाफी मांगते हैं, कभी-कभी लोगों की हथेली पर सौ-सौ के नोट रख देते हैं, घरवालियोंके लिये सस्ती साड़ियां बंटवा देते हैं। और जनता खुश। जब ज्यादा मुश्किल दिखती हैतो जाति-सम्प्रदाय की बात उठाकर बलवा करा देते हैं और जनता आपसी मार-काट मेंव्यस्त हो जाती है। कोई मन्दिर में तो कोई मस्जिद में कसमें खा-खाकर मैदान में उतरआता है। जैसे आप ने महाभारत किया था, वैसे ही बिना वजह जनता लड़ पड़ती है और इससंघर्ष में नेता से अपनी सारी शिकायत, सारा गुस्सा भूल जाती है और उसे जिता देतीहै।

पर मेरे महाभारत में तो, झूठ नहींबोलूंगा, सत्य की ही विजय हुई थी?

यहां भी वही बात है, जो जीत जाता है,वही सत्य के मार्ग पर है, ऐसा समझा जाता है। यहां आप के जमाने से सत्य का कहीं ज्यादामहत्व है। लोग गीता की कसम खाकर वो सच बोलते हैं, जिसमें उनका लाभ हो। अपना लाभ हीमहान भारतीय प्रजातंत्र का सबसे बड़ा सत्य है। सभी अपने-अपने लाभ का रास्ता ढूढनेमे जुटे रहते हैं। साधन का कोई महत्व नहीं, सिद्धि होनी चाहिये। स्व लाभ ही शुभहै, सत्य है, शिव है, सुन्दर है। यही परम सिद्धि है। जब भगवान कृष्ण ने अपनेलक्ष्य की प्राप्ति के लिये छल का रास्ता अपनाया तो मानव क्यों न अपनाये। कृष्ण तोभारतीयों के आराध्य हैं, आदर्श हैं, अनुकरणीय हैं। स्वारथ पाई करें सब काजू।स्वार्थ, झूठ, छल-प्रपंच, वंचना, पाखंड, धूर्तता, बेईमानी आज के जीवन के शब्दकोशमें सबसे चमकदार शब्द हैं। जिन्हें इनके अर्थ ठीक से नहीं मालूम, उनका जीवननिरर्थक चला जाता है। ते मर्त्यलोके भुवि भार भूता। वे इस धरती पर भार की तरह हैं।उनका कोई सम्मान नहीं करता, उन्हें किसी मांगलिक अवसर पर बुलाया नहीं जाता, किसीशुभ कार्य के लिये निकलते समय ऐसे लोगों के दर्शन से फल-प्राप्ति में बाधा खड़ी होजाती है। सभी लोग सत्य के मार्ग पर चलें, इसके लिये यहां पुलिस है, थाने हैं औरन्यायालय भी। आप कभी वहां जायें तो आप को सत्य के महत्व का पता चलेगा। ऐसी हर जगहपर सत्यमेव जयते लिखा मिलेगा, गांधी की तस्वीर मिलेगी। लोग वहां जाना पसन्द नहींकरते, इसलिये कि किसी के पास फुरसत नहीं है। जब सभी सच के मार्ग पर हों तो इसकीजरूरत ही क्या? पुलिस फिर भी अपना दायित्व निर्वाह पूरी ईमानदारी से करती है। थानेमें हो या चौराहे पर या कहीं भी, वह अपराधियों को बहुत आसानी से पहचान लेती है। जिसकीजेब में धन नहीं हो, वह अपराधी है क्योंकि उसने अपने प्रथम पुरुषार्थ का प्रयोगनहीं किया। अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष, इन चारों में अर्थ प्रथम है, अगर किसी ने अर्थनहीं अर्जित किया तो सब व्यर्थ। अर्थ से ही धर्म होगा। पुलिसकर्मियों को अपनीविख्यात परम्परा का बोध होता है। वे स्वयं अर्थार्जन में नहीं चूकते। आखिर उन्हेंभी तो धर्म का मार्ग तय करना है, उन्हें भी तो अपनी कामनायें पूरी करनी हैं और वेजानते हैं कि जब ये तीनो पूरी हो जायेंगी तो जीतेजी मोक्ष प्राप्त हो जायेगा। वेऐसे लोगों को पूरा आदर, सम्मान और स्नेह-सुविधा प्रदान करते हैं, जिनकी जेब में धनहोता है। वे आखिर अपराधी कैसे हो सकते हैं? और जिन्होंने धन की जीवन में उपेक्षाकी, जो धन की अगम्यता के कारण झूठ-मूठ का त्यागमय और कष्टपूर्ण जीवन बिताते रहे,वे निश्चय ही अपने परिवार के प्रति अपराधी रहे। भारतीय पुलिस ऐसे त्यागियों को जेलभेजने में तनिक संकोच नहीं करती। कितना सुन्दर है यह प्रजातंत्र। न्यायालयों मेंभी अपने इन अधुनातन जीवन मूल्यों का पूरा ध्यान रखा जाता है। वहां भी धन कीसम्पूर्ण मर्यादा है, धन है तो कोई काम नहीं रुकता, धन नहीं है तो कोई काम नहींहोता। धन चाहे जैसे कमाओ, सही या गलत तरीके से, धन कमाओ और बांटकर खाओ। यही तोसमता का सिद्धांत है, यही तो सच्चा साम्यवाद है।

रुको, रुको संजय, तुमने तो बहुत सारीचीजें सीख लीं, पर मुझे कुछ शब्द समझ में नहीं आये। ये रिश्वत क्या है, यह गांधीकौन है?

आप जानते हैं महाराज, यह रिश्वत तोआप के जमाने में भी चलती थी। उत्कोच, उत्कोच कहते थे हम तब उसे। हां, गांधी केबारे में जरूर आप नहीं जानते होंगे। भारत भूमि हमेशा से अनमोल पुत्रों को जनती रहीहै। आप के युग से कोई पांच हजार साल बाद इस भूमि पर एक गांधी आया, महात्मा कहलाया,देश की आजादी के लिये कांग्रेस बनवाया। वह सत्य बोलता था, अहिंसा का पैरोकार था।आज ज्यादातर भारतीय उसी के कदमों पर चलते हैं, उसके तीन बन्दरों का अनुसरण करतेहैं। उसने कहा, बुरा मत सुनो, बुरा मत देखो और बुरा मत बोलो। भारत के नेताओं नेइसे आप्तवाक्य की तरह स्वीकार किया। वे कुछ नहीं सुनते, पता नहीं कब कोई बुरी बातसुनायी पड़ जाये, इसलिये वे अपने कान हमेशा बन्द रखते हैं। वे सुन कर भी नहींसुनते, नजरन्दाज कर देते हैं। कुछ देखते भी नहीं। चारों ओर अराजकता है, व्यभिचारहै, अत्याचार है, लोगों का हक मारा जा रहा है, लूट है, बलात्कार है। सच्चागांधीवादी कैसे यह सब देख सकता है, इस समझदारी के साथ वे अपनी आंखें हमेशा बन्दरखते हैं। जहां सब कुछ सुन्दर हो, प्रसन्नता देने वाला हो, वहां उनकी आंखें खुलीहोती हैं। नृत्य हो, नग्न सौन्दर्य हो, सुस्वादु भोजन हो, धन-सम्पदा हो, उनकीनजरें खुली होती हैं। जहां तक बुरा न बोलने की बात है, वे इस पर पूरा अमल करतेहैं। जो न बुरा देखे, न बुरा सुने, वह बुरा बोल कैसे सकता है। वे हमेशा मीठी बातेंकरते हैं। मुंह में राम बगल में छूरी। छूरी के बारे में बिना प्रमाण के क्या कहना,पर गांधी का राम नेताओं ने अभी भुलाया नहीं है। वे जनता के लिये कुछ करते मगर क्याबतायें गांधी के चौथे बन्दर का कहीं पता ही नहीं है। वो जो कहता कि कुछ करो भी।गांधी ने एक बार करो या मरो का नारा तो जरूर दिया था, मगर अब अंग्रेज तो रहे नहीं,वह तो अंग्रेजों के खिलाफ था। अब तो अंग्रेजों की जगह इन नेताओं ने ले ली है, अबवे उस नारे का क्या करें। गांधी हैं भी नहीं कि उनसे पूछा जाय, इस स्थिति में इसनारे पर अमल जनता के लिये छोड़ दिया गया है। वह करे या मरे।

तो जनता क्या कर रही है, धृतराष्ट्रने पूछा।

संजय बोला, महाराज, जनता कर भी रहीहै और मर भी रही है। उसको अपना ध्यान खुद रखना है। जनता में दो वर्ग हैं। कुछ लोगकुछ नहीं करते पर उन्हें बहुत कुछ मिलता है, उन पर सरकार की कृपा तो है ही,लक्ष्मी की भी कृपा है। उनके घर पर धन बरस रहा है। लेकिन ज्यादातर लोग ऐसे हैं, जोदिन-रात मेहनत करके भी अपने परिवार के भरण-पोषण भर का नहीं जुटा पाते। वे कई बारऐसी जिन्दगी को सह नहीं पाते और मरने की राह पर चल पड़ते हैं। गरीब, किसान, मजूरकरते भी हैं, मरते भी हैं। हां, कुछ निहायत समझदार किस्म के लोग भी हैं, जो अपनेको रखते तो इन्हीं गरीबों की कटगरी में, पर शामिल रहते हैं नेताओं की कटगरी में।वे भागते, दौड़ते, करते हुए दिखायी पड़ते हैं पर सच में वे कुछ करते नहीं। इन्हेंदलाल कहा जाता है। ये हमेशा अपनी फटेहाली का रोना रोते रहते हैं और अपनी तिजोरियांभरते रहते हैं। एक मध्यम वर्ग भी है, जो करता भी है पर सारा किया-धरा दिखावे में झोंकदेता है। वह घर के बाहर सूट-बूट में तना हुआ दिखता है पर घर के अन्दर दबा, पिसा औरमरा हुआ। वह कर्ज की गाड़ी में चलता है, उधार का पेट्रोल भरवाता है, बच्चों की फीसके लिये अपने अधिकारी से ऐड्वांस की खातिर गिड़गिड़ाता है और शेखचिल्ली की तरह जीताहै। यह भारत की जनता बड़ी विचित्र है। भीड़ में तो वह शेर की तरह गुर्राती है, परमार पड़ते ही भाग खड़ी होती है। अकेले तो कोई माई का लाल हिम्मत से सच बोलने की सोचभी नहीं सकता। सबको अपनी-अपनी पड़ी है। यही गांधी के सपने का भारत है, यही उनकेसच्चे अनुयायी।

जय हो, संजय, चलो मैं खुश हूं किमेरे पुत्रों की परम्परा अभी इस गौरवशाली महान भारतभूमि पर जीवित है। फिर तोमहाभारत की सम्भावना भी जिंदा है, फिर मेरा यह जन्म भी सार्थक रहेगा। अच्छा है, कभी-कभीतुमसे युगकथा सुनता रहूंगा।

अच्छा महाराज, प्रणाम।



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डा. सुभाष राय
ए-१५८, एम आई जी, शास्त्रीपुरम, बोदला रोड, आगरा
फ़ोन-०९९२७५००५४१

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3 टिप्पणियाँ

  1. जरूरी तो नहीं कि दुखी लोगों को ही खुश होने का अधिकार है। वे सब खुश हो सकते हैं जो दूसरों के दुखी होने का सबब बनते हैं।

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  2. मुझे आपका प्रयाश काफी अच्छा लगा और आपका प्रयास सफल हो ऐसी आशा है |

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