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गम-ए-जिन्दगी [कविता]- सुमन मीत



अश्क बनकर बह गए जिन्दगी के अरमां
चाहतें अधूरी रह गई इसी दरमियां

खाबों का घरौन्दा टूट कर बिखर गया
हमसे हमारा साया ही जैसे रूठ गया

फूल भी जैसे अब न बिखेर पाये खुशबू
कांटे ही कांटे हैं जीवन में जैसे हरसू

दिल जैसे रो रहा पर होंठ मुस्कराते
गम-ए-जिन्दगी का ज़हर पीते जाते

इस चमन से आज ये ‘सुमन’ है पूछे
क्या पाया है उसने जिन्दगी से मिल के

क्या पाया है उसने जिन्दगी से मिल के............

                                              सुमन ‘मीत’

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4 टिप्पणियाँ

  1. क्या पाया है उसने जिन्दगी से मिल के............
    achchhi kavita badhai

    जवाब देंहटाएं
  2. ना रिश्तों की अहमियत है
    ना भावनाओं पे गौर है,
    एक अज़ब की बेकसी है
    एक गज़ब का दौर है।
    क्या कहूँ, किससे कहूँ
    सभी ने तो है यहाँ
    अपने ज़ख्मों के सौदा किये.
    एक तुम्हीं नहीं हो 'विजय'
    दर्द के सलीब पे टंगे हुए,
    इस ज़माने ने हजारों
    मसीहा हैं पैदा किये .

    जवाब देंहटाएं

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