सर्दियाँ-1
छत हुई बातून वातायन मुखर हैं
सर्दियाँ हैं।
एक तुतला शोर
सड़कें कूटता है
हर गली का मौन
क्रमशः टूटता है
बालकों के खेल घर से बेख़बर हैं
सर्दियाँ हैं।
दोपहर भी
श्वेत स्वेटर बुन रही है
बहू बुड्ढी सास का दुःख
सुन रही है
बात उनकी और है जो हमउमर हैं
सर्दियाँ हैं।
चाँदनी रातें
बरफ़ की सिल्लियाँ हैं
ये सुबह, ये शाम
भीगी बिल्लियाँ हैं
साहब दफ़्तर में नहीं हैं आज घर हैं
सर्दियाँ हैं।
सर्दियाँ – 2
मुँह में धुँआ, आँख में पानी
लेकर अपनी रामकहानी
बैठा है टूटी खटिया पर
ओढ़े हुए लिए लिहाफ़ दिसंबर।
मेरी कुटिया के सम्मुख ही
ऊँचे घर में बड़ी धूप है
गली हमारी बर्फ़ हुई क्यों
आँगन सारा अंधकूप है?
सिर्फ़ यही चढ़ते सूरज से
माँग रहा इंसाफ़ दिसंबर।
पेट सभी की है मज़बूरी
भरती नहीं जिसे मज़बूरी
फुटपाथों पर नंगे तन क्या-
हमें लेटना बहुत ज़रूरी?
इस सब चाँदी की साज़िश को
कैसे करदे माफ़ दिसंबर।
छाया, धूप, हवा, नभ सारा
इनका सही-सही बँटवारा
हो न सका यदि तो भुगतेगी
यह अति क्रूर समय की धारा
लिपटी-लगी छोड़कर अब तो
कहता बिल्कुल साफ़ दिसंबर।
4 टिप्पणियाँ
Baichain sahab is THE BEST
जवाब देंहटाएंडॉ. कुँअर बेचैन जी को बहुत दिनो बाद पढकर अच्छा लगा...
जवाब देंहटाएंमेरी कुटिया के सम्मुख ही
जवाब देंहटाएंऊँचे घर में बड़ी धूप है
गली हमारी बर्फ़ हुई क्यों
beautyful ....most...life's reality.
uttam rachnayen..
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.