लखनऊ निवासी 30 वर्षीय आइटी एक्सपर्ट
कुछ अरसा पहले अपनी आंखों की ज्योति खो चुके हैं। गहरे डिप्रेशन में चले जाने के
बाद उन्होंने जैसे पूरी दुनिया से नाता ही तोड़ लिया था। अपना लिखा सब कुछ मिटा
दिया। हमें उनकी ये कविताएं बहुत मुश्किल से मिल पायी हैं। आजकल वे ब्रेल के
जरिेये अपने और अपने जैसे दूसरे दृष्टिहीनों के लिए संवाद की नयी दुनिया की तलाश
में लगे हैं। हमें पूरा विश्वास है, एक दिन वे अपनी कविता की बेहतर और परिचित दुनिया
में लौटेंगे। स्वागत है गौरव साहित्यशिल्पी
में तुम्हारा।
आज प्रिये मधुपान करा दो
जलते वन के इस तरुवर को
पावस का संग्यान करा दो।
आज प्रिये मधुपान करा दो।।
सुख-दुख के ताने-बाने में
उलझा रहा चिरंतर...
दुर्गम पथ पर, चोटिल पग ले
चलता रहा निरंतर...
जीवित हूँ पर जीवन क्या है
इसका मुझको भान करा दो।
आज प्रिये मधुपान करा दो।।
थके हुए निर्जल अधरों में
फिर से प्यास जगी है।
सुलग रही यह काया भीतर
जैसे आग लगी है।
देखो मेरी ओर नयन भर
तृष्णा का अवसान करा दो।
आज प्रिये मधुपान करा दो।।
जैसे दूर हुये जाते हैं
हम ख़ुद ही अपने से।
अच्छे दिन जो बीत चुके हैं
लगते हैं सपने से।
मन में श्याम निशाएं गहरी
उनका एक विहान करा दो।
आज प्रिये मधुपान करा दो।।
ख़यालों का क्या करूँ
मेरे ख़ुदा मैं अपने ख़यालों का क्या
करूँ
अंधों के इस नगर में उजालों का क्या
करूँ
चलना है मुझे मेरी मंज़िल है मीलों दूर
मुश्किल है ये कि पाँव के छालों का
क्या करूँ
दिल ही बहुत है मेरा इबादत के वास्ते
मस्ज़िद का क्या करूँ मैं शिवालों का
क्या करूँ
मैं जानता हूँ सोचना भी अब तो ज़ुर्म
है
लेकिन मैं दिल में उठते सवालों का
क्या करूँ
जब दोस्तों की दोस्ती है सामने मेरे
दुनिया में दुश्मनी की मिसालों का
क्या करूँ
कौन किसको छल रहा है
सृष्टि में इस सर्जना का
दौर ऐसा चल रहा है;
पार बैठा है अँधेरा
और दीपक जल रहा है।
कौन किसके साथ, कैसा मीत
क्या रिश्ते यहाँ
पूछ मत अपना बनाकर
कौन किसको छल रहा है।
जड़ हुई जाती यहाँ
संवेदना को देख ले
फूल सा मन किस तरह से
पत्थरों में ढल रहा है।
आजकल के देवता को
क्या भला अर्पित करें हम
पाप को वरदान हासिल
पुण्य ही निष्फल रहा है।
धर्म तो संघर्ष का ही
नाम है जैसे यहाँ
पार्थ के सम्मुख हमेशा
कौरवों का दल रहा है।
पाप-पुण्य
होम करते घर जलेंगे,
देवता हमको छलेंगे।
यह नियति है सृष्टि की तो
फिर भला संताप क्या है?
पूछता हूँ मैं जगत से
पुण्य क्या है, पाप क्या है??
देह धर्मों से विलग यह
मन कभी होता नहीं है।
और अपनी अस्मिता को
वह कभी खोता नहीं है।
इसलिए तो प्राण जीवित;
नैन में अभिसार जीवित।
मृत्यु का यह द्वार देखें
तो भला अभिशाप क्या है?
भावना के फूल अपनी
कामना लेकर खिलेंगे।
देवता के शीर्ष पर कुछ
धूल में जाकर मिलेंगे।
डालियों पर फूल भी हैं,
साथ लेकिन शूल भी हैं।
कंटकों पर वह खिलें तो
फिर बताओ श्राप क्या है?
सात जन्मों से अधर की
प्यास लेकर जो खड़े हैं;
देखते निर्मोहियों के
हाथ अमृत के घड़े हैं।
एक है अतृप्त मन से;
एक है संतृप्त तन से।
है यही जीवन भला तो
वंचना का माप क्या है?
पूछता हूँ मैं जगत से
पुण्य क्या है, पाप क्या है??
8 टिप्पणियाँ
sabhi kavitaye bahut hi umda hai.really nice.all the best.
जवाब देंहटाएंआजकल के देवता को
जवाब देंहटाएंक्या भला अर्पित करें हम
पाप को वरदान हासिल
पुण्य ही निष्फल रहा है।
धर्म तो संघर्ष का ही
नाम है जैसे यहाँ
पार्थ के सम्मुख हमेशा
कौरवों का दल रहा है।
कमाल की कविता लिखते हो यार। इसे पढ कर हम तो हरे भरे हो गये।
भाषा शिल्प भाव क्या कहने
जवाब देंहटाएंगौरव की कविता पढते हुए लगता है 70 के दशक का गीत सुन रहे है वैसा ही मीठा और मन को छूने वाला होता है।
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएं-Alok Kataria
bhavpurn kavitaye,badhai.
जवाब देंहटाएंman ko chhune wali guorav ki kavitaye .
जवाब देंहटाएंगौरव की कविता पढते हुए लगता है 70 के दशक का गीत सुन रहे है वैसा ही मीठा और मन को छूने वाला होता है।
जवाब देंहटाएंBILKUL SAHI ,,,,,
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.