क्या चाहिए?
पंसारिया सेठ को रोज़-रोज़
इस वाक्य की डु्गडुगी नहीं बजानी पड़ती
शाम ढले उन्हीं की दुकान से तो जाता है
कई पेट को राशन
पाव दाल
पाव चावल
एक बोतल मटिया तेल
एक किलो आटा
नून-मिर्च-हल्दी और कभी-कभार सत्तू-गुड़ भी
‘तनिक जल्दी करीबे’
गले भीतर थूक की आखिरी किस्त
हलक से नीचे उतरने को है
दिहाड़ीदारों को जल्दी है
जाकर हैंडपंप से पानी लाना है
स्टोव में घड़ी भर को पम्प मारने हैं
फिर अपने पेट की डबिया का मुंह बंद करना है
शाम के भारी धुंधलके में इन सबकी पहचान मुश्किल है
सब दिहाड़ीदार एक से दिखते हैं
सबकी बोली से राशन टपकता है
सब एक-एक पाई का हिसाब करते ठिठकेंगे
सब अँधेरी कोठरियों में पनाह लेंगे
सब टूट कर सोएंगे
सब तीन-चार साल बाद अपने गांव का मुंह देखेंगे
सबकी आँखों की कोर सूखी और कड़क होगी
मजदूरी ना मिलने पर सब रतजगा करेंगे
सब पोलिथिन को ‘मोमजामा’ कहेंगे
दिहाड़ी के ना होने पर सब उस गंदे नाले वाले चौक पर
नए काम की बाट में बैठेंगे
457 मिलीयन दिहाड़ीदार
इतनी विशाल संख्या से तो
एक पूरे देश का नक्शा तैयार होता है
और एक ये भूखे कामगारों का देश
जिसके श्वेत-श्याम सपनों पर नीला थोथा डोल गया है
इस देश का अजब किस्सा है
यहाँ मेहनत को ‘मजदूरी’ कहते हैं
तनख्वाह को ‘दिहाड़ी’
जो चंद रुपयों से ऊपर नहीं चढ़ती
यहाँ मिल की पन्द्रहवीं मंजिल से गिर कर
एक जवान मजदूर बिना मुआवजे के
बिस्तर पर पड़ा-पड़ा बूढ़ा हो जाता है
यहाँ सेठों के किये धरे को साफ़ करने के लिए
मजदूरों के पसीने को इस्तेमाल में लाया जाता है
एक साथ कमर झुकाए
कोयले की खदानों में
बीस मंजिला इमारत बनाते बेघर मजदूर
गटर साफ़ करने हुए
डामर की टूटी सड़कों पर गर्म तारकोल उढ़ेलते हुए
दिखते है दिहाडीदार
कतारबद्ध, छेनी, हथोड़ा, तन्सला, ईंट, कस्सी, कुदाल, जेली लिए हुए
इतनी भोली और बेजुबान जनता देखी है कहीं
हर शाम बिना हो-हल्ला किये
जो अपनी मेहनत का छटांक ले
चुपचाप अपनी राह हो लेती है
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2. हमारी कामगार तस्वीरें
दो ठो मजबूत हाथ
दो ठो बलिष्ट पाँव
बस इतना ही
और हमारी तस्वीरें हुई मुकम्मल
धड़ के ऊपर का अंश
सिरे से ही गायब क्यों ?
बीच में सिर होता है ना बच्चे
और सिर भीतर दिमाग
बस वही नहीं चाहिये यहाँ
यही दिमाग तो बेलगाम हरकतें करता है
और गड़बड़ इसकी हरकतों से पैदा होती है
ऐसे ही तो चित्रित होती है
देश-दुनिया के मजदूरों की तस्वीरें
धड़ विहीन सिर के
और सुनो,
इनमें रंग मत भरना
ये ऐसे ही शोभा देती हैं
श्वेत-श्याम नहीं तो सलेटी
कोमलता का एक भी लहराती वलय रेखा
यहाँ मत उकेरो
अब लाओ
ले आओ
यहीं बगल में अट्टा दो
सींगों वाले सिरों वाली प्रबुद्धजनों की रंगीन तस्वीरों को
यहाँ बगल में
इस तरह चित्रों के संसार में भी
दो दुनिया इकट्ठा होती हैं
विपरीत दिशाओं में जाने के लिए
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3. श्रमिक पचीसी
कैसे घर कर लेता है एक कीड़ा
फल में
क्या उसे गंध से प्रेम है?
‘गंध मजबूरी है
प्रेम नहीं’
कीड़ा भूखा है
मुग्ध नहीं
ठीक गटर के बीच में घुस
एक मजदूर दुर्गन्ध में कुनमुनाता है
मजदूर बेबस है
बहादुर नहीं
भूख तो
उस प्रेम को भी पटकनी दे सकता है
जिसका माई-बाप खुदाओं का खुदा माना गया है
हम मजदूरों की पहुँच भी ऐसे ही तो है
नीचे से नीचे गहराई में
ऊपर से ऊपर अंतस ऊँचाई में
मजदूर बेलगाम बोल उठते हैं
हमारी हड्डियों में कैल्सियम नहीं
शीशा है
आँखों में रतौंदी
हमारी माएं घरों में बर्तन मांजती हैं
बहनें सैलानियों का मनोरंजन करती हैं
भाई बजरबट्टू बने सड़क पर पानी की बोतलें बेचते हैं
दुनिया भर की अजीबों-गरीब बीमारियाँ
बाजीगरी दिखती हुई
एक मजबूत रस्सी की मदद से
सीधी हमारे जिस्मों में उतरती हैं
अपने ही देशों में विस्थापित हम
हमारे धर्म अलग
जाति अलग
हमारी भूख अलग
हमारी प्यास अलग
हमारे राशन कार्ड अलग
हमारी जनगणना अलग
हम अलग थलग शलग
हमारा थूक अलग
हमारा पेशाब अलग
देखते तो हो ही तुम
बाल मजदूरी के खिलाफ झंडा बुलंद करने वाले अगवाओं के
घर हम रोटी पकाते
बर्तन साफ करते पाए गए
हमारा श्रम देवता भी
तुम्हारी चिकनी दुनिया की ओर मुंह भी नहीं करता
बस आशीर्वाद देता है
“प्रसन्न रहो ओर हमारी मेहनत पर ऐश करो’
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4. नारा महज नारा है
‘दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ’
पर बोलने से पहने सोचना होगा
हमारी एकता में इतने बल हैं कि
उन बलों को निकालते-निकालते
हमारी पीठ साबुत नहीं बची
नारे का झंडा थमाने वाले खुद
कहीं बाद में जान पाए कि
एक होने के लिए
समय और साधन होने चाहिए
एक होना तो दूर
भूख प्यास से
हमारी मेहनतकश आबादी
आधी-अधूरी हो गई
अधूरों को तोड़ना कहीं आसान होता है
हम टूटे
भर-भर टूटे
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5. हमारा कवि होना
हमारी टक्कर उनसें थी
जिसने भीतर संवेदनाओं
की सिल्ली जम चुकी थी
हम तो भाग्यशाली ठहरे
अपन लोगों के भीतर
उद्वेलना की भांप
अक्सर एक तरंग छोड़ जाया करती है
अपने हुनर को सान पर चढ़ाते हुए हम
अपनी
संवेदनाओं की बत्ती बनाकर
कविताई में रोशनी कर लिया करते हैं
कभी-कभार जुमलों को
सुतली बम की तरह जमीन पर पटक कर
एक-आध धमाका भी कर लेते हैं
हम इसी में खुश हो
सीने के आयतन को कुछ इंच बढ़ा कर
खुशी में गुदबुदाने लगते हैं
हम कवि हैं
कविता हमारा पेट भरती है
दुःख की अंतिम अवस्था में पहुँच
कविता की दरों दीवार से सिर मार लेते हम
हमारा लोकतंत्र हमारे पाँव की बेड़ी हैं
सिर्फ आकाश ही सदा हमारा रहा है
जिसकी ओर मुंह कर हम लंबी सांसें छोड़ते हैं
हम अपनी नियति में चारों कोनों से बंधे हैं
कोई हम कवियों को अन्यथा ना ले
कृपया हमें हमारे हाल पर छोड़ दिया जाये
6 टिप्पणियाँ
मई दिवस की शुभकामनायें। बार बार पढ़े जाने योग्य रचनायें।
जवाब देंहटाएंइस देश का अजब किस्सा है
यहाँ मेहनत को ‘मजदूरी’ कहते हैं
तनख्वाह को ‘दिहाड़ी’
जो चंद रुपयों से ऊपर नहीं चढ़ती
इस देश का अजब किस्सा है
जवाब देंहटाएंयहाँ मेहनत को ‘मजदूरी’ कहते हैं
तनख्वाह को ‘दिहाड़ी’
जो चंद रुपयों से ऊपर नहीं चढ़ती
बहुत अच्छी रचना है। मई दिवस की शुभकामनायें।
अच्छी कविताओं के लिए विपिन जी को बधाई व शुभकामनाएं्।
जवाब देंहटाएंअमृता बेरा
अच्छी कविता...बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर है आपकी लेखनी ने सही लिखा है .लगता है की मैं अपनी ही भावनाओं को पढ़ रहा हूँ....जारी रखिये और हमे इसी तरह सुन्दर सुन्दर कवितायेँ मिलती रहे भगवान् से यही दुआ मानते रहेंगे हम ...एक बार फिर धन्यवाद आपका .
जवाब देंहटाएंसार्थक अभिव्यक्ति!
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.