साहित्य-मर्मज्ञ श्री. सुरेन्द्र चौधरी जी मेरे प्रिय लेखक रहे। उनके अध्ययन की गहराई और समझ से सदा प्रभावित रहा। ऐसे ईमानदार आलोचक विरल हैं।
सन् 1997 में जब मेरा पन्द्रहवाँ कविता-संग्रह ‘आहत युग’ प्रकाशित हुआ; तो मैंने उनसे सम्पर्क करना चाहा। सोचते-सोचते अनेक माह गुज़र गये! अन्ततः एक दिन, उन्हें निःसंकोच पत्र प्रेषित कर ही दिया। अत्यधिक तोष हुआ, जब उनका उत्तर मुझे तत्काल प्राप्त हुआ। उनका यह प्रथम पत्र दि. 14 अक्टूबर 1998 का है। सोचा न था कि वे मेरे काव्य-कर्तृत्व से पूर्व-परिचित होंगे।
उन्होंने लिखा — “आपका मैं पुराना पाठक हूँ।’’ — तो सचमुच आश्चर्यमिश्रित सुखद अनुभूति हुई। मेरा लेखन-कर्म सन् 1941 से प्रारम्भ हुआ और काव्य-कृतियों के प्रकाशन का सिलसिला सन् 1949 से। मेरे पास जो भी काव्य-कृतियाँ उपलब्ध थीं; श्री. सुरेन्द्र चौधरी जी को भेज दीं। यों उनसे मेरे संबंध स्थापित हो गये। समय-समय पर पत्र-व्यवहार होता रहा। उनका उपरि-अंकित प्रथम पत्र मेरे पास सुरक्षित है:
गया / दि. 14-10-98
श्रद्धेय भटनागर जी,
पत्र मिला। आपका मैं पुराना पाठक हूँ। मुझे अपकी काव्य-पुस्तक पर लिख कर संतोष मिलेगा। इधर अर्से से आपको पढ़ने का अवसर नहीं मिला। ‘आहत युग’ और कुछ दूसरे संग्रह भी भेज सकें तो कविता का तारतम्य सुलझ जाएगा। वैसे मैं ‘40-‘50 की रचनाओं से परिचित हूँ। आप लोग मुझे याद कर लेते हैं, मेरे लिए यही बहुत है। मैं यथासाध्य, रुचि लेकर इस पुस्तक पर लिखूंगा।
आपका,
सुरेंद्र चौधरी
‘श्रद्धेय भटनागर जी’ संबोधन से गहन आत्मीयता का बोध ही नहीं हुआ; उनके हृदय की विशालता भी मेरे मानस-पटल पर अंकित हो गयी।
मैंने उन्हें लिखा, ‘‘ अटूट संबंधों का आकांक्षी आपका भाई हूँ — महेंद्रभटनागर।’’
आग्रह रहा, “मुझे ‘भटनागर जी’ न लिखें। मेरा नाम ‘महेंद्रभटनागर’ है या ‘महेंद्र’। ‘भटनागर’ कार्यस्थों में होते हैं। मैंने स्वयं को कभी भी किसी जाति-विशेष से जोड़ना पसन्द नहीं किया। प्रारम्भ में ‘अज्ञात’ उपनाम से लिखता था; फिर ‘महेंद्र’। ‘महेंद्रभटनागर’ नाम से मेरी प्रथम कविता ‘हंस’ में छपी, सन् 1946 के आसपास — ‘युग और कवि’ (‘नयी चेतना’ में समाविष्ट)। एक स्वीडिश लेखक के ध्वनि-साम्य पर मुझे अपना नाम ‘महेंद्रभटनागर’ अच्छा लगा तो सहज ही रख लिया; आज लगता है; ग़लत किया। क्या पता था; जाति-बोधक बन जाएगा। मेरे जन्म का संबंध यदि ‘भटनागर’ कुल से है तो इसके लिए मैं क्या करूँ! कुल-चयन किसी के हाथ में नहीं। अस्तु।
घर में दो-दो बार दीमक लग जाने के कारण, भाई सुरेन्द्र चौधरी जी के भी तमाम पत्र आज अनुपलब्ध
हैं। उनका एक और पत्र जो सुरक्षित है; वह :
गया / दि. 14-12-99
श्रद्धेय भाई,
बीच में अस्वस्थ होकर धनबाद में ब्लड-प्रेशर का इलाज कराने चला गया था। आपका काम फिर शुरू किया है। वर्त्तवाल और आप एक ही दशक के दो महत्त्वपूर्ण कवि हुए। इसी समय उर्दू में प्रसिद्ध प्रोग्रेसिव शायर साहिर भी उभरे। इनका मिला-जुला अध्ययन काफ़ी रोचक रहेगा। यह लोक-व्यापी आन्दोलन, अपने समय का सबसे गतिशील अभिव्यक्ति था। आज स्थिति बदल गई है। मगर मूल कारक अभी भी कार्यकारी हैं। कविता का विषय और विस्तारित हुआ है। कवि के सरोकार भी अधिक मानवीय हुए हैं। काव्य-भाषा को लेकर काफ़ी नवीनता आई है। यह सब मैं अपने लेख में समेटना चाहता हूँ। व्यक्तिगत और सामाजिक अन्तर्विरोधों को लेकर भी कुछ सवाल उठे हैं।
आपका,
सुरेंद्र चौधरी
इस पत्र में भी ‘श्रद्धेय’ शब्द का प्रयोग उन्होंने किया; जिससे स्वयं को संकुचित अनुभव करता रहा हूँ। भाई सुरेन्द्र चौधरी जी के अस्वास्थ्य से चिन्तित हुआ। इस बीच मेरे काव्य-कर्तृत्व पर वे लिखते रहे; किन्तु आलेख पूर्ण न कर सके। स्वस्थ होते ही पुनः लिखना शुरू किया। पता नहीं, इस आलेख पर कितना काम कर सके। अस्वास्थ्य ने उन्हें सुविधा प्रदान नहीं की।
काश, यह अपूर्ण आलेख ही प्राप्त हो जाता। वैसे वह उनके अपूर्ण-अप्रकाशित साहित्य में आज भी सुरक्षित होगा। हो सकता है, इस आलेख में उन्होंने वर्त्तवाल और साहिर से तुलनात्मक विमर्श भी किया हो।
श्री. सुरेन्द्र चौधरी जी ने, जिस ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में, मेरे काव्य-कर्तृत्व पर जो निष्कर्ष दिया वह निःसंदेह विचारोत्तेजक है। उर्दू के मशहूर तरक्क़ीपसंद शायर साहिर से मेरे काव्य के तुलनात्मक अध्ययन का विचार अनेक आलोचकों को चौंका सकता है। यह बात मैंने आज-तक किसी को बतायी नहीं — यद्यपि ये दोनों पत्र ‘महेंद्रभटनागर-समग्र’ खंड-6 में ‘पत्रावली’ के अन्तर्गत प्रकाशित हैं। (प्रकाशन सन् 2002)। मैं नहीं समझता, फ़िलहाल, कोई इस ओर ध्यान देगा। आज तो मेरी पूर्व-प्रकाशित काव्य-कृतियाँ तक अप्राप्य हैं। उनके नये संस्करण निकल नहीं पा रहे हैं। ‘समग्र’ (‘महेंद्रभटनागर‘समग्र’) और ‘रचनावली’ (‘महेंद्रभटनागर की कविता-गंगा’) की क्रय-शक्ति अधिकांश में होती नहीं। अन्यथा भी, ‘महेंद्रभटनागर-समग्र’ में प्रकाशित श्री. सुरेन्द्र चौधरी जी के पत्र, शायद ही किसी ने पढ़े हों। सर्वत्र संवेदनहीनता दृग्गोचर होती है। तटस्थ-निष्पक्ष लिखने की क्षमता तो लब्ध-प्रतिष्ठ आलोचकों में होनी चाहिए।
श्री. सुरेन्द्र चौधरी जी का आकस्तिक निधन मर्मान्तक है। मुझे तो आज भी बड़ा पछतावा है। मेरे लेखन में इतनी गहन रुचि लेने वाला इतनी जल्दी चला जाएगा!
इसे भाग्य की विडम्बना ही कहा जाएगा!
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[जन्म-तिथि : 13 जून 1933 / निधन-तिथि : 9 मई 2001]
3 टिप्पणियाँ
संग्रहणीय आलेख।
जवाब देंहटाएंआज कल पत्र ही कौन लिखता है इसी कारण एसी अत्मीयता के दर्शन भी नहीं होते हैं। महेन्द्र जी को धन्यवाद। पत्र भी एक विधा है इसे समझना चाहिये। आभार साहित्य शिल्पी।
जवाब देंहटाएंअच्छा आलेख...बधाई
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.