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[मेरे पाठक] - जितेन ठाकुर


साहित्य में मेरे ‘गॉड फादर’

पाठक मेरे लिए एक सम्मोहन की तरह है। पाठक का पत्र ही मुझे अहसास करवाता है कि मेरा लिखना निरर्थक नहीं है। वह किसी अनजान खला में खो नहीं रहा है, बल्की किसी के हाथों तक पहुँच रहा है और उसी रूप में पहुँच रहा है जिस रूप में मैं पहुँचना चाहता हूँ।

दरअसल, पाठक तक पहुँचना हमेशा से मेरा लक्ष्य रहा है। इसीलिए 1978 में सारिका में छपी कहानी वजूद से लेकर मई 2012 में ‘शुक्रवार’ पत्रिका में छपी कहानी ‘सॉरी मिस्टर रावल’ तक मैंने हमेशा पाठकों का प्यार पाया है। 1978 में छपी पहली कहानी से ही पत्रों का ऐसा सिलसिला बना कि आज तक जारी है। स्नेह, दुलार और प्रोत्साहन से भरे पत्र। देश-काल की सीमाओं को तोड़ते हुए पत्र। लिखने और लिखते जाने के लिए उकसाते हुए पत्र। मेरा मानना है कि यह पाठकों का प्यार ही है जिसने कलम पर मेरी अंगुलियों की पकड़ को कभी ढ़ीली नहीं होने दिया और मैं लगातार पिछले लगभग चैंतीस वर्षों से पाठकों की दहलीज पर खड़ा दस्तक दे रहा हूँ।

यूं लिखने का सिलसिला तो उन्नीस सौ उन्हतर-सत्तर से ही नियमित रूप से शुरु हो गया था पर राष्ट्रीय स्तर पर पाठकों से संवाद की स्थितियाँ 1978 में सारिका में छपने के बाद ही बनी। आज बदली हुई परिस्थितियों में जब हाल ही में प्रकाशित मेरी कहानी के साथ मेरा फोन नं छापा गया है तो पाठकों के जितने प्यार भरे फोन और एसएमएस आ रहे हैं वह इस बात के लिए आश्वस्त करते हैं कि साहित्य के पास आज भी पाठक है, बशर्ते आप की कलम में पाठक से जुड़ने की ताकत हो और रचना छापने वाली पत्रिका में पाठक तक पहुँचने का मादा। मुख्यधारा-मुख्यधारा का राग अलापने वाली वह कुछ पत्रिकाएँ जो बामुश्किल दो-तीन सौ छापी जाती हैं और फिर सौ लोगों तक पहुँच कर सिमट जाती हैं- अपने लिए ही पाठक नहीं जुटा पातीं तो फिर लेखक को पाठक कहाँ से देंगी।

यहाँ प्रसंगवश यह बताना भी आवश्यक हो जाता है कि ऐसी ही पत्रिकाएँ और उनके स्वनामधन्य सम्पादक अपने को केन्द्र में बनाए रखने के लिए प्रायोजित चर्चाएं आयोजित करते हैं और अपने लेखक को समझाते हैं कि तुम्हारा पाठक तक पहुँचने से ज्यादा जरूरी है- हमारी पत्रिका में बने रहना। क्योंकि हिन्दी साहित्य अब हमारी गिरफ्त में है और अब पाठक नहीं हम तय करेंगे कि कौन लेखक किस सौपान पर है। मेरा मानना है कि पाठकों की राय के बनिस्पत ऐसी व्यूह रचना से किसी लेखक को उठाना-गिराना, उस लेखक के परिश्रम और ऊर्जा को नष्ट करने जैसा है। 

सौभाग्यवश मैंने लेखन का वह दौर देखा है जब पाठकों के असंख्य प्यार भर पत्र आते थे। संचार माध्यमों के कारण आज पत्रों की संख्या में अपेक्षाकृत कमी आई है, पर यदि रचना पाठक को छू जाए तो आज भी पत्र आते ही आते हैं। जनवरी 2012 को, नववर्ष की शुभकामनाओं से भरा हुआ एक कार्ड मुझे मिला। कार्ड भेजने वाला मेरे लिए बिल्कुल अनजान-अपरिचित था। पर तभी मैंने देखा कि कार्ड के एक कोने में छोटा-छोटा लिखा हुआ था- संदर्भ ‘भंवर’।
दरअसल, ‘भंवर’ क्रिकेट के मोहजाल पर लिखा गई एक ऐसी कहानी थी जो क्रिकेट के विश्वकप के दौरान मार्च 2011 में एक बड़े प्रसार वाले दैनिक पत्र में छपी थी। इस कहानी पर पहले भी पाठकों के पत्र आए थे, परंतु लगभग एक वर्ष बाद इस कहानी की याद और लेखक के पते को सहेज कर रखना- पाठक का प्यार ही तो है। फिर क्यों मैं अपने पाठकों पर गर्व न करूं।

मैं आज भी सिर्फ और सिर्फ पाठकों के लिए लिखता हूँ। इसीलिए मेरी प्राथमिकता ऐसे पत्र-पत्रिकाओं में छपने की होती है। जिनका स्तर भी हो और जो ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक पहुँचते भी है। वर्षाें पहले ‘हंस’ में छपी मेरी एक कहानी के बाद, हरिद्वार से मुझे एक ऐसा पत्र मिला था जिसमें देश के कई नामचीन संगीतकारों, कलाकारों और दूसरे क्षेत्र की हस्तियों के काले कारनामों की फहरिस्त थी। पाठक का अनुरोध था कि मैं इस पर भी एक कहानी लिखूँ। यह उस पाठक का विश्वास और जुड़ाव ही था कि उसने मुझसे अपने मन की पीड़ा को साझा किया था। 

मेरी कहानी ‘कोट लाहौर वाला’ पढ़कर तो एक स्थानीय पाठक मेरा घर ढ़ूंढते हुए आ पहुँचे और मुझसे वो कोट दिखाने का इसरार करने लगे। ऐसे कई किस्से हैं जो, जब भी मुझे याद आते हैं- गुदगुदाते हैं और मुझे ऊर्जा से भर जाते हैं।

पंजाब के आतंकवाद पर लिखी गई कहानी ‘दहशतगर्द’ हो पेटेंट कानून पर लिखी गई ‘सर्वाधिकार सुरक्षित’, बाबरी मस्जिद पर लिखी गई ‘गर्द-ओ-गुब्बार’ या फिर जीवन से जुड़ी दूसरी पचासों कहानियाँ, मेरे पाठकों ने सबको हाथों-हाथ लिया है। मुझे रेखांकित करके प्रायोजित करने वाला कोई ‘गॉडफादर’ साहित्य में कभी नहीं रहा, बस पाठकों का स्नेह और अपनत्व ही है जिसने मुझे थकने नहीं दिया और साहित्य में बनाए और बसाए रखा। मुझे गर्व है कि मेरे पास आज देश-काल की सीमाओं को तोड़ता हुआ एक बड़ा पाठक वर्ग है। 

नेपाल के गोविंदगिरी ‘प्रेरणा’ हो या कलकत्ता के प्रफुल्ल कोलख्यान, बर्लिन की सुश्री लोटेज्का हों या बिहार के सुबोध कुमार झा, जम्मू से ध्यान सिंह हों या कर्नाटक से एस0 श्रीनाथ, पूना जेन के वो कैदी पाठक हों या फिर राजस्थान के एक विाहर के भिक्षु हर्ष वीतराग मुझे ऐसे असंख्य पाठकों का प्यार मिला है। कई पाठकों के तो दुख-दर्द का भी मैं साझी रहा हूँ।  यह वह लोग हैं जिनसे मैं न कभी मिला और शायद इस जीवन में कभी मिल भी न पाऊं, पर जिस तरह मेरे दिल में उनकी याद रहती है- मानता हूँ कि वह भी मुझे उसी तरह याद करते होंगे। ऐसे भी हजारों पाठक होंगे जिन्होंने मुझे कभी पत्र नहीं भेजा पर जिनके दिल को मेरी कहानियों ने छुआ होगा। बस! यही सोच किसी भी परिस्थिति में मुझे साहित्य से जुडे़ रहने की ताकत देता है और पाठक तक पहुँचने की मेरी कोशिशें और भी ज्यादा बढ़ जाती है। उनके भेजे हुए पत्र ही मेरे जीवन का वो सरमाया है जिसे पिछले चौंतीस साल से मैं तिल-तिल कर संजो रहा हूँ और रहते दम तक संजोता रहूँगा। 
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4. ओल्ड सर्वे रोड़,
देहरादून

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