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[व्यंग्य] – सूर्यबाला – “यात्रा एक सम्मेलन की”



अंतरराश्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन से बुलाया आया तो खुश होने के बदले चौकानी हो गई। हिंदुस्तानवालों को तो हर वर्ष बदलने मेरे पतों की जानकारी नहीं, विदेश मे रहनेवालों केा कैसे हो गई? यानी स्वदेश की स्वदेश की हर चीज में विदेशी हाथ होने की सच्चाई प्रमाणित हो गईं। (यों अंदर-अंदर गुमान से भरी और मरी जा रही थी-अहा! ‘खाते‘ नहीं खुल पाए विदेशों में तो क्या, नाम-पते तो लीक हो गए!) यह सब सरकार की ढुलमुल नीति और लापरवाही का नतीजा; लेखकों के नाम-पतों की कोई सुरक्षा ही नहीं। 

निमंत्रण बड़े बेमौके भी आया था। कहाँ तो मैं अमेरिका में बसे बाल-बच्चों के पास जाने के लिए सूटेकेसों में भरी मिर्चे और मठियाँ सहेज रही हूँ, कहाँ यह निमंत्रण-पत्र कैरेबियन देशो में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए कबीर, तुलसी के रोलों का खुलासा करने के लिए कह रहा है। जैसे मैं अमिताभ बच्चन या गोविंदा होऊँ। कोई सा भी डबल रोल पकड़ा दो-कर ले जाऊँगी। लेकिन लोगो ने सुना तो मेरी नासमझी पर तरस खा गए-कमाल करती हैं। बाल-बच्चों की खातिर अमेरिका तक जा रही हैं, हिंदी की खातिर एक और नहीं फलाँग सकती? कुल पाँच-छह घंटे ही तो लगने है यहाँ से। वैसे भी हिंदी लेखक आजकल साहित्य में पैदा बाद में होते हैं, अंतराश्ट्रीय सम्मेलनों से पहले हो आते हैं। पिछले दिनों नामकरण संस्कार अंतराश्ट्रीय सम्मेलनों में ही संपन्न हुए। सारी स्थानीय, राष्ट्रीय निशनियों को अँगुठा दिखाते हुए ऐसा लेखक अंतरराश्ट्रीय नक्षत्र मंडली में सहज ही अपना नाम शुमार कर लेता है। सबसे बड़ी बात, हिंदी के विकास और प्रगति के लिए विदेषों से उपयुक्त जगह कोर्इ्र दूसरी हो ही नहीं सकती। ये विदेश हिंदी लेखकों के लिए काबा-कैलास हैं, मक्का-मदीना है, चारों धाम है। पिछले तीन दशकों से आप चुकाने का अवसर, आयोजन में यजमानी करने का मौका आया तो पापड़- बड़ियों का वास्ता दे रही है। कहाँ गया आपका हिंदी-प्रेम? 

इन शब्दों ने मेरा उद्बोधन किया, मेरे ज्ञानचक्षु खोले। पति-परिवार मेरे निर्णय से अति प्रसन्न। अमेरिका पहुँचते ही पिता ने पुत्र को बुलाकर आदेश दिया, ‘‘अपनी माँ के लिए हिंदी सम्मेलन तक का टिकट ला दो। सम्मेलनवालों का दिया कुछ कम पड़ रहा हो तो भी हिचकना मत, अपने पास से लगा देना। सुना है, अंतरराश्ट्रीय हिंदी सम्मेलनों के निमंत्रण इन दिनों ब्लैक में बिक रहा हैं। ऐसे सम्मेलनों की भनक लगते ही दुनिया के कोने-कोन से हिंदीवालों मे अपने आपको निमंत्रित करवाने के होड़ लग गयी हैं हर कोई निमंत्रण-पत्र प्राप्त करने के लिए हर संभव जुगत बिठाने लगता है। गृह-खर्च आदि की तो काई बात ही नहीं करता। एक बार निमंत्रण हाथ लग जाए तो इतनी सरकारी, गैर-सरकारी अकादमियाँ, संस्थान हैं ही खर्चा-पानी जुटाने के लिए। अंतरराश्ट्रीय स्तर पर हिंदी की एसी सेवा का अवसर फिर न जाने कब आवे। बड़े भाग्य सेवा का अवसर पायाऽऽ अवसर आया। इस अवसर में हवाई यात्राएँ है, मुफ्त के सैर-सपाटे हैं, दूतवासों में भोज हैं, 
इसलिए काउंटर पर षिकायत दर्ज करानी पड़ी कि हिंदीवालों के साथ सहयोगी संस्थाओं में यजमानी है; खाने-पीने, उठने-बैठने, घूमने-फिरने आदि के तरह-तरह के भत्ते हैं। सब षामिल हो जाता है इस अवसर में। बाकी आवास-प्रवास, माइक-मंचख् मीड़िया के साथ मुफ्त के कागज, कलम, सोविनियर के साथ चार-छह किलो किताबें भी। इसलिए सोत्साह चला संसद् का प्रतिनिधिमंडल, संस्थाओं के षिश्टमंडल, अकादमियों के अध्यक्ष, सचिव, सदस्य, सयोजक; चले कुरते-धोती, सुनहली बटनें, सफारी; चले उत्तरीय, चष्मे और फाइलें....चली मैं भी। 

प्रवासी बेटा प्रसन्नचित अपनी प्रसन्नचित अपनी पत्नी से बोला, ’’माँ आई हैं तो क्या, हफ्ते भर बाद ही अंतरराश्ट्रीय सम्मेलन में चली जाएँगी! तुम्हें परेषान होने की जरूरत नहीं।’’ 

बेटे ने उसी शाम मुझे टिकट भी लाकर पकड़ा दिए। जैसे पुरी एक मोटी चेकबुक। देखा तो चकरा गई। पूरी छह टिकटें-तीन आने की, तीन जाने की। एक तरफ की तीन! सम्मेलन तो एक ही जगह है। मुझे अपनी पंसद के हवाई जहाज छाँटने हैं क्या? तूने कबीर, सूर और तुलसी के तीन अलग-अलग सम्मेलन समझ लिये क्या? मुझे तीनों पर एक ही सम्मेलन पर बोलना है। ?

बेटा झुँझलाया, ’’टिकट भी एक ही सम्मेलन के हैं; लेकिन यहाँ से ट्रिनिडाड जाने के लिए तीन फ्लाइट्स चेंज करनी होंगी आपको। स्ट्रैंटन (पेनसिल्वेनिया) से फिलाडेल्फिया, फिलाडेल्फिया से मियामी और मियामी से पोर्ट ऑफ स्पेन-यानी ट्रिनिडाड।’’

’’क्या कह रहा है!’’ मेरे पैरों के नीचे से अमेरिका की धरती खिसकती जा रही थी। चेहरे पर कई हवाई जहाज दम-के-दम उड़ानें भरने लगे थे। सँभलकर बोली, ‘‘मुझसे तो कहा गया था, कुल  दूरी तो पाँच-छह घंटों की ही है, लेकिन तीन हवाई जहाज मिलकर दो-दो घंटे में आपको पहुँचाएँगे।’’ 

 ‘‘फिर भी, ठीक तरह से जाँच ले! तू सम्मेलन के टिकट लाया है न-या हवाई जहाजों की रिले रेस के!’’ 

बेटा डपटा, ‘‘मैंने तो जाँच कर ही लिये है, आप जाँच लीजिए; क्योंकि जाना आपको है।’’ 

‘‘मुझे जाना है, इसीलिए तो कह रही हूँ। तीन-तीन हवाई जहाज मैं कैसे बदल पाऊँगी, बेटा? तू किसी तरह एक का ही इंतजाम करा दे।’’

 ‘‘तो आप सम्मेलनवालों को लिख दीजिए-एक ऐसा हवाई जहाज भेज दें जो आपको मेरे घर के दरवाजे से उठाकर सीधे सम्मेलन-कक्ष में उतार दे, वरना तो आपको अमेरिका की दो घरेलू और एक अंतराश्ट्रीय उड़ान भरनी ही होंगी।‘‘ 

मेरे पैरों के नीचे वाली अमेरिकी धरती अब पूरी तरह खिसक चुकी थी। (खैर, उसकी तो कोई बात नहीं, विदेषी धरती थी) और मैं अधर में लटकी विकसित देषों की अर्थव्यवस्था को कोसे जा रही थी । अमीर देषों के साथ यही खराबी होती है। ज्यादा पैसे तो ज्यादा हवाई जहाज। एक-एक पैसेंजर के पीछे तीन-तीन हवाई जहाज। सनपने की हद है। 

ऊपर से विदेषों के एयरपोर्ट। इनके नाम से मेरी घिग्घी बँध जाती है। जिस भी एयरपोर्ट पर पहुँचती हूँ, एक-न-एक हादसा होकर रहता है। बीसों टर्मिनल्स, सैकड़ों ‘एंट्रीज’ , हजारों ‘इग्जिट्स’ सभी से लोग घुस रहे हैं, निकल रहे हैं जैसे पूरी दुनिया में एयरपोर्टों की एंट्रीज और इग्जिट से धुसने और निकलने के सिवा लगों को और कोई काम ही नहीं। यह तो मुझे बहुत बाद में पता चला कि दरअसल इतनी सारी ‘इग्जिटों’ से निकल-निकलकर लोग अपनी जिंदगी की सही ‘एंट्री’ तलाशते रहते है। कुछेक का मिल भी जाती हैं।

’’आपको भी मिल जाएगी-तीनों उड़ानों में। बेकार परेशान हो रही हैं आप।’’ बेटा तरस खाकर समझाने लगा, ’’सारी सूचनाएँ जगह-जगह साफ-साफ लिखी होती हैं। और आप पढ़ी-लिखी हैं, उम्रदराज है। अपने टिकट से यही फ्लाइट नंबर और टर्मिनल मिलाती जाइएगा, बसं’’

पूरा परिवार एकजुट होकर मुझे घर से बाहर होनेवाले अंतरराश्ट्रीय सम्मेलन में  भेजने के लिए कृतसंकल्प था। अचानक ही उनका हिंदी-प्रेम बाँध तोड़कर बह चला था। वे हिंदी और अमेरिका एयरपोर्टों की तारीफों के पुल बाँधते नहीं अघा रहे थे। पूरे पाँच दिन इस सेतुबंध कार्यक्रम के उपरांत छठे दिन आने-जाने के पूरे छह टिकटों के साथ मैं एयरपोर्ट पहुँचा दी गई। बेटा जाते-जाते आष्वस्त कर गया कि आप सिर्फ टर्मिनल नंबर 10 ढूँढ़कर बैठ जाइए और अपनेवाले प्लेन का नंबर याद रखिए। जब नंबर पुकारा जाए तब सारे यात्रियों के साथ उठकर प्लेन में बैठ जाइए, बस। 

मैंने सचमुच 10 नंबर का टर्मिनल ढूँढ़ लिया और एक आरामदेह कुरसी पर बैठा गई। बैठने के साथ ही मेरा खोया आत्मविष्वास जाग गया। मैं अगल-बगल बैठे लोगों से विष्सवबंधुत्व अर्थात् भाईचारा स्थापित करने की कोषिश करने लगी। उन्हें यह भी जतया दिया कि हमारे लिए अंग्रेजी (बोलना-समझना) कोई समस्या नहीं है (समस्या तो देश में हिंदी बोलने-समझने की है), अतः वे चाहें तो अग्रेंजी में भी तो अंग्रेजी में भी भरपूर भाईचारा स्थापित कर सकते हैं लेकिन उन लोगों ने जरा भी रूचि दिखाई ही नहीं। मुझे शक हुआ कि कहीं ’भाईचारा’ शब्द से उन्हें ’चोर’ की बू तो नहीं आ रही! लेकिन जब मेरे अगल-बगल के लोग मेरा साथ छोड़ दनादन उठने लगे तो मैंने घबराकर कारण पूछा। पता चला, प्लेन नंबर ‘सात चार पाँच छह दो’ अब 10 की जगह टर्मिनल नंबर 11 से जाएगा। 

‘‘अरे ! ये तो मेरा वाला प्लेन है, आपको कैसे पता ?‘‘ कहती हुई मैं हड़बड़ाकर उठी। 

‘‘अभी-अभी अनाउंसमेंट हुआ न, जब आप विश्वबंधुत्व स्थापित कर रही थीं।’’ और मुसकराते हुए मेरा सहयात्री आगे बढ़ गया। दौड़ती हुई मैं उसके पीछे थी। और मेरा आत्मविष्वास एकदम बहुत-बहुत पीछे छूटता चला गया। 

प्लेन में बैठने के बाद भी मैं उखड़ी साँसें समेटती सीट के हत्थे पर लगी एक के बाद एक बटनें दबाती रही-इस आस में कि किसी तरह विदेषी एयरपोर्ट पर खोया मेरा आत्मविष्वास वापस आ जाए; पर हर बार बटन दबाने पर कभी इयरफोन में गाने आए, कभी स्क्रीन पर देषी-विदेषी फिल्में, कभी सामने से एयरहोस्टेस....न आया तो आत्मविष्वास। हिंदीवालों के साथ यही तो परेशानी हैं। 

यहाँ तक कि हवाई जहाज फिलाडेल्फिया पहुँव गया और आभूशण-विहीन नारी की भाँति आत्मविष्वास-विहीन हिंदी लेखिका मैं जहाज से उतरे अपने सहयात्रियों के साथ दौड़ चली। दौड़ते-भागते सारे यात्री एक गोल घेरे के सामने खड़े होते गए। यह ‘लगेज-रिंग’ संसार-चक्र के समान लगातार घूम रहा था, जब जिसके सामने से उसका सामने से उसका सूटकेस या बैग गुजरता, झपट के उतार लेता। मैं भी जल्दी से एकदम सामने पहुँच गई। जैसे ही खाकी रंग का कोई सूटकेस सामने से गुजरता, मैं अपना समझ जल्दी से उतार लेती। लेकिन फिर उसपर किसी और का नाम-पता देख झेंपकर वापस रख देती। अकसर उन सूटकेसों के मालिक स्वयं लपककर मेरे पास आ जाते और कभी धन्यवाद देकर, कभी सिर्फ घूरकर उठा ले जाते। इस प्रकार मैंने बहुतेरे ‘लगेज’ उठाए और वापस रखे।... अब तक मैं दूसरों के सूटकेस उठाते-उठाते तंग आ गई थी। 

आखिर हर जगह सौतेला व्यवहार क्यों होता है? इतने लोगों के बीच सिर्फ मेरा ही सूटकेस नदारद।

अफसर खिलंदड़ा भी था, शरीफ भी। मुझे समझाते हुए मुसकराया, ‘‘मैडम! आपने तो अपना लगेज मियाजी तक के लिए बुक कराया हुआ है। ये तो उनके सामान हैं जिन्हें बस यहीं तक आना था।’’ 

यानी गुमशुदा आत्मविष्वास एक के बाद एक खुराफों करने और मुझे परेशान करने से बाज नहीं आ रहा। बैठते-उठते भी बिना बात की बेचैनी बरकरार कि कहीं मियामी में सचमुच सूटकेस गुम हो गया हो गया तो? कबीर और तुलसी से जुड़ी मेरे सूटके में बंद रखी रह जाएँगी। सम्मेलन, हिंदी और वहाँ के लोग मेरी इतनी महत्पूर्ण योजनाओं का लाभ उठाने से वंचित रह जाएँगे और मैं अंतरराश्ट्रीय मंच व माइक से। कुल मिलाकर यह हिंदी की ही हानि होगी। लेकिन हानि नहीं हो पाई। मियामी में मेरा सूटकेस एकदम सामने था। मैंने उसे हाथों में उठाने के बजाय गले से लगा लिया। वह मानो मुझसे कह रहा था-मैं खोया ही कहाँ था, सिर्फ तुम्हारा आत्मविष्वास खोया था। खैर, हिंदी की इज्जत रह गई। 

लेकिन अभी सुस्ता भी न पाई थी कि इमीग्रेशन-क्लीयरेंस का ध्यान आया। अब अमेरिका के बाहर जो जाना था। सिर घुमाया तो चारों ओर काउंटरों और कतारों की जबरदस्त भीड़। जैसे पूरा ब्रम्हांड टूट पड़ा हो। मुझे लगा, या तो सभी ग्रह-नक्षत्रों के निवासी अमेरिका माइग्रेट कर रहे हैं या अंतरराश्ट्रीय हिंदी सम्मेलन में सहभागिता करने जा रहे है। मै जिस भी क्यू में खड़ी होती, मेरे पहलेवालों का केस बिगड़ जाता। पूछताछ बढ़ती जाती। मेरा ब्लडप्रेशर भी। सिर्फ आधे घंटे बाद मुझे यात्रा को अगली यानी अंतिम फ्लाइट लेनी थी। एक बार फिर से नई फ्लाइट नए टर्मिनल के नंबर रटने थे। मुझसे छिटक-छिटककर चलते आत्माविष्वास को मुचकारकर साथ लेना था; पर मैंने कहा न, अब विदेशो में भी हिंदीवालों के साथ स्वदेश जैसा ही बरताव होने लगा है। किसी काउंटर पर कोई रियासत नहीं।

अंततः औपचारिकताएँ पुरी हुई। मैंने जल्दी से पलटकर टिकट बुक खोली। फ्लाइट नंबर देखा और रटती-रटती दौड़ चली सुरंगों, एस्केलेटरों और लाउंजों से होकर भागती भीड़ के साथ-साथ। टिकट देखती और भागती, भागती और रूकती। घोशणाओं का अनहद नाद जारी था। सूचनाएँ लाल, हरी, नियोन लाइटों की शक्ल में सरकती जा रही थीं। कुछ बिजली की तरह चमकतीं और जब तक मैं पूरा पढ़ती, विलीन हो जातीं। अंत मे सोचा, इतनी देर में तो आधी मुंबई छान मारती। क्यों न एकाध और से पूछ लूँ। ‘‘एक्सक्यूज मी! यू. एस. एयरलाइन का टार्मिनल नंबर सात ?’’ 

सुननेवाला रूका, मुझे ऊपर से नीचे तक जाँचा। तभी उसकी निगाह मेरे टिकट पर पड़ी-वह चौंका, ‘‘लेकिन आपका यह टिकट तो यू. एस. एयरलाइन का नहीं बल्कि अमेरिकन एयरलाइन का है- और वह रास्ता दूसरी तरफ है। क्षमा करें, मुझे लगता नहीं कि आपको यह फ्लाइट मिल पाएगी। एनी वे, ट्राई योर लक!’’ और वह चला गया। 

प्लेन सचमुच उड़ चुका था-मेरी जगह मेरे होशो-हवास लेकर। अब ऐसी प्रतिकूल स्थिति में रोने-धोने जैसी स्त्री सुलभ और स्त्रियोचित क्रियाओं को छोड़कर और कुछ अनूकूल पड़ता ही नहीं। स्त्री-चेतना और लेखकीय अस्मिता अलग निरूपाय पड़ी थीं। ऐसी विकट स्थिति में अचानक अंदर की पत्नी सक्रिय हो उठी और अमेरिकावाले घर में फोन लगा दिया। लेकिन जैसे ही पति की आवाज सुनी, सुनते ही सारा गुरूर सुर बाँधकर बह चला-म-मैं-म-म मियासी से बोल रही हूँ हिच्च। मेरा प्लेन, हिच्च मुझे लिये बिना ही उड़ गया, हिच्च। अब मैं क्या करूँ ऽऽऽऽ’’

पति ने डपटकर कहा, ’’पहले हिच्च-हिच्च करना बंद करो।’’

’’कर दिया-सुनो, अब मैं फौरन घर वापस आना चाहती हूँ हिच्च.... सॉरी। हाँ, मुझे कहीं जाना-वाना नहीं। मैं शेष जीवन अपने देश में ही हिंदी के प्रचार-प्रसार में लगाऊँगी।’’

उन्होंने दुबारा डपटा-’’स्वदेश के लिए हिंदी सेवाव्रत लेने की बाद में सोचना, पहले यह पता करो कि अगली फ्लाइट सम्मेलन तक पहुँचने की कब है?’’

’’मैंने कहा न, मुझे कहीं नहीं जाना, घर वापस आना है।’’

’’ओह हो.... लेकिन घर में सभी ठीक-ठाक है। कोई परेशानी नहीं। तुम्हें इतनी जल्दी लौटने की क्या जरूरत है?’’

’’इसलिए, क्योंकि मुझमें सम्मेलन तक पहुँचने की हिम्मत नहीं बची है।’’

’’तो एक काम करो-जैसे मुझे फोन किया है वैसे ही सम्मेलनवालों को फोन कर दो कि आधी दूर मैं आई, आधी दुर आप लोग आ जाओ।’’

शायद पति की आवाज में ही वह सामर्थ्य था कि मेरी पत्नीत्व की कुंडलिनी पूरी तरह जाग्रत् हो गई। उसी के बूते आपा खोकर चिल्लाई, ’’मेरी जान पर बनी है, आधे रास्ते फँसी पड़ी हूँ और आपको मखौट सूझ रहा है। मै बार-बार विनती कर रही थी कि मुझे इन तिकड़मी हवाई जहाजों के चक्कर में मत डालो। देसी रेलगाड़ियों तक में यात्रा के नाम पर एक स्टेशन पर कोई बर्थ पर मुझे रख जाता है, दूसरे पर उठा ले जाता है। ट्रेनें तक तो कभी बदली नहीं, हवाई जहाज कहाँ से बदलती! अपने शहर के गली-मुहल्ले तो याद रहते नहीं, इतन सारे द्वीपों, महाद्वीपों का हिसाब कहाँ से बिठाती मै!’’

स्थिति गंभीर होती देख फोन बेटे ने सँभाला, ’’पहले आप शांत होइए और यह बताइए कि प्लेन आपसे छूटा कैसे?’’

’’मैने कहाँ छोड़ा, वह खुद ही मुझे लिये बिना उड़ गया। मैं तो जब से चली, एक टर्मिनल से दूसरे टर्मिनल, एक काउंटर से दूसरे काउंटर भाग ही रही हूँ।’’

’’ओह माँ! लेकिन इतना भागने से पहले आपको पूछ लेना था न किसी से।’’

’’पूछा तो कई बार, लेकिन ये अमेरिकन कायदे की अंग्रजी भी तो नहीं बोल पाते।’’

’’ओह.... तो यह बात है, आप उनका बताया समझीं ही नहीं।’’

’’अरे, तो वे ही कहाँ समझे मेरा पूछा। वो तो एक ने जब अचानक टिकट देखा तब कहीं असलियता उसकी समझ में आई।’’

 ‘‘और तब तक आपका हवाई जहाज उड़ चुका था।’’ 

 ‘‘छोड़-अब तो तू बेटा, मेरा फोन को ‘तार’ (टेलीग्राम) समझ और जल्दी-से-जल्दी मुझे वापस बुलाने की जुगत बिठा।‘‘

‘‘वापस तो आप अभी आ ही नहीं सकतीं न, क्योंकि वापसी का टिकट सात दिनों बाद का है। जब तक आप आगे नहीं जाएँगी, आप पीछे भी नहीं लौट पाएँगी।’’

‘‘तो... अब क्या करूँ ?’’ ?

‘‘हिम्मत से काम लीजिए और सम्मेलन तक हो आइए। आपके इस तरह दहाड़ें मारकर रोने से हिंदी का कोई फायदा नहीं होनेवाला। आप वही कर रही हैं जो पिछले पचपन वर्शों से हिंदीवाले कर रहे है। लीजिए, अभी-अभी संयोजकजी से बातें हुई। उन्होंने आश्वस्त किया है कि एक बार आप वहाँ के एयरपोर्ट तक पहुँच जाएँ, बाद की सारी जिम्मेदारी उनकी। और वापसी में तो आपको बहुतेरों के साथ मिल जाएगा। इसलिए फिलहाल तो आप सिर्फ पंद्रह मिनट बाद छूटनेवाली यह फ्लाइट पकड़िए, क्योकि आप सही टर्मिनल पर बैठी हैं।’’

मैंने आँखें मूँदकर प्लेन में इस तरह प्रवेश किया जैसे हनुमानजी ने लंका में प्रवेश किया था। आश्चर्य! मेरा आत्मविश्वास भी अगली सीट पर बैठा मुझे झाँक रहा था। 

और पोर्ट ऑफ स्पेन अर्थात् ट्रिनिडाड की फूलों भरी धरती पर उतरत ही पाँव पँखुड़ियों-से हलके हो आए। एयरपोअर्ट पर अगवानी ‘रामधुनी’ कर रहे हैं तो आवास की व्यवस्था ‘सिरीराम‘ सँभाल रहे हैं। उद्घाटन स्थल पर लगे बुक स्टॉलों के पास गोविंद मिश्र दीख रहे हैं तो आम लदे वूक्षों को निहारतें नरेंद्र कोहली युगल; वॉयरस आफॅ अमेरिका पर सम्मेलन की उद्घोशाणा करते नंदनजी तो अभ्यागतों से मिलती डॉ. निर्माता जैन, षंकाएँ और सुझाव सहेजती मारिया न्येगेसी। आवभगत सिल्विया कुबलाल सिंह कर रही हैं तो संबोधित डॉ. प्रेम जनमेजय। प्रधानमंत्री हिंदी और हिंदी गानों पर अभिभूत हो रहे हैं, ’नीमकहराम’ की चुटकी ले रहे हैं तो शिक्षामंत्री प्रेमचंद का बयान कर रहे हैं। सम्मेलन स्थल में चारों तरफ हिंदी की तख्तियाँ व पर्चियाँ हैं और मंच के पीछे रंग-बिरंगी झालरों में झूलती अपनी वर्णमाला। 

इसके अलावा भी, सहभोजों में पिचकारी गीत बज रहे हैं और कारों में हिंदी फिल्मों के कैसेट-’तुम मिले, हम मिले और जीने को क्या चाहिए।’’

अपने गीत, अपने लोकगीत, अपनी होली-दीवाली, अपने चौताल, चौमासे। अपनी भाशा की घुट्टी, अपनी बोलियों की कुंज गली-अपनी स्मृतियों का वृंदावन....अमराई के-से लदे-कैद आमकृअपनी-सी धूप, फैला-फैला आकाश...यह धरती, यह देश विदेश कैसे हो सकता है? 

विश्वास कर पाने का बस एक ही आधार-जहाँ हिन्दी को इतना -सम्मान मिल सकता है, वह स्थान विदेश ही हो सकता है। 

भारतवंषियों के बीच फूलों, परागों-सी जगर-मगर हिंदी, प्यार और दुलार से जुड़ी-मिली हिंदी, इतिहास के गौरव और वर्तमान की पहचान से भरी-पूरी हिंदी। इतनी हिंदी और ऐसी हिंदी हमें अपने देश में क्यों नहीं मिलती? कब तक मिलेगी?

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2 टिप्पणियाँ

  1. सूर्यबाला जी का यह व्यंग्य लेख प्रमाणिक है और इसका प्रेरक मैं ही हूँ , त्रिनिदाद जैसे सुदूर देश में इनको निमंत्रित करने का दोषी मैं ही हूँ , पर इसका परिनाम्म अच्छा ही रहा की हिंदी साहित्य को एक अलग अछूते विषय पर एक बढ़िया रचना मिल गयी सूर्यबाला जी को सजीव चित्रण के लिए बधाई

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  2. सूर्यबाला जी आपकी यात्रा की परेशानी और साटिक व्यंग्य का हमने खूब आनन्द लिया , बहूत सुंदर व्यंग्य

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